Tuesday, June 29, 2010

बाजार के हवाले ‘हम भारत के लोग’


बढ़ती कीमतों ने जाहिर किया आम आदमी की चिंता किसी को नहीं

-संजय द्विवेदी

एक लोककल्याणकारी राज्य जब खुद को बाजार के हवाले कर दे तो कहने के लिए क्या बचता है। इसके मायने यही हैं कि राज्य ने बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है और जनता को महंगाई की ऐसी आग में झोंक दिया है जहां उसके पास झुलसने के अलावा कोई चारा नहीं है। पेट्रोलियम की कीमतें अगर हमारा प्रशासन नहीं, बाजार ही तय करेगा तो एक लोककल्याणकारी राज्य के मायने क्या रह जाते हैं। जनता के पास हर पांच साल पर जो लोग उसे राहत दिलाने की कसमें खाते हुए वोट मांगने के लिए आते हैं क्या वे दिल्ली जाकर अपने सपने और संकल्प भूल जाते हैं। केंद्र में सत्ताधारी दल ने चुनाव में वादा किया था – ‘कांग्रेस का हाथ,गरीब के साथ।’ जबकि उसकी सरकार का आचरण यह कहता है- ‘कांग्रेस का हाथ, बाजार के साथ।’ पिछले एक साल में तीन बार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा चुकी सरकार आखिर आम जनता के साथ कैसा खेल, खेल रही है। महंगाई की मार से जूझ रही जनता पर ये कीमतें कैसे प्रकारांतर से मार करती हैं किसी से छिपा नहीं है। महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के शासन में यह हो रहा है तो जनता किससे उम्मीद करे। वो कौन सा अर्थशास्त्र है जो अपने नागरिकों की तबाही के ही उपाय सोचता है। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, कृषिमंत्री सब महंगाई कम होने का वादा करते रहते हैं, किंतु घर की रसोई पर भी उनकी बुरी नजर है।
जिस देश में खाने-पीने की चीजों में आग लगी हो, वहां ऐसे कदम निराश करते हैं। भुखमरी, गरीबी का सामना कर रहे लोगों को राहत देना तो दूर सरकार उनकी दुश्वारियां बढ़ाने का ही काम कर रही है। भारत जैसे देश में अगर कीमतें बाजार तय करेगा तो हम खासी मुश्किलों में पड़ेगें। हमें अपनी व्यवस्था के छिद्रों को ढूंढकर उनका समाधान करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कार्यक्रम बनाने के बजाए आम जनता को इसका शिकार बनाना ज्यादा आसान लगता है। नेताओं और नीति-निर्माता अधिकारियों की पैसे के प्रति प्रकट पिपासा ने देश का यह हाल किया है। हमें जनता की नहीं, उपभोक्ताओं की तलाश है। सो सारा का सारा तंत्र उपभोग को बढ़ाने वाली नीतियों के क्रियान्वन में लगा है। अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट जब यह कहती है कि देश के सत्तर प्रतिशत लोग 20 रूपए से कम की रोजी पर अपना दैनिक जीवन चलाते हैं, तो सरकार इन लोगों की राहत के लिए नहीं सोचती। किंतु जब किरीट पारिख पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार के हवाले करने की बात कहते हैं तो उसे यह सरकार आसानी से मान लेती है। आर्थिक सुधारों के लिए कड़े कदम उठाने के मायने यह नहीं है जनता के जीवन जीने के अधिकार को ही मुश्किल में डाल दिया जाए। सरकार सही मायने में अपने कार्य-व्यवहार से एक जनविरोधी चरित्र का ही परिचय दे रही है। ऐसे में राहुल गांधी की उन कोशिशों को क्या बेमानी नहीं माना जाना चाहिए जिसके तहत वे गांव के आखिरी आदमी को राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं। उनकी पार्टी की सरकार का आचरण इससे ठीक उलट है। पूरा देश यह सवाल पूछ रहा है कि क्या इस सरकार की आर्थिक नीतियां उस कलावती या दलितों के पक्ष में हैं जिनके घर जाकर, रूककर राहुल गांधी, भारत को खोज रहे हैं। दरअसल यह द्वंद ही आज की राजनीति का मूल स्वभाव हो गया है।
आम आदमी का नाम लेते हुए खास आदमी के लिए यह सारा तंत्र समर्पित है। भ्रष्टाचारियों के सामने नतमस्तक यह पूरा का पूरा तंत्र आम आदमी की जिंदगी में कड़वाहटें घोल रहा है। तेल की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में जो कीमत है उससे अधिक उसपर ड्यूटी लगती है। इसलिए अगर सरकार को तेल पर सब्सिडी देनी पड़े तो देने में हर्ज क्या है। सरकार अगर हर जगह से अपने हाथ खींच लेगी और सारा कुछ बाजार की ताकतों को सौंप देगी तो ऐसी सरकार का हम क्या करेंगें। सरकार भले अपने इस कदम को तर्कों से सही साबित करे किंतु एक जनकल्याणकारी राज्य, हमेशा अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होता है, बाजार की शक्तियों का नहीं। किंतु ऐसा लगता है कि आज की सरकारें कारपोरेट, अमरीका और बाजार की ताकतों की चाकरी में ही अपनी मुक्ति समझती हैं। भ्रष्टाचार और जमाखोरी के खिलाफ कोई कारगर नीति बनाने के बजाए सरकारी तंत्र जनता से ही दूसरों की गलतियों की कीमत वसूलता है। आज सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि जरूरी चीजों की कीमतें आसमान क्यों छू रही हैं। ऐसे वक्त में सरकार कभी अंतर्राष्ट्रीय हालात का बहाना बनाती है, तो कभी पैदावार की कमी का रोना रोती है। सरकार के एक मंत्री जमाखोरी को इसका कारण बताते हैं। तो कोई कहता है राज्यों से अपेक्षित सहयोग न मिलने से हालात बिगड़े हैं। सही मायने में यह उलटबासियां बताती हैं कि किसी भी राजनीतिक दल के केंद्र में जनता का एजेंडा नहीं है। लोकतंत्र के नाम पर कारपोरेट के पुरजों और दलालों की सत्ता के गलियारों में आमद-रफ्त बढ़ी है, जो नीतियों के क्रियान्वयन में बेहद हस्तक्षेपकारी भूमिका में हैं। देश ने नई आर्थिक नीतियों के बाद जैसे भी शुभ परिणाम पाएं हों उसका आकलन होना शेष है किंतु आम जनता इसके बाद हाशिए पर चली गयी है। राजनीति के केंद्र से आम आदमी और उसकी पीड़ा का गायब होना हमारे समय की सबसे बड़ी चिंता है। देश में आंदोलनों का सिकुड़ना और तेजी से उच्चमध्यवर्ग के उदय ने चिंताएं बहुत बढ़ा दी हैं। देश में तेजी के साथ एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गरीबों और रोजमर्रा के संधर्ष में लगे लोगों को बहुत हिकारत के साथ देखता है और उन्हें एक बोझ की तरह रेखांकित है। हमारे इस कठिन समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि देश के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि कोई भी कदम उठाने के पहले यह सोचना कि इसका असर आखिरी पायदान पर खड़े आदमी पर क्या पड़ेगा। किंतु गांधी की उसी पार्टी के आज के नायक मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और मुरली देवड़ा हैं जिनका यह मंत्र है कि कीमतें बाजार तय करेगा भले ही आम आदमी को उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। बाजारवाद के इस हो-हल्ले में अगर महात्मा गांधी की बात अनसुनी की जा रही है तो हम भारत के लोग, अपने नायकों को कोसने के सिवा क्या कर सकते हैं।

Friday, June 18, 2010

इट हैपेन्स ओनली इन इंडिया !


भोपाल गैस त्रासदी के सच से शर्मिंदा है देश
यह सिर्फ हम ही कर सकते थे। कोई और नहीं। भारत के अलावा कहीं की राजनीति इतनी बेशर्म कैसे हो सकती है। यह सुनना और सोचना कितना दुखद है कि एक शहर जहां 15 हजार लोगों की एक साथ मौत हो जाए और उस आरोप में एक भी आदमी पचीस साल के बाद भी जेल में न हो। इस नरसंहार को अंजाम देने वाले आदमी के लिए देश का प्रधानमंत्री फोन करे और राज्य का मुख्यमंत्री उसे राजकीय विमान उपलब्ध कराए। एसपी उसे गाड़ी चलाते हुए कलेक्टर के साथ हेलीकाप्टर तक छोड़ने जाए। न्याय की सबसे बड़ी आसंदी पर बैठा जज आरोपों को इतना कम कर दे कि आरोपियों को सिर्फ दो-दो साल की सजा सुनाई जाए। इतना ही नहीं दिल्ली में 15 हजार मौतों का जिम्मेदार यह आदमी राष्ट्रपति से मुलाकात भी करता है।
इन धिनौनी सच्चाइयों पर अब देश की सबसे जिम्मेदार पार्टी के प्रवक्ता का बयान सुनिए। वे कह रहे हैं कि अगर एंडरसन को देश से निकाला नहीं जाता तो भीड़ उन्हें मार डालती। वे कहते हैं देखिए कसाब को जेल में रखने और सुरक्षा देने में नाहक कितना खर्च आ रहा है। वाह हमारे नेता जी और आपकी राजनीति। बेहतर है जेल के फाटक खोल दिए जाएं, इतने अपराधियों और आरोपियों पर हो रहा खर्च बच जाएगा। इस बेशर्मी का कारण सिर्फ यह है कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी का नाम इस विवाद से जुड़ा है। अब कांग्रेस कैसे मान सकती है कि गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों से भी कभी कोई पाप हो सकता है। देवकांत बरूआ के ‘इंदिरा इज इंडिया ’ के नारे सुनकर बड़े हुए आज के कांग्रेसजन कैसे चापलूसी की इस प्रतियोगिता में पीछे रह सकते हैं। कांग्रेस के एक दिग्गज नेता का कहना है सजा दिलाने के लिए कानूनों में परिवर्तन करना चाहिए। 25 साल तक आपके ये सुविचार कहां थे मान्यवर। यह तो वही हाल है कि जब गाज गिरी तो जाग पड़े। एंडरसन को पहले भगाइए और अब प्रत्यर्पण की फाइल चलाइए।
यह देश ऐसा क्यों है ? बड़ी से मानवीय त्रासदी हमें क्यों नहीं हिलाती ? हमारा स्मृतिदोष इतना विलक्षण क्यों है ? हम क्यों भूलते और क्यों माफ कर देते हैं ? राजनीति अगर ऐसी है तो इसके लिए क्या हम भारत के लोग जिम्मेदार नहीं है ? क्या कारण है कि हमारे शिखर पुरूषों की चिंता का विषय आम भारतीय नहीं गोरी चमड़ी का वह आदमी है जिसे देश से निकालने के लिए वे सारे इंतजाम करते हैं। हमारे लोगों को सही मुआवजा मिले, उनके जख्मों पर मरहम लगे इसके बजाए हम उस कंपनी के गुर्गों के साथ खड़े दिखते हैं जिसने कभी हमें कुछ आर्थिक मदद पहुंचाई। पैसे की यह प्रकट पिपासा हमारी राजनीति, समाज जीवन, प्रशासनिक तंत्र सब जगह दिखती है। आम हिंदुस्तानी की जान इतनी सस्ती है कि पूरी दुनिया इस फैसले के बाद हम पर हंस रही है। राजनीति के मैदान के शातिर खिलाड़ी जो पिछले पचीस सालों में कुछ नहीं कर पाए एक बार फिर न्याय दिलाने के लिए मैदान में उतर पड़े हैं। भोपाल में निचली अदालत के फैसले ने कुछ किया हो या न किया हो, हमारे तंत्र का साफ चेहरा उजागर कर दिया है। यह फैसला बताता है कि कैसे पूरा का तंत्र जिसमें सारी पालिकाएं शामिल होकर गुनहगारों को बचाने के लिए एक हो जाती हैं। आज हालात यह हैं कि इन पचीस सालों के संर्धष का आकलन करें तो साफ नजर आएगा कि जनसंगठनों और मीडिया के अभियानों के दबाव की बदौलत जो मुआवजा मिल सका, मिला। बाकी सरकारों की तरफ से न्यायपूर्ण प्रयास नहीं देखे गए। आज भी भोपाल को लेकर मचा शोर इसलिए प्रखरता से दिख रहा है क्योंकि मीडिया ने इसमें रूचि ली और राजनैतिक दलों को बगलें झांकने पर मजबूर कर दिया।
भोपाल गैस त्रासदी के सबक के बाद हमारी सरकारों को चेत जाना था किंतु दिल्ली की सरकार जिस परमाणु अप्रसार के जुड़े विधेयक को पास कराने पर आमादा है उसमें इसी तरह कंपनियों को बचाने के षडयंत्र हैं। लगता है कि हमारी सरकारें भारत के लोगों के द्वारा भले बनाई जाती हों किंतु वे चलाई कहीं और से जाती हैं। लोकतंत्र के लिए यह कितना बड़ा मजाक है कि हम अपने लोगों की लाशों पर विदेशियों को मौत के कारखाने खोलने के लिए लाल कालीन बिछा रहे हैं।विदेशी निवेश के लिए हमारी सरकारें, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सब पगलाएं हैं। चाहे उसकी शर्ते कुछ भी क्यों न हों। क्या यह न्यायोचित है। जब देश और देशवासी ही सुरक्षित नहीं तो ऐसा औद्योगिक विकास लेकर हम क्या करेंगें। अपनी लोगों की लाशें कंधे पर ढोते हुए हमें ऐसा विकास कबूल नहीं है। इस घटना का सबक यही है कि हम सभी कंपनियों का नियमन करें,पर्यावरण से लेकर हर खतरनाक मुद्दे पर कड़े कानून बनाएं ताकि कंपनियां हमारे लोगों की सेहत और उनके जान माल से न खेल सकें। निवेश सिर्फ हमारी नहीं विदेशी कंपनियों की भी गरज है। किंतु वे यहां मौत के कारखाने खोलें और हमारे लोग मौत के शिकार बनते रहें यह कहां का न्याय है। भोपाल कांड के बहाने जब सत्ता और अफसरशाही के षडयंत्र और बिकाउपन के किस्से उजागर हो चुके हैं तो हमें सोचना होगा कि इस तरह के कामों की पुनरावृत्ति कैसे रोकी जा सकती है। यहां तक की गैस त्रासदी के मूल दस्तावेजों से भी छेड़छाड़ की गयी। ऐसा मुजरिमों को बचाने और कम सजा दिलाने के लिए किया गया। अब इस घतकरम के बाद किस मुंह से लोग अपने नेताओं को पाक-साफ ठहराने की कोशिशें कर रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। अब ये प्रमाण सामने आ चुके हैं कि 3 दिसंबर,1984 को दर्ज हादसे की एफआईआर और पांच दिसंबर को कोर्ट के रिमांड आर्डर में भारी हेरफेर की गयी। इतना सब होने के बाद भी हमारी बेशर्म राजनीति हमें न्याय दिलाने का आश्वासन दे रही है। जल्लादों के हाथ में ही न्याय की पोथी थमा दी गयी है। जाहिर है वे जो भी करेंगें वह जंगल का ही न्याय होगा। इस हंगामे में जरूर सरकारें और राजनीति हिली हुयी है किंतु सारा कुछ जल्दी ही ठहर जाएगा। हम भारत के लोगों को ऐसे हंगामे करने और भूल जाने की आदत जो है। भोपाल इस सदी की एक ऐसी सच्चाई और कलंक के रूप में हमारे सामने है जिसका जवाब न हमारी राजनीति के पास है, न न्यायपालिका के पास, न ही हमारे प्रशासन के पास। क्योंकि इस प्रसंग में संवैधानिक पद पर बैठा हर आदमी अपनी जिम्मेदारियों से भागता हुआ दिखा है। दिल्ली से लेकर भोपाल तक, रायसीना की पहाड़ियों से लेकर श्यामला हिल्स तक ये पाप-कथाएं पसरी पड़ी हैं। निचली अदालत के फैसले ने हमें झकझोर कर जगाया है किंतु कब तक। क्या न्याय मिलने तक। या हमेशा की तरह किसी नए विवादित मुद्दे के खुलने तक....।

मिक्स मसाला खबरों का दौर


मनोरंजन प्रधान खबरों ने बदल दिया है समाचार चैनलों का चरित्र
भरोसा नहीं होता कि खबरें इतनी बदल जाएंगीं। समाचार चैनलों पर खबरों को देखना अब मिक्स मसाले जैसे मामला है। खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर का ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी। आज यह कहना मुश्किल है कि आप समाचार चैनल देख रहे हैं या कोई मनोरंजन चैनल। कथ्य और प्रस्तुति के मोर्चे पर दोनों में बहुत अंतर नहीं दिखता।
मनोरंजन चैनल्स पर चल रहे कार्यक्रमों के आधार पर समाचार चैनल अपने कई घंटे समर्पित कर रहे हैं। उन पर चल रहे रियालिटी शो, नृत्य संगीत और हास्य-व्यंग्य के तमाम कार्यक्रमों की पुनःप्रस्तुति को देखना बहुत रोचक है।समाचारों की प्रस्तुति ज्यादा नाटकीय और मनोरंजक बनाने पर जोर है। ऐसे में उस सूचना का क्या हो जिसके इंतजार में दर्शक न्यूज चैनल पर आता है।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे। खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब नज़रिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। ख़बर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे ! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी है...ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए। वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं ! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं। दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपना असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर ख़बर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ मे है कोई जादुई निदेशक । ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसर्गिक विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए । समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रूपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ? बाडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने ‘मेघा रे मेघा’ नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन ख़बर देखी गई और महसूस भी की गई। कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या सैफ अली खान की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा । सलमाल और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नज़रिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई ख़बर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही। एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। खबरें भी हमारा मनोरंजन करें, यह एक नया सच हमारे सामने है। खबरें मनोरंजन का माध्यम बनीं, तभी तो बबली और बंटी एनडीटीवी पर खबर पढ़ते नजर आए। टीआरपी के भूत ने दरअसल हमारे आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। इसलिए हमारे चैनलों के नायक हैं- राखी सावंत, बाबा रामदेव और राजू श्रीवास्तव। समाचार चैनल ऐसे ही नायक तलाश रहे हैं और गढ़ रहे हैं। कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं । ‘भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आंख का आकर्षण बनें यही टीवी न्यूज चैनलों का मूल विमर्श है । जीवन शैली अब ‘लाइफ स्टाइल’ में बदल गयी है । बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं । नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊँची ऊँची इमारतें, डियाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह । इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसता, उगलते न्यूज चैनल एक ऐसी दुनिया रच रहे है जहाँ बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग।अब तो यह कहा जाने लगा है खबर देखनी है तो डीडी न्यूज पर जाओ, कुछ डिबेट देखनी है तो लोकसभा चैनल लगा लो। हिंदी के समाचार चैनलों ने यह मान लिया है हिंदी में मनोरंजन बिकता है। अंधविश्वास बिकता है। बकवास बिकती है। राखी, राजू, सुनील पाल बिकते हैं। हालांकि इसके लिए किसी समाचार समूह ने कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया है। किंतु यह आत्मविश्वासहीनता न्यूज चैनलों और मनोरंजन चैनलों के अंतर को कम करने का काम जरूर कर रही है। विचार के क्षेत्र में नए प्रयोगों के बजाए चैनल चमत्कारों,हाहाकारों, ठहाकों, विलापों की तलाश में हैं। जिनसे वे आम दर्शक की भावनाओं से खेल सकें। यह क्रम जारी है, जारी भी रहेगा। जब तक आप रिमोट का सही इस्तेमाल नहीं सीख जाते, तब तक चौंकिए मत क्योंकि आप न्यूज चैनल ही देख रहे हैं।

नहीं संभले तो यह कालिख हमें ले डूबेगी

पेड न्यूज के सवाल पर चुनाव आयोग के रूख का स्वागत कीजिए
सच मानिए यह कालिख हमें ले डूबेगी। पेड न्यूज की खबरों ने जितना और जैसा नुकसान मीडिया को पहुंचाया है, उतना नुकसान तो आपातकाल में घुटने टेकने पर भी नहीं हुआ था। चुनावी कवरेज के नाम पर यह एक ऐसी लूट थी जिसमें हम सब शामिल थे। इस लूट ने हमारे सिर शर्म से झुका दिए थे। नौकरी की मजबूरियों में खामोश पत्रकार भी अंदर ही अंदर बिलबिला रहे थे। पर हमारे मालिकों की बेशर्मी ऐसी कि एक ने कहा कि “सबको दर्द इसलिए हो रहा है कि पैसा हिंदी वालों को मिला। ” इस गंदे पैसे से हिंदी की सेवा करने के लिए आतुर इन महान मालिकों से किसने कहा कि वे राष्ट्रभाषा में अखबार निकालें। कोई और काम या व्यापार करते हुए, जाकर उन्हीं नेताओं से पैसे मांगकर देखें, जो मजबूरी में मालिक संपादकों को सिर पर बिठाते हैं। एक बार अखबार का विजिटिंग कार्ड न होगा तो सारे काले-पीले काम बंद हो जाएंगे, यह तो उन्हें जानना ही चाहिए। अपनी विश्वसनीयता और प्रामणिकता को दांव को लगाकर सालों से अर्जित भाषाई पत्रकारिता के पुण्य पर पेड न्यूज का ग्रहण जितनी जल्दी हटे बेहतर होगा। शायद इसीलिए चुनाव आयोग ने पेड न्यूज पर मचे बवाल पर चिंता जताते हुए यह तय किया है कि अब आयोग ऐसे विज्ञापनों की निगरानी करेगा।
पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पेड न्यूज का मुद्दा खासा विवादों में आया था जब तमाम समाचार पत्र समूहों और टीवी चैनलों ने मोटी रकम उम्मीदवारों से लेकर उनके पक्ष में समाचार छापे और दिखाए थे। हालात यह थे कि पैसे के आधार पर छपी खबरों में यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सा समाचार है और कौन सा विज्ञापन। यह बहुत राहत देने की बात है कि इसके खिलाफ मीडिया से जुड़े लोगों ने ही आवाज उठायी और इसे एक बड़े संकट के रूप में निरूपित किया। हमारे समय के बड़े पत्रकार स्वा. प्रभाष जोशी इस विषय पर पूरे देश में अलख जागते हुए ही विदा हुए। जाहिर तौर पर यह एक ऐसी प्रवृत्ति थी जिसका विरोध होना ही चाहिए। क्योंकि आखिर जब छपे हुए शब्दों की विश्वसनीयता ही नहीं रहेगी तो उसका मतलब क्या है। ऐसे में तमाम राजनेता, पत्रकार, समाजसेवी, बुद्धिजीवी इस चलन के खिलाफ खड़े हुए। सत्ता और मीडिया के बीच बहुत सरस संबंधों से वैसे भी सच कहीं दुबक कर रह जाता है। भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व चुनाव पर भी अगर हमारे अखबार झूठ की बारिश करेंगें तो पत्रकारिता की शुचिता, पवित्रता और प्रामणिकता कहां बचेगी। ऐसे कठिन समय में चुनाव आयोग का इस तरफ ध्यान देना बहुत स्वाभाविक था। आयोग ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यचुनाव अधिकारियों को दिए अपने निर्देश में जिला निर्वाचन अधिकारियों से इस मामले में मीडिया पर कड़ी नजर रखने को कहा है।आयोग ने कहा कि जिले में प्रसारित और प्रकाशित होने वाले सभी समाचार पत्रों की कड़ी जांच पड़ताल के लिए चुनाव की धोषणा होते ही जिला स्तरीय समितियों का गठन जिला निर्वाचन अधिकारी कर सकते हैं। ताकि न्यूज कवरेज की आड़ में प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों का पता लगाया जा सके। चुनाव आयोग ने यह भी व्यवस्था दी है कि जिला निर्वाचन अधिकारियों को करीब से प्रिंट मीडिया में जारी होने वाले विज्ञापनों पर नजर रखनी चाहिए जिनमें समाचार के रूप में छद्म विज्ञापन हों और जहां जरूरत हो उन मामलों में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को नोटिस दिए जाएं ताकि इस मद में आने वाला खर्च संबंधित उम्मीदवार या पार्टी के चुनाव खर्च में डाला जा सके। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को हाल में ही उनके खिलाफ पेड न्यूज के एक मामले में नोटिस दिया गया था। चुनाव आयोग की यह सक्रियता बताती है उसका इन खतरों की तरफ ध्यान है और वह चुनावों को साफ-सुथरे ढंग से कराने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे में हमारे राजनेता, राजनीतिक दलों और मीडिया समूहों तीनों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। स्वच्छ चुनावों के लिए हमारे राजनेताओं की प्रतिबद्धता के बिना प्रयास सफल न होंगें। देश के मीडिया ने तमाम राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया है। उसके सचेतन प्रयासों से लोकतंत्र के प्रति जनविश्वास बढ़ा है।
ऐसे में पेड न्यूज की विकृति स्वयं मीडिया के प्रति जनविश्वास का क्षरण करेगी। ऐसे में मीडिया समूहों को स्वयं आगे आकर अपनी प्रामणिकता और विश्वसनीयता की रक्षा करनी चाहिए। ताकि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को इस तरह के नियमन की जरूरत ही न पड़े। उम्मीद है मीडिया के हमारे नियामक इन बदनामियों से नाम कमाने के बजाए पूंजी अर्जन के कुछ नए रास्ते निकालेंगे। हमारे लोकतंत्र को नेताओं ने लोकतंत्र को लूटतंत्र में बदल दिया है, किंतु इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि नेताओं की लूट में मीडिया का भी हिस्सा है। मीडिया ने यह समझा कि नेताजी काफी कमाया है सो उस लूट के माल में हमारा भी हिस्सा है। जाहिर तौर पर इस लूट में शामिल होने के बाद आप नैतिकता और समाज के पहरूए की भूमिका खो देते हैं। मीडिया को किसी कीमत पर यह छूट नहीं दी जानी कि वह किसी तरह की सरकारी या गैर सरकारी लूट का हिस्सा बने। अगर मीडिया के मालिक ऐसा करते हैं तो वे सालों-साल से अर्जित पुण्यफल का क्षरण ही कर रहे हैं और ऐसे आचरण से उनके अखबार पोस्टर में बदल जाएंगें। उन्हें जो जनविश्वास अर्जित है उसका क्या होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारा मीडिया नई लीक पर चल अपने आत्मविश्वास को न खोते हुए अपनी आत्मनिर्भरता के लिए नए रास्ते तलाशेगा ताकि चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को इस तरह के नियमन की जरूरत न पड़े। ताकि मीडिया को लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्था के रूप में देखा जाए न की लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने वाले माध्यम के रूप में उसे आरोपित किया जाए। बेहतर होगा कि मीडिया सत्ता और सत्ता और राजनीति के साथ आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता बनाए, क्योंकि यही बात उसके पक्ष में है और उसकी प्रामणिकता को बचाए व बनाए रखने में सहायक भी।

Wednesday, June 16, 2010

कानू सान्यालः विकल्प के अभाव की पीड़ा

- संजय द्विवेदी
कुछ ही साल तो बीते हैं कानू सान्याल रायपुर आए थे। उनकी पार्टी भाकपा (माले) का अधिवेशन था। भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार मनोहर चौरे ने मुझे कहा तुम रायपुर में हो, कानू सान्याल से बातचीत करके एक रिपोर्ट लिखो। खैर मैंने कानू से बात की वह खबर भी लिखी। किंतु उस वक्त भी ऐसा कहां लगा था कि यह आदमी जो नक्सलवादी आंदोलन के प्रेरकों में रहा है कभी इस तरह हारकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाएगा। जब मैं रायपुर से उनसे मिला तो भी वे बस्तर ही नहीं देश में नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसा और काम करने के तरीके पर खासे असंतुष्ट थे। हिंसा के द्वारा किसी बदलाव की बात को उन्होंने खारिज किया था। मार्क्सवाद-लेलिनवाद-माओवाद ये शब्द आज भी देश के तमाम लोगों के लिए आशा की वैकल्पिक किरण माने जाते हैं। इससे प्रभावित युवा एक समय में तमाम जमीनी आंदोलनों में जुटे। नक्सलबाड़ी का आंदोलन भी उनमें एक था। जिस नक्सलबाड़ी से इस रक्तक्रांति की शुरूआत हुई उसकी संस्थापक त्रिमर्ति के एक नायक कानू सान्याल की आत्महत्या की सूचना एक हिला देने वाली सूचना है, उनके लिए भी जो कानू से मिले नहीं, सिर्फ उनके काम से उन्हें जानते थे। कानू की जिंदगी एक विचार के लिए जीने वाले एक ऐसे सेनानी की कहानी है जो जिंदगी भर लड़ता रहा उन विचारों से भी जो कभी उनके लिए बदलाव की प्रेरणा हुआ करते थे। जिंदगी के आखिरी दिनों में कानू बहुत विचलित थे। यह आत्महत्या (जिसपर भरोसा करने को जी नहीं चाहता) यह कहती है कि उनकी पीड़ा बहुत घनीभूत हो गयी होगी, जिसके चलते उन्होंने ऐसा किया होगा।
नक्सलबाड़ी आंदोलन की सभी तीन नायकों का अंत दुखी करता है। जंगल संथाल,मुठभेड़ में मारे गए थे। चारू मजूमदार, पुलिस की हिरासत में घुलते हुए मौत के पास गए। कानू एक ऐसे नायक हैं जिन्होंने एक लंबी आयु पायी और अपने विचारों व आंदोलन को बहकते हुए देखा। शायद इसीलिए कानू को नक्सलवाद शब्द से चिढ़ थी। वे इस शब्द का प्रयोग कभी नहीं करते थे। उनकी आंखें कहीं कुछ खोज रही थीं। एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि मुझे अफसोस इस बात का है कि I could not produce a communist party although I am honest from the beginning.यह सच्चाई कितने लोग कह पाते हैं। वे नौकरी छोड़कर 1950 में पार्टी में निकले थे। पर उन्हें जिस विकल्प की तलाश थी वह आखिरी तक न मिला। आज जब नक्सल आंदोलन एक अंधे मोड़पर है जहां पर वह डकैती, हत्या, फिरौती और आतंक के एक मिलेजुले मार्ग पर खून-खराबे में रोमांटिक आंनद लेने वाले बुध्दिवादियों का लीलालोक बन चुका है, कानू की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। कानू साफ कहते थे कि “किसी व्यक्ति को खत्म करने से व्यवस्था नहीं बदलती। उनकी राय में भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें एक तरह का रुमानीपन है। उनका कहना है कि रुमानीपन के कारण ही नौजवान इसमें आ रहे हैं लेकिन कुछ दिन में वे जंगल से बाहर आ जाते हैं।”
देश का नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं। नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है।
कानू की बात आज के हो-हल्ले में अनसुनी भले कर दी गयी पर कानू दा कहीं न कहीं नक्सलियों के रास्ते से दुखी थे। वे भटके हुए आंदोलन का आखिरी प्रतीक थे किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही। भाकपा(माले) के माध्यम से वे एक विकल्प देने की कोशिश कर रहे थे। कानू साफ कहते थे चारू मजूमदार से शुरू से उनकी असहमतियां सिर्फ निरर्थक हिंसा को लेकर ही थीं। आप देखें तो आखिरी दिनों तक वे सक्रिय दिखते हैं, सिंगुर में भूमि आंदोलन शुरू हुआ तो वे आंदोलनकारियों से मिलने जा पहुंचते हैं। जिस तरह के हालत आज देखे जा रहे हैं कनु दा के पास देखने को क्या बचा था। छत्रधर महतो और वामदलों की जंग के बीच जैसे हालात थे। उसे देखते हुए भी कुछ न कर पाने की पीड़ा शायद उन्हें कचोटती होगी। अब आपरेशन ग्रीन हंट की शुरूआत हो चुकी है। नक्सलवाद का विकृत होता चेहरा लोकतंत्र के सामने एक चुनौती की तरह खड़ा है कानू सान्याल का जाना विकल्प के अभाव की पीड़ा की भी अभिव्यक्ति है। इसे वृहत्तर संबंध में देखें तो देश के भीतर जैसी बेचैनी और बेकली देखी जा रही है वह आतंकित करने वाली हैं। आज जबकि बाजार और अमरीकी उपनिवेशवादी तंत्र की तेज आंधी में हम लगभग आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं तब कानू की याद हमें लड़ने और डटे रहने का हौसला तो दे ही सकती है। इस मौके पर कानू का जाना एक बड़ा शून्य रच रहा है जिसे भरने के लिए कोई नायक नजर नहीं आता।

Saturday, June 12, 2010

आप वहां क्या कर रही हैं अरूंधती ?


-संजय द्विवेदी
मुझे पता था वे अपनी बात से मुकर जाएंगी। बीते 2 जून, 2010 को मुंबई में महान लेखिका अरूंधती राय ने जो कुछ कहा उससे वे मुकर गयी हैं। एक प्रमुख अखबार के 12 जून, 2010 के अंक में छपे अपने लेख में अरूधंती ने अपने कहे की नई व्याख्या दी है और ठीकरा मीडिया पर फोड़ दिया है। मीडिया के इस काम को उन्होंने खबरों का ग्रीनहंट नाम दिया है। जाहिर तौर पर अरूंधती को जो करना था वे कर चुकी हैं। वे एक हिंसक अभियान से जुड़े लोगों को संदेश दे चुकी हैं। 2 जून के वक्तव्य की 12 जून को सफाई देना यानि चीजें अपना काम कर चुकी हैं। अरूधंती भी अपने लक्ष्य पा चुकी हैं। पहला लक्ष्य था वह प्रचार जो गुनहगारों के पक्ष में वातावरण बनाता है, दूसरा लक्ष्य खुद को चर्चा में लाना और तीसरा लक्ष्य एक भ्रम का निर्माण।
यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक महान लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। अब अरूधंती ने अपने ताजा लेख में लिखा हैः “मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।”

नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः
ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं।

अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाइएः
अब वे अपने बयान से उठ सकने वाले संकटों से आशंकित हैं। उन्हें अज्ञात भय ने सता रखा वे लिखती है-“क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए। या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप ‘हमारे’ साथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। ” आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।
अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।” क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।
कारपोरेट की लेवी पर पलता नक्सलवादः
अरूंधती कह रही हैं कि “ मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को ‘माओवादी’ करार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।” अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है। सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं आप उनके साथ क्यों और कैसे खड़ी हैं अरूंधती। एक संवेदनशील लेखिका होने के नाते इतना तो आपको पता होगा साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर आप वहां क्या रही हैं अरूंधती?

Friday, June 11, 2010

वह लड़की और नरभक्षी नक्सली


-संजय द्विवेदी

ये ठंड के दिन थे, हम पूर्वी उत्तर प्रदेश की सर्दी से मुकाबिल थे। ससुराल में छुट्टियां बिताना और सालियों का साथ किसे नहीं भाएगा। वहीं मैंने पहली बार एक खूबसूरत सी लड़की प्रीति को देखा था। वह मेरी छोटी साली साहिबा की सहेली है। उससे देर तक बातें करना मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर हमारी बातों का सिलसिला चलता रहा, उसने बताया कि उसकी शादी होने वाली है और उसकी शादी में मुझे रहना चाहिए। खैर मैं उसकी शादी में तो नहीं गया पर उसकी खबरें मिलती रहीं। अच्छा पति और परिवार पाकर वह खुश थी। उसके पति का दुर्गापुर में कारोबार था। उसकी एक बेटी भी हुयी। किंतु 28 मई,2010 की रात उसकी दुनिया उजड़ गयी।पश्चिम बंगाल के पास झारग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर बरपे लाल आतंक में प्रीति के पति की मौत हो गयी। इस खबर ने हमें हिला सा दिया है। हमारे परिवार में प्रीति की बहुत सी यादें है। उसकी बोली, खनक और महक सब हमारे साथ है। किंतु उसके इस तरह अकेले हो जाने की सूचना हम बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। नक्सली हिंसा का यह घिनौना रूप दुख को बढ़ाता है और उससे ज्यादा गुस्से से भर देता है। हम भारत के लोग हमारी सरकारों के कारनामों का फल भुगतने के लिए विवश हैं।
नक्सली हमले में हुयी यह पहली मौत नहीं है। ये एक सिलसिला है जो रूकने को नहीं है। बस खून...मांस के लोथड़े...कराहें.. आंसू....चीखें...और आर्तनाद। यही नक्सलवाद का असली चेहरा है। किंतु नक्सलवाद के नाम पर मारे जा रहे अनाम लोगों के प्रति उनके आंसू सूख गए हैं। क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। यह एक ऐसी कायराना लड़ाई है जिसमें नक्सलवादी नरभक्षियों में बदल गए हैं। ट्रेन में यात्रा कर रहे आम लोग अगर आपके निशाने पर हैं तो आप कैसी जंग लड़ रहे हैं। आम आदमी का खून बहाकर वे कौन सा राज लाना चाहते हैं यह किसी से छिपा नहीं है।
क्या कह रही हो अरूंधतीः
न जाने किस दिल से देश की महान लेखिका और समाज सेविका अरूंधती राय और महाश्वेता देवी को नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति के शब्द मिल जाते हैं। नक्सलवाद को लेकर प्रख्यात लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरूंधती राय का बयान दरअसल आंखें खोलने वाला है। अब तो इस सच से पर्दा हट जाना चाहिए कि नक्सलवाद किस तरह से एक देशतोड़क आंदोलन है और इसे किस तरह से समर्थन मिल रहा है। नक्सलियों द्वारा की जा रही हत्याओं का समर्थन कर अरूंधती राय ने अपने समविचारी मानवाधिकारवादियों, कथित लेखकों और आखिरी आदमी के लिए लड़ने का दम भरने वाले संगठनों की पोल खोल दी है। उन्होंने अपना पक्ष जाहिर कर देश का बहुत भला किया है। उनके इस साहस की सराहना होनी चाहिए कि खूनी टोली का साथ तमाम किंतु-परंतु के साथ नहीं दे रही हैं और नाहक नाजायज तर्कों का सहारा लेकर नक्सलवाद को जायज नहीं ठहरा रही हैं। उनका बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के महान लोकतंत्र व संविधान के प्रति आस्था रखनेवालों और उसमें आस्था न रखनेवालों के बीच साफ-साफ युद्ध छिड़ चुका है। ऐसे में अरूंधती के द्वारा अपना पक्ष तय कर लेना साहसिक ही है। वे दरअसल उन ढोंगी बुद्धिजीवियों से बेहतर है जो महात्मा गांधी का नाम लेते हुए भी नक्सल हिंसा को जायज ठहराते हैं। नक्सलियों की सीधी पैरवी के बजाए वे उन इलाकों के पिछड़ेपन और अविकास का बहाना लेकर हिंसा का समर्थन करते हैं। अरूंधती इस मायने में उन ढोंगियों से बेहतर हैं जो माओवाद, लेनिनवाद, समाजवाद, गांधीवाद की खाल ओढ़कर नक्सलियों को महिमामंडित कर रहे हैं।
तय करें आप किसके साथः
खुद को संवेदनशील और मानवता के लिए लड़ने वाले ये कथित बुद्धिजीवी कैसे किसी परिवार को उजड़ता हुआ देख पा रहे हैं। वे नक्सलियों के कथित जनयुद्ध में साथ रहें किंतु उन्हें मानवीय मूल्यों की शिक्षा तो दें। हत्यारों के गिरोह में परिणित हो चुका नक्सलवाद अब जो रूप अख्तियार कर चुका है उससे किसी सदाशयता की आस पालना बेमानी ही है। सरकारों के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। हिंसा के आधार पर 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जा करने का सपना देखने वाले लोगों को उनकी भाषा में ही जवाब दिया जाना जरूरी है। सो इस मामले पर किसी किंतु पंरतु के बगैर भारत की आम जनता को भयमुक्त वातावरण में जीने की स्थितियां प्रदान करनी होंगी। हर नक्सली हमले के बाद हमारे नेता नक्सलियों की हरकत को कायराना बताते हैं जबकि भारतीय राज्य की बहादुरी के प्रमाण अभी तक नहीं देखे गए। जिस तरह के हालात है उसमें हमारे और राज्य के सामने विकल्प कहां हैं। इन हालात में या तो आप नक्सलवाद के साथ खड़े हों या उसके खिलाफ। यह बात बहुत तेजी से उठाने की जरूरत है कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें नदारद हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
हमारा भ्रष्ट तंत्र कैसे जीतेगा जंगः
सवाल यह है कि क्या कोई भ्रष्ट तंत्र नक्सलवादियों की संगठित और वैचारिक शक्ति का मुकाबला कर सकता है। विदेशों से हथियार और पैसे अगर जंगल के भीतर तक पहुंच रहे हैं, नक्सली हमारे ही लोगों से करोड़ों की लेवी वसूलकर अपने अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं तो हम इतने विवश क्यों हैं। क्या कारण है कि हमारे अपने लोग ही नक्सलवाद और माओवाद की विदेशी विचारधारा और विदेशी पैसों के बल पर अपना अभियान चला रहे हैं और हम उन्हें खामोशी से देख रहे हैं। महानगरों में बैठे तमाम विचारक एवं जनसंगठन किस मुंह से नक्सली हिंसा को खारिज कर रहे हैं जबकि वे स्वयं इस आग को फैलाने के जिम्मेदार हैं। शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा। ऐसे शब्दजालों और भ्रमजालों में फंसी हमारी सरकारें कैसे कोई निर्णायक कदम उठा पाएंगीं। जो लोग नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर मौतों पर गम कम करना चाहते हैं वो सावन के अंधे हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारी सरकारें नक्सलवाद का समाधान चाहती हैं? अगर चाहती हैं तो उन्हें किसने रोक रखा है? कितनी प्रीतियों का घर उजाड़ने के बाद हमारी सरकारें जागेंगी यह सवाल आज पूरा देश पूछ रहा है। क्या इस सवाल का कोई जवाब भारतीय राज्य के पास है,,क्योंकि यह सवाल उन तमाम निर्दोष भारतीयों के परिवारों की ओर से भी है जो लाल आतंक की भेंट चढ़ गए हैं।