Wednesday, December 29, 2010

बात तो साफ हुई कि मीडिया देवता नहीं है !



-संजय द्विवेदी
यह अच्छा ही हुआ कि यह बात साफ हो गयी कि मीडिया देवता नहीं है। वह तमाम अन्य व्यवसायों की तरह ही उतना ही पवित्र व अपवित्र होने और हो सकने की संभावना से भरा है। 2010 का साल इसलिए हमें कई भ्रमों से निजात दिलाता है और यह आश्वासन भी देकर जा रहा है कि कम से कम अब मीडिया के बारे में आगे की बात होगी। यह बहस मिशन और प्रोफेशन से निकलकर बहुत आगे आ चुकी है।
इस मायने में 2010 एक मानक वर्ष है जहां मीडिया बहुत सारी बनी-बनाई मान्यताओं से आगे आकर खुद को एक अलग तरह से पारिभाषित कर रहा है। वह पत्रकारिता के मूल्यों, मानकों और परंपराओं का भंजन करके एक नई छवि गढ़ रहा है, जहां उससे बहुत नैतिक अपेक्षाएं नहीं पाली जा सकती हैं। कुछ अर्थों में अगर वह कोई सामाजिक काम गाहे-बगाहे कर भी गया तो वह कारपोरेट्स के सीएसआर (कारपोरेट सोशल रिस्पांस्बिलिटी) के शौक जैसा ही माना जाना चाहिए। मीडिया एक अलग चमकीली दुनिया है। जो इसी दशक का अविष्कार और अवतार है। उसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भनाल में मत खोजिए, यह दरअसल बाजारवाद के नए अवतार का प्रवक्ता है। यह उत्तरबाजारवाद है। इसे मूल्यों, नैतिकताओं, परंपराओं की बेड़ियों में मत बांधिए। यह अश्वमेघ का धोड़ा है,जो दुनिया को जीतने के लिए निकला है। देश में इसकी जड़ें नहीं हैं। वह अब संचालित हो रहा है नई दुनिया के,नए मानकों से। इसलिए उसे पेडन्यूज के आरोपो से कोई उलझन, कोई हलचल नहीं है, वह सहज है। क्योंकि देने और लेने वालों दोनों के लक्ष्य इससे सध रहे हैं। लोकतंत्र की शुचिता की बात मत ही कीजिए। यह नया समय है,इसे समझिए। मीडिया अब अपने कथित ग्लैमर के पीछे भागना नहीं चाहता। वह लाभ देने वाला व्यवसाय बनना चाहता है। उसे प्रशस्तियां नहीं चाहिए, वह लोकतंत्र के तमाम खंभों की तरह सार्वजनिक या कारपोरेट लूट में बराबर का हिस्सेदार और पार्टनर बनने की योग्यता से युक्त है।
मीडिया का नया कुरूक्षेत्रः
मीडिया ने अपने कुरूक्षेत्र चुन लिए हैं। अब वह लोकतंत्र से, संवैधानिक संस्थाओं से, सरकार से टकराता है। उस पर सवाल उठाता है। उसे कारपोरेट से सवाल नहीं पूछने, उसे उन लोगों से सवाल नहीं पूछने जो मीडिया में बैठकर उसकी ताकत के व्यापारी बने हैं। वह सवाल खड़े कर रहा है बेचारे नेताओं पर,संसद पर जो हर पांच साल पर परीक्षा के लिए मजबूर हैं। वह मदद में खड़ा है उन लोगों के जो सार्वजनिक धन को निजी धन में बदलने की स्पर्धा में जुटे हैं। बस उसे अपना हिस्सा चाहिए। मीडिया अब इस बंदरबांट पर वाच डाग नहीं वह उसका पार्टनर है। उसने बिचौलिए की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व संभाल लिया है। उसे ड्राइविंग सीट चाहिए। अपने वैभव, पद और प्रभाव को बचाना है तो हमें भी साथ ले लो। यह चौथे खंभे की ताकत का विस्तार है। मीडिया ने तय किया है कि वह सिर्फ सरकारों का मानीटर है, उसकी संस्थाओं का वाच डाग है। आप इसे इस तरह से समझिए कि वह अपनी खबरों में भी अब कारपोरेट का संरक्षक है। उसके पास खबरें हैं पर किनकी सरकारी अस्पतालों की बदहाली की, वहां दम तोड़ते मरीजों की,क्योंकि निजी अस्पतालों में कुछ भी गड़ब़ड़ या अशुभ नहीं होता। याद करें कि बीएसएनएल और एमटीएनएल के खिलाफ खबरों को और यह भी बताएं कि क्या कभी आपने किसी निजी मोबाइल कंपनी के खिलाफ खबरें पढ़ी हैं। छपी भी तो इस अंदाज में कि एक निजी मोबाइल कंपनी ने ऐसा किया। शिक्षा के क्षेत्र में भी यही हाल है। सारे हुल्लड़-हंगामे सरकारी विश्वविद्यालयों, सरकारी कालेजों और सरकारी स्कूली में होते हैं- निजी स्कूल दूध के धुले हैं। निजी विश्वविद्यालयों में सारा कुछ बहुत न्यायसंगत है। यानि पूरा का पूरा तंत्र,मीडिया के साथ मिलकर अब हमारे जनतंत्र की नियामतों स्वास्थ्य, शिक्षा और सरकारी तंत्र को ध्वस्त करने पर आमादा है। साथ ही निजी तंत्र को मजबूत करने की सुनियोजित कोशिशें चल रही हैं। मीडिया इस तरह लोकतंत्र के प्रति, लोकतंत्र की संस्थाओं के प्रति अनास्था बढ़ाने में सहयोगी बन रहा है, क्योंकि उसके व्यावसायिक हित इसमें छिपे हैं। व्यवसाय के प्रति लालसा ने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। मीडिया संस्थान,विचार के नकली आरोपण की कोशिशों में लगे हैं ।यह मामला सिर्फ चीजों को बेचने तक सीमित नहीं है वरन पूरे समाज के सोच को भी बदलने की सचेतन कोशिशें की जा रही हैं। शायद इसीलिए मीडिया की तरफ देखने का समाज का नजरिया इस साल में बदलता सा दिख रहा है।
यह नहीं हमारा मीडियाः
इस साल की सबसे बड़ी बात यह रही कि सूचनाओं ने, विचारों ने अपने नए मुकाम तलाश लिए हैं। अब आम जन और प्रतिरोध की ताकतें भी मानने लगी हैं मुख्यधारा का मीडिया उनकी उम्मीदों का मीडिया नहीं है। ब्लाग, इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक जैसी साइट्स के बहाने जनाकांक्षाओं का उबाल दिखता है। एक अनजानी सी वेबसाइट विकिलीक्स ने अमरीका जैसी राजसत्ता के समूचे इतिहास को एक नई नजर से देखने के लिए विवश कर दिया। जाहिर तौर पर सूचनाएं अब नए रास्तों की तलाश में हैं. इनके मूल में कहीं न कहीं परंपरागत संचार साधनों से उपजी निराशा भी है। शायद इसीलिए मुख्यधारा के अखबारों, चैनलों को भी सिटीजन जर्नलिज्म नाम की अवधारणा को स्वीकृति देनी पड़ी। यह समय एक ऐसा इतिहास रच रहा है जहां अब परंपरागत मूल्य, परंपरागत माध्यम, उनके तौर-तरीके हाशिए पर हैं। असांजे, नीरा राडिया, डाली बिंद्रा,, राखी सावंत, शशि थरूर, बाबा रामदेव, राजू श्रीवास्तव जैसे तमाम नायक हमें मीडिया के इसी नए पाठ ने दिए हैं। मीडिया के नए मंचों ने हमें तमाम तरह की परंपराओं से निजात दिलाई है। मिथकों को ध्वस्त कर दिया है। एक नई भाषा रची है। जिसे स्वीकृति भी मिल रही है। बिग बास, इमोशनल अत्याचार, और राखी का इंसाफ को याद कीजिए। जाहिर तौर पर यह समय मीडिया के पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं है। यह समय विकृति को लोकस्वीकृति दिलाने का समय है। इसलिए मीडिया से बहुत अपेक्षाएं न पालिए। वह बाजार की बाधाएं हटाने में लगा है। तो आइए एक बार फिर से हम हमारे मीडिया के साथ नए साल के जश्न में शामिल हो जाएं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Sunday, December 26, 2010

विनायक सेन, माओवाद और बेचारा जनतंत्र

-संजय द्विवेदी
डा. विनायक सेन- एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, पढ़ाई से डाक्टर हैं, प्रख्यात श्रमिक नेता स्व.शंकरगुहा नियोगी के साथ मिलकर मजदूरों के बीच काम किया, गरीबों के डाक्टर हैं और चाहते हैं कि आम आदमी की जिंदगी से अंधेरा खत्म हो। ऐसे आदमी का माओवादियों से क्या रिश्ता हो सकता है ? लेकिन रायपुर की अदालत ने उन्हें राजद्रोह का आरोपी पाया है। आजीवन कारावास की सजा दी है। प्रथम दृष्ट्या यह एक ऐसा सच है जो हजम नहीं होता। रायपुर में रहते हुए मैंने उन्हें देखा है। उनके जीवन और जिंदगी को सादगी से जीने के तरीके पर मुग्ध रहा हूं। किंतु ऐसा व्यक्ति किस तरह समाज और व्यवस्था को बदलने के आंदोलन से जुड़कर कुछ ऐसे काम भी कर डालता है कि उसके काम देशद्रोह की परिधि में आ जाएं, मुझे चिंतित करते हैं। क्या हमारे लोकतंत्र की नाकामियां ही हमारे लोगों को माओवाद या विभिन्न देशतोड़क विचारों की ओर धकेल रही हैं? इस प्रश्न पर मैं उसी समय से सोच रहा हूं जब डा. विनायक सेन पर ऐसे आरोप लगे थे।
अदालत के फैसले पर हाय-तौबा क्यों-
अदालत, अदालत होती है और वह सबूतों की के आधार पर फैसले देती हैं। अदालत का फैसला जो है उससे साबित है कि डा. सेन के खिलाफ आरोप जो थे, वे आरोप सच पाए गए और सबूत उनके खिलाफ हैं। अभी कुछ समय पहले की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसी मामले पर जमानत दी थी। उस जमानत को एक बड़ी विजय के रूप में निरूपित किया गया था और तब हमारे कथित बुद्धिजीवियों ने अदालत की बलिहारी गायी थी। अब जब रायपुर की अदालत का फैसला सामने है तो स्वामी अग्निवेश से लेकर तमाम समाज सेवकों की भाषा सुनिए कि अदालतें भरोसे के काबिल नहीं रहीं और अदालतों से भरोसा उठ गया है और जाने क्या-क्या। ये बातें बताती हैं कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं। जहां हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं को सम्मान देना तो दूर उनके प्रति अविश्वास पैदा कर न्याय की बात करते हैं। निशाना यहां तक कि जनतंत्र भी हमें बेमानी लगने लगता है और हम अपने न्यायपूर्ण राज्य का स्वर्ग माओवाद में देखने लगते हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें, जिनका इस देश के गणतंत्र में भरोसा नहीं है अपने निजी स्वर्ग रचना चाहती हैं। उनकी जंग जनतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने, उसे सार्थक बनाने की नहीं हैं। उनकी जंग तो इस देश के भूगोल को तितर-बितर कर देने के लिए है। वे भारत को सांस्कृतिक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। शायद इसी वैचारिक एकता के नाते अलग काश्मीर का ख्वाब देखने वाले अलीशाह गिलानी, माओ का राज लाने में लगे कवि बरवर राव और देश को टुकड़ों का बांटने की स्वप्नदृष्टा अरूंघती राय, खालिस्तान के समर्थक नेता एक मंच पर आने में संकोच नहीं करते। यह आश्चर्यजनक है इन सबके ख्वाब और मंजिलें अलग-अलग हैं पर मंच एक हैं और मिशन एक है- भारत को कमजोर करना। यह अकारण नहीं है मीडिया की खबरें हमें बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ में माओवादियों की एक महत्वपूर्ण बैठक हुयी तो उसमें लश्करे तैयबा के दो प्रतिनिधि भी वहां पहुंचे।
उनकी लड़ाई तो देश के गणतंत्र के खिलाफ है-
आप इस सचों पर पर्दा डाल सकते हैं। देश के भावी प्रधानमंत्री की तरह सोच सकते हैं कि असली खतरा लश्करे तैयबा से नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है। चीजों को अतिसरलीकृत करके देखने का अभियान जो हमारी राजनीति ने शुरू किया है ,उसका अंत नहीं है। माओवादियों के प्रति सहानूभूति रखने वाली लेखिका अगर उन्हें हथियारबंद गांधीवादी कह रही हैं तो हम आप इसे सुनने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र ही है, जो आपको लोकतंत्र के खिलाफ भी आवाज उठाने की आजादी देता है। यह लोकतंत्र का सौन्दर्य भी है। हमारी व्यवस्था जैसी भी है किंतु उसे लांछित कर आप जो व्यवस्थाएं लाना चाहते हैं क्या वे न्यायपूर्ण हैं? इस पर भी विचार करना चाहिए। जिस तरह से विचारों की तानाशाही चलाने का एक विचार माओवाद या माक्सर्वाद है क्या वह किसी घटिया से लोकतंत्र का भी विकल्प हो सकता है? पूरी इस्लामिक पट्टी में भारत के समानांतर कोई लोकतंत्र खोजकर बताइए ? क्या कारण है अलग- अलग विचारों के लोग भारत के गणतंत्र या भारतीय राज्य के खिलाफ एक हो जाते हैं। उनकी लड़ाई दरअसल इस देश की एकता और अखंडता से है।
मोहरे और नारों के लिए गरीबों की बात करना एक अलग बात है किंतु जब काश्मीर के आतंकवादियों- पत्थर बाजों, मणिपुर के मुइया और माओवादी आतंकवादियों के सर्मथक एक साथ खड़े नजर आते हैं तो बातें बहुत साफ हो जाती हैं। इसे तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता कि घोटालेबाज धूम रहे हैं और विनायक सेन को सजा हो जाती है। धोटालेबाजों को भी सजा होनी चाहिए, वे भी जेल में होने चाहिए। किसी से तुलना करके किसी का अपराध कम नहीं हो जाता। अरूंधती की गलतबयानी और देशद्रोही विचारों के खिलाफ तो केंद्र सरकार मामला दर्ज करने के पीछे हट गयी तो क्या उससे अरूंधती का पाप कम हो गया। संसद पर हमले के आरोपी को सजा देने में भारतीय राज्य के हाथ कांप रहे हैं तो क्या उससे उसका पाप कम हो गया। यह हमारे तंत्र की कमजोरियां हैं कि यहां निरपराध लोग मारे जाते हैं, और अपराधी संसद तक पहुंच जाते हैं। किंतु इन कमजोरियों से सच और झूठ का अंतर खत्म नहीं हो जाता। जनसंगठन बना कर नक्सलियों के प्रति सहानुभूति के शब्दजाल रचना, कूटरचना करना, भारतीय राज्य के खिलाफ वातावरण बनाना, विदेशी पैसों के बल पर देश को तोड़ने का षडयंत्र करना ऐसे बहुत से काम हैं जो हो रहे हैं। हमें पता है वे कौन से लोग हैं किंतु हमारे जनतंत्र की खूबियां हैं कि वह तमाम सवालों पर अन्यान्न कारणों से खामोशी ओढ़ लेता है। वोटबैंक की राजनीति ने हमारे जनतंत्र को सही मायने में कायर और निकम्मा बना दिया है। फैसले लेने में हमारे हाथ कांपते हैं। देशद्रोही यहां शान से देशतोड़क बयान देते हुए घूम सकते हैं। माओ के राज के स्वप्नदृष्टा जरा माओ के राज में ऐसा करके दिखाएं। माओ, स्टालिन को भूल जाइए ध्येन आन-मन चौक को याद कीजिए।
विचारों की तानाशाही भी खतरनाकः
सांप्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर भयभीत हम लोगों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस धरती पर ऐसे हिंसक विचार भी हैं- जिन्होंने अपनी विचारधारा के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। ये हिंसक विचारों के पोषक ही भारतीय जनतंत्र की सदाशयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। आप याद करें फैसले पक्ष में हों तो न्यायपालिका की जय हो , फैसले खिलाफ जाएं तो न्यायपालिका की ऐसी की तैसी। इसे आप राममंदिर पर आए न्यायालय के फैसले से देख सकते हैं। पहले वामविचारी बुद्धिवादी कहते रहे न्यायालय का सम्मान कीजिए और अब न्यायालय के फैसले पर भी ये ही उंगली उठा रहे हैं। इनकी नजर में तो राम की कपोल कल्पना हैं। मिथक हैं। जनविश्वास और जनता इनके ठेंगें पर। किंतु आप तय मानिए कि राम अगर कल्पना हैं मिथक हैं तो भी इतिहास से सच्चे हैं , क्योंकि उनकी कथा गरीब जनता का कंठहार है। उनकी स्तुति और उनकी गाथा गाता हुआ भारतीय समाज अपने सारे दर्द भूल जाता है जो इस अन्यायी व्यवस्था ने उसे दिए हैं।
डा. विनायक सेन, माओवादी आतंकी नहीं हैं। वे बंदूक नहीं चलाते। अरूंधती राय भी नक्सलवादी नहीं हैं। अलीशाह गिलानी भी खुद पत्थर नहीं फेंकते। वे तो यहां तक नाजुक हैं कि नहीं चाहते कि उनका बेटा कश्मीर आकर उनकी विरासत संभाले और मुसीबतें झेले। क्योंकि उसके लिए तो गरीब मुसलमानों के तमाम बेटे हैं जो गिलानी की शह पर भारतीय राज्य पर पत्थर बरसाते रहेंगें, उसके लिए अपने बेटे की जान जोखिम में क्यों डाली जाए। इसी तरह बरवर राव भी खून नहीं बहाते, शब्दों की खेती करते हैं। लेकिन क्या ये सब मिलकर एक ऐसा आधार नहीं बनाते जिससे जनतंत्र कमजोर होता है, देश के प्रति गुस्सा भरता है। माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रखे हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं। ये सारी बातें अंततः हमारे हमारे जनतंत्र के खिलाफ जाती हैं क्या इसमें कोई दो राय है।
देशतोड़कों की एकताः
देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता ।
लोकतंत्र में ही असहमति का सौंदर्य कायम-
बावजूद इसके कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या माओवाद की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है। अगर है तो हमारे ये समाजसेवी, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, जनसंगठनों के लोग उनके प्रति सहानुभूति क्यों रख रहे हैं। क्या भारतीय राज्य को गिलानियों, माओवादियों, मणिपुर के मुईया, खालिस्तान समर्थकों के आगे हथियार डाल देने चाहिए और कहना चाहिए आइए आप ही राज कीजिए। इस देश को टुकड़ों में बांटने की साजिशों में लगे लोग ही ऐसा सोच सकते हैं। हम और आप नहीं। जनतंत्र कितना भी घटिया होगा किसी भी धर्म या अधिनायकवादी विचारधारा के राज से तो बेहतर है। महात्मा गांधी जिन्होंने कभी हिंसा का समर्थन नहीं किया, अरूँधती का बेशर्म साहस ही है जो नक्सलियों को ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ कह सकती हैं। ये सारा भी अरूंधती, गिलानी और उनकी मंडली इसलिए कर पा रही है, क्योंकि देश में लोकतंत्र है। अगर मैं लोकतंत्र में असहमति के इस सौंदर्य पर मुग्ध हूं- तो गलत क्या है। बस, इसी एक खूबी के चलते मैं किसी गिलानी के इस्लामिक राज्य, किसी छत्रधर महतो के माओराज का नागरिक बनने की किसी भी संभावना के खिलाफ खड़ा हूं। खड़ा रहूंगा।

विनायक सेन, माओवाद और बेचारा जनतंत्र

-संजय द्विवेदी
डा. विनायक सेन- एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, पढ़ाई से डाक्टर हैं, प्रख्यात श्रमिक नेता स्व.शंकरगुहा नियोगी के साथ मिलकर मजदूरों के बीच काम किया, गरीबों के डाक्टर हैं और चाहते हैं कि आम आदमी की जिंदगी से अंधेरा खत्म हो। ऐसे आदमी का माओवादियों से क्या रिश्ता हो सकता है ? लेकिन रायपुर की अदालत ने उन्हें राजद्रोह का आरोपी पाया है। आजीवन कारावास की सजा दी है। प्रथम दृष्ट्या यह एक ऐसा सच है जो हजम नहीं होता। रायपुर में रहते हुए मैंने उन्हें देखा है। उनके जीवन और जिंदगी को सादगी से जीने के तरीके पर मुग्ध रहा हूं। किंतु ऐसा व्यक्ति किस तरह समाज और व्यवस्था को बदलने के आंदोलन से जुड़कर कुछ ऐसे काम भी कर डालता है कि उसके काम देशद्रोह की परिधि में आ जाएं, मुझे चिंतित करते हैं। क्या हमारे लोकतंत्र की नाकामियां ही हमारे लोगों को माओवाद या विभिन्न देशतोड़क विचारों की ओर धकेल रही हैं? इस प्रश्न पर मैं उसी समय से सोच रहा हूं जब डा. विनायक सेन पर ऐसे आरोप लगे थे।
अदालत के फैसले पर हाय-तौबा क्यों-
अदालत, अदालत होती है और वह सबूतों की के आधार पर फैसले देती हैं। अदालत का फैसला जो है उससे साबित है कि डा. सेन के खिलाफ आरोप जो थे, वे आरोप सच पाए गए और सबूत उनके खिलाफ हैं। अभी कुछ समय पहले की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसी मामले पर जमानत दी थी। उस जमानत को एक बड़ी विजय के रूप में निरूपित किया गया था और तब हमारे कथित बुद्धिजीवियों ने अदालत की बलिहारी गायी थी। अब जब रायपुर की अदालत का फैसला सामने है तो स्वामी अग्निवेश से लेकर तमाम समाज सेवकों की भाषा सुनिए कि अदालतें भरोसे के काबिल नहीं रहीं और अदालतों से भरोसा उठ गया है और जाने क्या-क्या। ये बातें बताती हैं कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं। जहां हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं को सम्मान देना तो दूर उनके प्रति अविश्वास पैदा कर न्याय की बात करते हैं। निशाना यहां तक कि जनतंत्र भी हमें बेमानी लगने लगता है और हम अपने न्यायपूर्ण राज्य का स्वर्ग माओवाद में देखने लगते हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें, जिनका इस देश के गणतंत्र में भरोसा नहीं है अपने निजी स्वर्ग रचना चाहती हैं। उनकी जंग जनतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने, उसे सार्थक बनाने की नहीं हैं। उनकी जंग तो इस देश के भूगोल को तितर-बितर कर देने के लिए है। वे भारत को सांस्कृतिक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। शायद इसी वैचारिक एकता के नाते अलग काश्मीर का ख्वाब देखने वाले अलीशाह गिलानी, माओ का राज लाने में लगे कवि बरवर राव और देश को टुकड़ों का बांटने की स्वप्नदृष्टा अरूंघती राय, खालिस्तान के समर्थक नेता एक मंच पर आने में संकोच नहीं करते। यह आश्चर्यजनक है इन सबके ख्वाब और मंजिलें अलग-अलग हैं पर मंच एक हैं और मिशन एक है- भारत को कमजोर करना। यह अकारण नहीं है मीडिया की खबरें हमें बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ में माओवादियों की एक महत्वपूर्ण बैठक हुयी तो उसमें लश्करे तैयबा के दो प्रतिनिधि भी वहां पहुंचे।
उनकी लड़ाई तो देश के गणतंत्र के खिलाफ है-
आप इस सचों पर पर्दा डाल सकते हैं। देश के भावी प्रधानमंत्री की तरह सोच सकते हैं कि असली खतरा लश्करे तैयबा से नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है। चीजों को अतिसरलीकृत करके देखने का अभियान जो हमारी राजनीति ने शुरू किया है ,उसका अंत नहीं है। माओवादियों के प्रति सहानूभूति रखने वाली लेखिका अगर उन्हें हथियारबंद गांधीवादी कह रही हैं तो हम आप इसे सुनने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र ही है, जो आपको लोकतंत्र के खिलाफ भी आवाज उठाने की आजादी देता है। यह लोकतंत्र का सौन्दर्य भी है। हमारी व्यवस्था जैसी भी है किंतु उसे लांछित कर आप जो व्यवस्थाएं लाना चाहते हैं क्या वे न्यायपूर्ण हैं? इस पर भी विचार करना चाहिए। जिस तरह से विचारों की तानाशाही चलाने का एक विचार माओवाद या माक्सर्वाद है क्या वह किसी घटिया से लोकतंत्र का भी विकल्प हो सकता है? पूरी इस्लामिक पट्टी में भारत के समानांतर कोई लोकतंत्र खोजकर बताइए ? क्या कारण है अलग- अलग विचारों के लोग भारत के गणतंत्र या भारतीय राज्य के खिलाफ एक हो जाते हैं। उनकी लड़ाई दरअसल इस देश की एकता और अखंडता से है।
मोहरे और नारों के लिए गरीबों की बात करना एक अलग बात है किंतु जब काश्मीर के आतंकवादियों- पत्थर बाजों, मणिपुर के मुइया और माओवादी आतंकवादियों के सर्मथक एक साथ खड़े नजर आते हैं तो बातें बहुत साफ हो जाती हैं। इसे तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता कि घोटालेबाज धूम रहे हैं और विनायक सेन को सजा हो जाती है। धोटालेबाजों को भी सजा होनी चाहिए, वे भी जेल में होने चाहिए। किसी से तुलना करके किसी का अपराध कम नहीं हो जाता। अरूंधती की गलतबयानी और देशद्रोही विचारों के खिलाफ तो केंद्र सरकार मामला दर्ज करने के पीछे हट गयी तो क्या उससे अरूंधती का पाप कम हो गया। संसद पर हमले के आरोपी को सजा देने में भारतीय राज्य के हाथ कांप रहे हैं तो क्या उससे उसका पाप कम हो गया। यह हमारे तंत्र की कमजोरियां हैं कि यहां निरपराध लोग मारे जाते हैं, और अपराधी संसद तक पहुंच जाते हैं। किंतु इन कमजोरियों से सच और झूठ का अंतर खत्म नहीं हो जाता। जनसंगठन बना कर नक्सलियों के प्रति सहानुभूति के शब्दजाल रचना, कूटरचना करना, भारतीय राज्य के खिलाफ वातावरण बनाना, विदेशी पैसों के बल पर देश को तोड़ने का षडयंत्र करना ऐसे बहुत से काम हैं जो हो रहे हैं। हमें पता है वे कौन से लोग हैं किंतु हमारे जनतंत्र की खूबियां हैं कि वह तमाम सवालों पर अन्यान्न कारणों से खामोशी ओढ़ लेता है। वोटबैंक की राजनीति ने हमारे जनतंत्र को सही मायने में कायर और निकम्मा बना दिया है। फैसले लेने में हमारे हाथ कांपते हैं। देशद्रोही यहां शान से देशतोड़क बयान देते हुए घूम सकते हैं। माओ के राज के स्वप्नदृष्टा जरा माओ के राज में ऐसा करके दिखाएं। माओ, स्टालिन को भूल जाइए ध्येन आन-मन चौक को याद कीजिए।
विचारों की तानाशाही भी खतरनाकः
सांप्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर भयभीत हम लोगों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस धरती पर ऐसे हिंसक विचार भी हैं- जिन्होंने अपनी विचारधारा के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। ये हिंसक विचारों के पोषक ही भारतीय जनतंत्र की सदाशयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। आप याद करें फैसले पक्ष में हों तो न्यायपालिका की जय हो , फैसले खिलाफ जाएं तो न्यायपालिका की ऐसी की तैसी। इसे आप राममंदिर पर आए न्यायालय के फैसले से देख सकते हैं। पहले वामविचारी बुद्धिवादी कहते रहे न्यायालय का सम्मान कीजिए और अब न्यायालय के फैसले पर भी ये ही उंगली उठा रहे हैं। इनकी नजर में तो राम की कपोल कल्पना हैं। मिथक हैं। जनविश्वास और जनता इनके ठेंगें पर। किंतु आप तय मानिए कि राम अगर कल्पना हैं मिथक हैं तो भी इतिहास से सच्चे हैं , क्योंकि उनकी कथा गरीब जनता का कंठहार है। उनकी स्तुति और उनकी गाथा गाता हुआ भारतीय समाज अपने सारे दर्द भूल जाता है जो इस अन्यायी व्यवस्था ने उसे दिए हैं।
डा. विनायक सेन, माओवादी आतंकी नहीं हैं। वे बंदूक नहीं चलाते। अरूंधती राय भी नक्सलवादी नहीं हैं। अलीशाह गिलानी भी खुद पत्थर नहीं फेंकते। वे तो यहां तक नाजुक हैं कि नहीं चाहते कि उनका बेटा कश्मीर आकर उनकी विरासत संभाले और मुसीबतें झेले। क्योंकि उसके लिए तो गरीब मुसलमानों के तमाम बेटे हैं जो गिलानी की शह पर भारतीय राज्य पर पत्थर बरसाते रहेंगें, उसके लिए अपने बेटे की जान जोखिम में क्यों डाली जाए। इसी तरह बरवर राव भी खून नहीं बहाते, शब्दों की खेती करते हैं। लेकिन क्या ये सब मिलकर एक ऐसा आधार नहीं बनाते जिससे जनतंत्र कमजोर होता है, देश के प्रति गुस्सा भरता है। माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रखे हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं। ये सारी बातें अंततः हमारे हमारे जनतंत्र के खिलाफ जाती हैं क्या इसमें कोई दो राय है।
देशतोड़कों की एकताः
देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता ।
लोकतंत्र में ही असहमति का सौंदर्य कायम-
बावजूद इसके कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या माओवाद की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है। अगर है तो हमारे ये समाजसेवी, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, जनसंगठनों के लोग उनके प्रति सहानुभूति क्यों रख रहे हैं। क्या भारतीय राज्य को गिलानियों, माओवादियों, मणिपुर के मुईया, खालिस्तान समर्थकों के आगे हथियार डाल देने चाहिए और कहना चाहिए आइए आप ही राज कीजिए। इस देश को टुकड़ों में बांटने की साजिशों में लगे लोग ही ऐसा सोच सकते हैं। हम और आप नहीं। जनतंत्र कितना भी घटिया होगा किसी भी धर्म या अधिनायकवादी विचारधारा के राज से तो बेहतर है। महात्मा गांधी जिन्होंने कभी हिंसा का समर्थन नहीं किया, अरूँधती का बेशर्म साहस ही है जो नक्सलियों को ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ कह सकती हैं। ये सारा भी अरूंधती, गिलानी और उनकी मंडली इसलिए कर पा रही है, क्योंकि देश में लोकतंत्र है। अगर मैं लोकतंत्र में असहमति के इस सौंदर्य पर मुग्ध हूं- तो गलत क्या है। बस, इसी एक खूबी के चलते मैं किसी गिलानी के इस्लामिक राज्य, किसी छत्रधर महतो के माओराज का नागरिक बनने की किसी भी संभावना के खिलाफ खड़ा हूं। खड़ा रहूंगा।

विनायक सेन, अरूंधती राय और माओवाद का सच!

दिल से पूछिए कि क्या माओवादियों की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है
-संजय द्विवेदी
डा.विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा ज्यादा है या कम इसपर बहस हो सकती है। किंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि माओवादियों के प्रति हमारे पढ़े-लिखे और बौद्धिक तबके में एक समर्थन मौजूग है। बावजूद इसके कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। स्वामी अग्निवेश कहते हैं इस फैसले ने न्यायपालिका को एक मजाक बना दिया है। आप याद करें जब सुप्रीम कोर्ट ने डा. विनायक सेन को जमानत पर छोड़ा था तो इसे एक विजय के रूप में निरूपित किया गया था। अगर वह राज्य की हार थी तो यह भी डा. सेन की जीत नहीं है। हमें अपनी अदालतों और अपने तंत्र पर भरोसा तो करना ही होगा। आखिर क्या अदालतें हवा में फैसले करती हैं ? क्या इतने ताकतवर लोगों के खिलाफ सबूत गढ़े जा सकते हैं ? ये सारे सुविधा के सिद्धांत हैं कि फैसला आपके हक में हो तो गुडी-गुडी और न हो तो अदालतें भरोसे के काबिल नहीं हैं। भारतीय संविधान, जनतंत्र और अदालतों को न मानने वाले विचार भी यहां राहत की उम्मीद करते हैं, दरअसल यही लोकतंत्र का सौंदर्य है। यह लोकतंत्र का ही सौन्दर्य है कि रात-दिन देश तोड़ने के प्रयासों में लगी ताकतें भी हिंदुस्तान के तमाम हिस्सों में अपनी बात कहते हुए धूम रही हैं और देश का मीडिया का भी उनके विचारों को प्रकाशित कर रहा है। चिंता की बात यह है कि किस तरह एक संवेदनशील डाक्टर एक हिंसक अभियान का किसी भी रूप में हिस्सा बन जाता है। यह बात किसी को भी सोचने के लिए विवश कर सकती है।
जनतंत्र के खिलाफ है यह जंगः
माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रख हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं।
देशतोड़कों की एकताः
देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। पिछले दिनों अरूधंती ने अपने एक लेख में लिखा हैः “मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।”
ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों।
नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः
ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं। अरूंधती इसी लेख में लिखती हैं -“क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए।या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप ‘हमारे’ साथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। ” आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।
सदके इन मासूम तर्कों केः
अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।” क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।
अरूंधती कह रही हैं कि “ मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को ‘माओवादी’ करार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।”
कारपोरेट लूट पर पलता माओवादः
अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है।
परमपवित्र नहीं हैं सरकारें:
सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं तो हमारे बुद्धिजीवी उनके साथ क्यों खड़े हैं। हमें पता है कि साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर भी ये लोग वहां क्या कर रहें हैं? जाहिर तौर ये बुद्धिजीवी नहीं, सामाजिक कार्यकर्ता नहीं, ये काडर हैं जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, फिर भी किए जा रहे हैं क्योंकि उनके निशाने पर भारतीय जनतंत्र है।