Saturday, March 13, 2010

सूचना तंत्र की ताकत के सामने नतमस्तक हम


सूचना नहीं सूचना तंत्र की ताकत के आगे हम नतमस्तक खड़े हैं। यह बात हमने आज स्वीकारी है, पर कनाडा के मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकुलहान को इसका अहसास साठ के दशक में ही हो गया था। तभी शायद उन्होंने कहा था कि ‘मीडियम इज द मैसेज’ यानी ‘माध्यम ही संदेश है।’ मार्शल का यह कथन सूचना तंत्र की महत्ता का बयान करता है। आज का दौर इस तंत्र के निरंतर बलशाली होते जाने का समय है। नई सदी की चुनौतियां इस परिप्रेक्ष्य में बेहद विलक्षण हैं। जा रही सदी ने सूचना तंत्र के उभार को देखा है, उसकी ताकत को महसूस किया है। आने वाली सदी में यह सूचना तंत्र या सूचना प्रौद्योगिकी ही हर युद्ध की नियामक होगी, जाहिर है नई सदी में लड़ाई हथियारों से नहीं सूचना की ताकत से होनी है। जर्मनी को याद करें तो उसने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के पूर्व जो ऐतिहासिक जीतें दर्ज की वह उसकी चुस्त-दुरुस्त टेलीफोन व्यवस्था का ही कमाल था। आज भारत जैसे विकासशील और बहुस्तरीय समाज रचना वाले देश ने भी सूचना प्रौद्योगिकी के इस सर्वथा नए क्षेत्र के प्रति उत्साह दिखाया है। ये संकेत नई सदी की सबसे बड़ी चुनौती से मुकाबले की तैयारी तो है ही साथ ही इसमें एक समृद्ध भारत बनाने के सपने भी छिपे हैं। 1957 में पहले मानव निर्मित उपग्रह को छोड़ने से लेकर आज हम ‘साइबर स्पेस’ के युग तक पहुंच गए हैं। सूचना आज एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गई है। सत्तर के दशक में तो पूंजीवादी एवं साम्यवादी व्यवस्था के बीच चल रही बहस और जंग इसी सूचना तंत्र पर लड़ी गई, एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल होता यह सूचना तंत्र आज अपने आप में एक निर्णायक बन गया है। समाज-जीवन के सारे फैसले यह तंत्र तरवा रहा है। सच कहें तो इन्होंने अपनी एक अलग समानांतर सत्ता स्थापित कर ली है। रूस का मोर्चा टूट जाने के बाद अमरीका और उसके समर्थक देशों की बढ़ी ताकत ने सूचना तंत्र के एकतरफा प्रवाह को ही बल दिया है। सूचना तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण ने अमरीकी राजसत्ता और उसके समर्थकों को एक कुशल व्यापारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बाजार और सूचना के इस तालमेल में पैदा हुआ नया चित्र हतप्रभ करने वाला है। पूंजीवादी राजसत्ता इस खेल में सिंकदर बनी है। ये सूचना तंत्र एवं पूंजीवादी राजसत्ता का खेल आप खाड़ी युद्ध और उसके बाद हुई संचार क्रांति से समझ सकते हैं। आज तीसरी दुनिया को संचार क्रांति की जरूरतों बहुत महत्वपूर्ण बताई जा रही है। अस्सी के दशक तक जो चीज विकासशील देशों के लिए महत्व की न थी वह एकाएक महत्वपूर्ण क्यों हो गई । खतरे का बिंदू दरअसल यही है। मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था से ग्रस्त पश्चिमी देशों को बाजार की तलाश तथा तीसरी दुनिया को देशों में खड़ा हो रहा, क्रयशक्ति से लबरेज उपभोक्ता वर्ग वह कारण हैं जो इस दृश्य को बहुत साफ-साफ समझने में मदद करते हैं । पश्चिमी देशों की यही व्यावसायिक मजबूरी संचार क्रांति का उत्प्रेरक तत्व बनी है। यह सिलसिला तीसरी दुनिया के मुल्कों से सुंदरियों तलाशने से शुरू हुआ है। ऐश्वर्या, सुष्मिता, युक्ता मुखी, डायना हेडेन भारतीय संदर्भ में ऐसे ही उदाहरण हैं । उपभोग की लालसा तैयार करने में जुटे ये लोग दरअसल तीसरी दुनिया की बड़ी आबादी में अपना उपभोक्ता तलाश रहे हैं। सूचना के लिए पश्चिमी राष्ट्रों पर विकासशील देशों की निर्भरता जग जाहिर है। यह निर्भरता विश्व में अशांति व हथियार उद्योग को बल देने में सहायक बनी है। विकासशील देशों में आज भी सीधा संवाद नहीं हो पाता । संवाद कराने में विकसित राष्ट्र बिचौलिए की भूमिका निभाते हैं। निर्भरता का आलम यह है कि आज भी हम अपने देश की खबरों को ही बीबीसी, सीएनएन, वॉयस ऑफ अमरीका, रेडियो जापान या विदेशी एजेंसियों से प्राप्त करते हैं। विकसित देश, विकासशील देश, देशों की इस निर्भरता का फायदा उठाकर हमें वस्तु दे रहे हैं, पर उसकी तकनीक को छिपाना चाहते हैं। मीडिया विश्लेषक मैकब्राइड ने शायद इसी खतरे को पहचानकर ही कहा था कि ‘विकासशील देशों द्वारा विदेशी तकनीक का इस्तेमाल ज्यादा खतरनाक होगा। इसलिए जब तक विकासशील देश आत्मनिर्भर नहीं होते तब तक उन्हें पारंपरिक और वैयक्तिक संचार माध्यमों का प्रयोग करना चाहिए’। लेकिन बाजार के इस तंत्र में मैकब्राइड की बात अनसुनी कर दी गई। हम देखें तो अमरीका ने लैटिन देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से कब्जा कर उन्हें अपने ऊपर निर्भर बना लिया। अब पूरी दुनिया पर इसी प्रयोग को दोहराने का प्रयास जारी है। निर्भरता के इस तंत्र में अंतर्राट्रीय संवाद एजेंसियां, विज्ञापन एजेसियां, जनमत संस्थाएं, व्यावसायिक संस्थाए मुद्रित एवं दृश्य-श्रवण सामग्री, अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार कंपनियां, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियां सहायक बनी हैं ।

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