समाज के सरोकारों पर जो सोचता हूं उसे लिख देता हूं। यह मेरा नहीं आपका भी मंच है। जरूरत है कि बातें जारी रहें। पत्रकारिता के चौदह सालों के सफर में जो देखा, समझा और अनुभव किया उसे ही आप तक पहुंचाने की एक कोशिश है यह ब्लाग। - संजय द्विवेदी
Tuesday, November 29, 2011
ममता को सराहौं या सराहौं रमन सिंह को
नक्सलवाद के पीछे खतरनाक इरादों को कब समझेगा देश
-संजय द्विवेदी
नक्सलवाद के सवाल पर इस समय दो मुख्यमंत्री ज्यादा मुखर होकर अपनी बात कह रहे हैं एक हैं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और दूसरी प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। अंतर सिर्फ यह है कि रमन सिंह का स्टैंड नक्सलवाद को लेकर पहले दिन से साफ था, ममता बनर्जी अचानक नक्सलियों के प्रति अनुदार हो गयी हैं। सवाल यह है कि क्या हमारे सत्ता में रहने और विपक्ष में रहने के समय आचरण अलग-अलग होने चाहिए। आप याद करें ममता बनर्जी ने नक्सलियों के पक्ष में विपक्ष में रहते हुए जैसे सुर अलापे थे क्या वे जायज थे?
मुक्तिदाता कैसे बने खलनायकः आज जब इस इलाके में आतंक का पर्याय रहा किशन जी उर्फ कोटेश्वर राव मारा जा चुका है तो ममता मुस्करा सकती हैं। झाड़ग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ों की जान लेने वाला यह खतरनाक नक्सली अगर मारा गया है तो एक भारतीय होने के नाते हमें अफसोस नहीं करना चाहिए।सवाल सिर्फ यह है कि कल तक ममता की नजर में मुक्तिदूत रहे ये लोग अचानक खलनायक कैसे बन गए। दरअसल यही हमारी राजनीति का असली चेहरा है। हम राजनीतिक लाभ के लिए खून बहा रहे गिरोहों के प्रति भी सहानुभूति जताते हैं और साथ हो लेते हैं। केंद्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ ममता की टिप्पणियों को याद कीजिए। पर अफसोस इस देश की याददाश्त खतरनाक हद तक कमजोर है। यह स्मृतिदोष ही हमारी राजनीति की प्राणवायु है। हमारी जनता का औदार्य, भूल जाओ और माफ करो का भाव हमारे सभी संकटों का कारण है। कल तक तो नक्सली मुक्तिदूत थे, वही आज ममता के सबसे बड़े शत्रु हैं । कारण यह है कि उनकी जगह बदल चुकी है। वे प्रतिपक्ष की नेत्री नहीं, एक राज्य की मुख्यमंत्री जिन पर राज्य की कानून- व्यवस्था बनाए रखने की शपथ है। वे एक सीमा से बाहर जाकर नक्सलियों को छूट नहीं दे सकतीं। दरअसल यही राज्य और नक्सलवाद का द्वंद है। ये दोस्ती कभी वैचारिक नहीं थी, इसलिए दरक गयी।
राजनीतिक सफलता के लिए हिंसा का सहाराः नक्सली राज्य को अस्थिर करना चाहते थे इसलिए उनकी वामपंथियों से ठनी और अब ममता से उनकी ठनी है। कल तक किशनजी के बयानों का बचाव करने वाली ममता बनर्जी पर आरोप लगता रहा है कि वे राज्य में माओवादियों की मदद कर रही हैं और अपने लिए वामपंथ विरोधी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही हैं लेकिन आज जब कोटेश्वर राव को सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में मार गिराया है तो सबसे बड़ा सवाल ममता बनर्जी पर ही उठता है। आखिर क्या कारण है कि जिस किशनजी का सुरक्षा बल पूरे दशक पता नहीं कर पाये वही सुरक्षाबल चुपचाप आपरेशन करके किशनजी की कहानी उसी बंगाल में खत्म कर देते हैं, जहां ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं? कल तक इन्हीं माओवादियों को प्रदेश में लाल आतंक से निपटने का लड़ाका बतानेवाली ममता बनर्जी आज कोटेश्वर राव के मारे जाने पर बयान देने से भी बच रही हैं। यह कथा बताती थी सारा कुछ इतना सपाट नहीं है। कोटेश्लर राव ने जो किया उसका फल उन्हें मिल चुका है, किंतु ममता का चेहरा इसमें साफ नजर आता है- किस तरह हिंसक समूहों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने राजनीतिक सफलताएं प्राप्त कीं और अब नक्सलियों के खिलाफ वे अपनी राज्यसत्ता का इस्तेमाल कर रही हैं। निश्चय ही अगर आज की ममता सही हैं, तो कल वे जरूर गलत रही होंगीं। ममता बनर्जी का बदलता रवैया निश्चय ही राज्य में नक्सलवाद के लिए एक बड़ी चुनौती है, किंतु यह उन नेताओं के लिए एक सबक भी है जो नक्सलवाद को पालने पोसने के लिए काम करते हैं और नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं।
छत्तीसगढ़ की ओर देखिएः यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि देश के मुख्यमंत्रियों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने इस समस्या को इसके सही संदर्भ में पहचाना और केंद्रीय सत्ता को भी इसके खतरों के प्रति आगाह किया। नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच समन्वित अभियान की बात भी उन्होंने शुरू की। इस दिशा परिणाम को दिखाने वाली सफलताएं बहुत कम हैं और यह दिखता है कि नक्सलियों ने निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार ही किया है। किंतु इतना तो मानना पड़ेगा कि नक्सलियों के दुष्प्रचार के खिलाफ एक मजबूत रखने की स्थिति आज बनी है। नक्सलवाद की समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या कहकर इसके खतरों को कम आंकने की बात आज कम हुयी है। डा. रमन सिंह का दुर्भाग्य है कि पुलिसिंग के मोर्चे पर जिस तरह के अधिकारी होने चाहिए थे, उस संदर्भ में उनके प्रयास पानी में ही गए। छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक पुलिस महानिदेशक रहे एक आला अफसर, गृहमंत्री से ही लड़ते रहे और राज्य में नक्सली अपना कार्य़ विस्तार करते रहे। कई बार ये स्थितियां देखकर शक होता था कि क्या वास्तव में राज्य नक्सलियों से लड़ना चाहता है ? क्या वास्तव में राज्य के आला अफसर समस्या के प्रति गंभीर हैं? किंतु हालात बदले नहीं और बिगड़ते चले गए। ममता बनर्जी की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने सत्ता में आते ही अपना रंग बदला और नए तरीके से सत्ता संचालन कर रही हैं। वे इस बात को बहुत जल्दी समझ गयीं कि नक्सलियों का जो इस्तेमाल होना था हो चुका और अब उनसे कड़ाई से ही बात करनी पड़ेगी। सही मायने में देश का नक्सल आंदोलन जिस तरह के भ्रमों का शिकार है और उसने जिस तरह लेवी वसूली के माध्यम से अपनी एक समानांतर अर्थव्यवस्था बना ली है, देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। संकट यह है कि हमारी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कोई रास्ता तलाशने के बजाए विभ्रमों का शिकार है। नक्सल इलाकों का तेजी से विकास करते हुए वहां शांति की संभावनाएं तलाशनी ही होंगीं। नक्सलियों से जुड़े बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का सृजन कर रहे हैं। वे खून बहाते लोगों में मुक्तिदाता और जनता के सवालों पर जूझने वाले सेनानी की छवि देख सकते हैं किंतु हमारी सरकार में आखिर किस तरह के भ्रम हैं? हम चाहते क्या हैं? क्या इस सवाल से जूझने की इच्छाशक्ति हमारे पास है?
देशतोड़कों की एकताः सवाल यह है कि नक्सलवाद के देशतोड़क अभियान को जिस तरह का वैचारिक, आर्थिक और हथियारों का समर्थन मिल रहा है, क्या उससे हम सीधी लडाई जीत पाएंगें। इस रक्त बहाने के पीछे जब एक सुनियोजित विचार और आईएसआई जैसे संगठनों की भी संलिप्पता देखी जा रही है, तब हमें यह मान लेना चाहिए कि खतरा बहुत बड़ा है। देश और उसका लोकतंत्र इन रक्तपिपासुओं के निशाने पर है। इसलिए इस लाल रंग में क्रांति का रंग मत खोजिए। इनमें भारतीय समाज के सबसे खूबसूरत लोगों (आदिवासियों) के विनाश का घातक लक्ष्य है। दोनों तरफ की बंदूकें इसी सबसे सुंदर आदमी के खिलाफ तनी हुयी हैं। यह खेल साधारण नहीं है। सत्ता,राजनीति, प्रशासन,ठेकेदार और व्यापारी तो लेवी देकर जंगल में मंगल कर रहे हैं किंतु जिन लोगों की जिंदगी हमने नरक बना रखी है, उनकी भी सुध हमें लेनी होगी। आदिवासी समाज की नैसर्गिक चेतना को समझते हुए हमें उनके लिए, उनकी मुक्ति के लिए नक्सलवाद का समन करना होगा। जंगल से बारूद की गंध, मांस के लोथड़ों को हटाकर एक बार फिर मांदर की थाप पर नाचते-गाते आदिवासी, अपना जीवन पा सकें, इसका प्रयास करना होगा। आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप कर रहे नक्सली दरअसल एक बेहद प्रकृतिजीवी और सुंदर समाज के जीवन में जहर घोल रहे हैं। जंगलों के राजा को वर्दी पहनाकर और बंदूके पकड़ाकर आखिर वे कौन सा समाज बनना चाहते हैं, यह समझ से परे है। भारत जैसे देश में इस कथित जनक्रांति के सपने पूरे नहीं हो सकते, यह उन्हें समझ लेना चाहिए। ममता बनर्जी ने इसे देर से ही सही समझ लिया है किंतु हमारी मुख्यधारा की राजनीति और देश के कुछ बुद्धिजीवी इस सत्य को कब समझेंगें, यह एक बड़ा सवाल है।
Friday, November 25, 2011
आखिर देश कहां जा रहा है ?
देश के खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों को सौंपना एक जनविरोधी कदम
- संजय द्विवेदी
या तो हमारी राजनीति बहुत ज्यादा समझदार हो गयी है या बहुत नासमझ हो गयी है। जिस दौर में अमरीकी पूंजीवाद औंधे मुंह गिरा हुआ है और वालमार्ट के खिलाफ दुनिया में आंदोलन की लहर है,यह हमारी सरकार ही हो सकती है ,जो रिटेल में एफडीआई के लिए मंजूरी देने के लिए इतनी आतुर नजर आए। राजनेताओं पर थप्पड़ और जूते बरस रहे हैं पर वे सब कुछ सहकर भी नासमझ बने हुए हैं। पैसे की प्रकट पिपासा क्या इतना अंधा और बहरा बना देती है कि जनता के बीच चल रही हलचलों का भी हमें भान न रह जाए। जनता के बीच पल रहे गुस्से और दुनिया में हो रहे आंदोलनों के कारणों को जानकर भी कैसे हमारी राजनीति उससे मुंह चुराते हुए अपनी मनमानी पर आमादा हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है.
महात्मा गांधी का रास्ता सालों पहले छोड़कर पूंजीवाद के अंधानुकरण में लगी सरकारें थप्पड़ खाते ही गांधी की याद करने लगती हैं। क्या इन्हें अब भी गांधी का नाम लेने का हक है? हमारे एक दिग्गज मंत्री दुख से कहते हैं “पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?” आप देश को लूटकर खाते रहें और देश की जनता में किसी तरह की प्रतिक्रिया न हो, फिर एक लोकतंत्र में होने के मायने क्या हैं ? अहिंसक प्रतिरोधों से भी सरकारें ‘ओबामा के लोकतंत्र’ की तरह ही निबट रही हैं। बाबा रामदेव का आंदोलन जिस तरह कुचला गया, वह इसकी वीभत्स मिसाल है। लोकतंत्र में असहमतियों को अगर इस तरह दबाया जा रहा है तो इसकी प्रतिक्रिया के लिए भी लोगों को तैयार रहना चाहिए।
रिटेल में एफडीआई की मंजूरी देकर केंद्र ने यह साबित कर दिया है कि वह पूरी तरह एक मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने पर आमादा है। देश के 30 लाख करोड़ रूपए के रिटेल कारोबार पर विदेशी कंपनियों की नजर है। कुल मिलाकर यह भारतीय खुदरा बाजार और छोटे व्यापारियों को उजाड़ने और बर्बाद करने की साजिश से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मंदी की शिकार अर्थव्यवस्थाएं अब भारत के बाजार में लूट के लिए निगाहें गड़ाए हुए हैं। अफसोस यह कि देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए रोजगार सृजन के लिए यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। नौकरियों के लिए सिकुड़ते दरवाजों के बीच सरकार अब निजी उद्यमिता से जी रहे समाज के मुंह से भी निवाला छीन लेना चाहती है। कारपोरेट पर मेहरबान सरकार अगर सामान्य जनों के हाथ से भी काम छीनने पर आमादा है, तो भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगें, इसे सोचा जा सकता है।
खुदरा व्यापार से जी रहे लाखों लोग क्या इस सरकार और लोकतंत्र के लिए दुआ करेंगें ? लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए एक लोकतंत्र इतना आतुर कैसे हो सकता है ? देश की सरकार क्या सच में अंधी-बहरी हो गयी है? सरकार परचून की दुकान पर भी पूंजीवाद को स्थापित करना चाहती है, तो इसके मायने बहुत साफ हैं कि यह जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार भले है, किंतु विदेशी हितों के लिए काम करती है। क्या दिल्ली जाते ही हमारा दिल और दिमाग बदल जाता है, क्या दिल्ली हमें अमरीका का चाकर बना देती है कि हम जनता के एजेंडे को भुला बैठते हैं। कांग्रेस की छोड़िए दिल्ली में जब भाजपा की सरकार आयी तो उसने प्रिंट मीडिया में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए। क्या हमारी राजनीति में अब सिर्फ झंडों का फर्क रह गया है। हम चाहकर अपने लोकतंत्र की इस त्रासदी पर विवश खड़े हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शायद इसीलिए लिखते है-
‘दिल्ली हमका चाकर कीन्ह,
दिल-दिमाग भूसा भर दीन्ह।’
याद कीजिए वे दिन जब हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमरीका से परमाणु करार के लिए अपनी सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। किंतु उनका वह पुरूषार्थ, जनता के महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर हवा हो जाता है। सही मायने में उसी समय मनमोहन सिंह पहली और अंतिम बार एक वीरोचित भाव में दिखे थे क्योंकि उनके लिए अमरीकी सरकार के हित, हमारी जनता के हित से बड़े हैं। यह गजब का लोकतंत्र है कि हमारे वोटों से बनी सरकारें विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करती हैं।
राहुल गांधी की गरीब समर्थक छवियां क्या उनकी सरकार की ऐसी हरकतों से मेल खाती हैं। देश के खुदरा व्यापार को उजाड़ कर वे किस ‘कलावती’ का दर्द कम करना चाहते हैं, यह समझ से परे है। देश के विपक्षी दल भी इन मामलों में वाचिक हमलों से आगे नहीं बढ़ते। सरकार जनविरोधी कामों के पहाड़ खड़े कर रही है और संसद चलाने के लिए हम मरे जा रहे हैं। जिस संसद में जनता के विरूद्ध ही साजिशें रची जा रही हों, लोगों के मुंह का निवाला छीनने की कुटिल चालें चली जा रही हों, वह चले या न चले इसके मायने क्या हैं ? संसद में बैठे लोगों को सोचना चाहिए कि क्या वे जनाकांक्षाओं का प्रकटीकरण कर रहे हैं ? क्या उनके द्वारा देश की आम जनता के भले की नीतियां बनाई जा रही हैं? गांधी को याद करती राजनीति को क्या गांधी का दिया वह मंत्र भी याद है कि जब आप कोई भी कदम उठाओ तो यह सोचो कि इसका देश के आखिरी आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सही मायने में देश की राजनीति गांधी का रास्ता भूल गई है, किंतु जब जनप्रतिरोध हिंसक हो उठते हैं तो वह गांधी और अहिंसा का मंत्र जाप करने लगती है। देश की राजनीति के लिए यह सोचने का समय है कि कि देश की विशाल जनसंख्या की समस्याओं के लिए उनके पास समाधान क्या है? क्या वे देश को सिर्फ पांच साल का सवाल मानते हैं, या देश उनके लिए उससे भी बड़ा है? अपनी झोली भरने के लिए सरकार अगर लोगों के मुंह से निवाला छीनने वाली नीतियां बनाती है तो हमें डा. लोहिया की याद आती है, वे कहते थे- “जिंदा कौमें पांच तक इंतजार नहीं करती। ” सरकार की नीतियां हमें किस ओर ले जा रही हैं, यह हमें सोचना होगा। अगर हम इस सवाल का उत्तर तलाश पाएं तो शायद प्रणव बाबू को यह न कहने पड़े कि “पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?”
Sunday, October 16, 2011
मीडिया शिक्षा पर एक बेहतर किताब
भोपाल। भारत में मीडिया शिक्षा एक लंबी यात्रा पूरी कर चुकी है। इसका विस्तार निरंतर हो रहा है। इस विधा में हो रहे विस्तार और इसके सामने उपस्थित चुनौतियों पर प्रकाश डालती हुई एक किताब ‘मीडिया शिक्षाःमुद्दे और अपेक्षाएं’ का प्रकाशन दिल्ली के यश पब्लिकेशन्स ने किया है।
पुस्तक के संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने बताया कि इस पुस्तक देश के जाने माने मीडिया शिक्षकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के लेख शामिल किए गए हैं। जिन्होंने मीडिया शिक्षा के विविध पक्षों पर अपनी बेबाक राय रखी है। उन्होंने कहा कि आज जबकि मीडिया शिक्षा एक विशिष्ठ अनुशासन के रूप में अपनी जगह बना रही है तब उसपर गंभीर विमर्श जरूरी है। आज जबकि सीबीएससी के पाठ्यक्रमों से लेकर मीडिया अध्ययन में पीएचडी तक के कोर्स देश के तमाम विश्वविद्यालय में उपलब्ध हैं, तब यह जरूरी है कि हम मीडिया शिक्षा के तमाम प्रकारों पर संवाद करें और उसकी सार्थकता के लिए रास्ते निकालें।
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता के पूर्व कुलपति और जनसत्ता के पूर्व संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र को समर्पित की गयी इस पुस्तक में स्व. माखनलाल चतुर्वेदी, अच्युतानंद मिश्र, प्रो. बी.के. कुठियाला, विश्वनाथ सचदेव, डा.संजीव भानावत, सच्चिदानंद जोशी, प्रो.कमल दीक्षित, डा.मनोज दयाल, डा.श्रीकांत सिंह, डा. मानसिंह परमार, डा.मनीषा शर्मा, डा.वर्तिका नंदा, डा. शिप्रा माथुर, बृजेश राजपूत, प्रो. ओमप्रकाश सिंह, सचिन भागवत, प्रो.ओमप्रकाश सिंह, धनंजय चोपड़ा, डा.सुशील त्रिवेदी, प्रकाश दुबे, डा. देवब्रत सिंह,संजय कुमार, मोनिका गहलोत, संदीप कुमार श्रीवास्तव, माधवी श्री, मिथिलेश कुमार, मीतेंद्र नागेश, जया शर्मा, आशीष कुमार अंशू,मधु चौरसिया, सुमीत द्विवेदी आदि के लेख शामिल हैं। 159 पृष्ठ की इस पुस्तक का मूल्य 295 रूपए है। प्रकाशक का पता हैः यश पब्लिकेशंस, 1/10753, गली नंबर-3, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, नियर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110032
Saturday, March 26, 2011
क्या बेमानी हैं राजनीति में नैतिकता के प्रश्न ?
-संजय द्विवेदी
यह विडंबना ही है कि देश में एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं और महंगाई अपने चरण पर है। संभवतः वे ईमानदार भी हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी अपने सारे पुराने रिकार्ड तोड़ चुका है। किंतु क्या इन संर्दभों के बावजूद भी देश के मन में कोई हलचल है। कोई राजनीतिक प्रतिरोध दिख रहा है। शायद नहीं, क्योंकि जनता के सवालों के प्रति कोई राजनीतिक दल आश्वस्त नहीं करता। भ्रष्टाचार के सवाल पर तो बिल्कुल नहीं।
आप देखें तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता तो संदिग्ध हो ही चुकी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जनभावनाओं के आधार पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का रिकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं हैं। लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, जयललिता और करूणानिधि जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके पास कोई जनधर्मी अतीत या वर्तमान नहीं हैं। ऐसे में जनता आखिर प्रतिरोध की शक्ति कहां से अर्जित करे। कौन से विकल्पों की ओर बढ़े। क्योंकि अंततः सत्ता में जाते ही सारे नारे भोथरे हो जाते हैं। सत्ता की चाल किसी भी रंग के झंडे और विचारों के बावजूद एक ही रहती है। सत्ता जनता से जाने वाले नेता को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेती है। अगर ऐसा न होता तो मजदूरों और मेहनतकशों की सरकार होते हुए प.बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम न घटते। उप्र में दलितों की प्रतिनिधि सरकार आने के बाद दलितों और उनकी स्त्रियों पर अत्याचार रूक जाते। पर ऐसा कहां हुआ। यह अनूकूलन सब दिशाओं में दिखता है। ऐसे में विकल्प क्या हैं ? भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी जंग आज हमारी राजनीति के बजाए अदालत ही लड़ रही है। अदालत केंद्रित यह संघर्ष क्या जनता के बीच फैल रही बेचैनियों का जवाब है। यह एक गंभीर प्रश्न है।
हमारे राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता जिस तरह देश के मानस को तोड़ रहे हैं उससे लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा पैदा हो रही है। यह खतरनाक है और इसे रोकना जरूरी है। वोट के बदले नोट को लेकर संसद में हुयी बहसों को देखें तो उसका निकष क्या है. यही है कि अगर आपको जनता ने सत्ता दे दी है तो आप कुछ भी करेंगें। जनता के विश्वास के साथ इससे बड़ा छल क्या हो सकता है। पर ये हो रहा है और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए मजबूर हैं। पूरी दुनिया के अंदर भारत को एक नई नजर से देखा जा रहा है और उससे बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। किंतु हमारी राजनीति हमें बहुत निराश कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज हमारे पास विकल्प नदारद हैं। कोई भी दल इस विषय में आश्वस्त नहीं करता कि वह भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण लगाएगा। राजनीति की यह दिशाहीनता देश को भारी पड़ रही है। देश की जनता अपने संघर्षों से इस महान राष्ट्र को निरंतर विकास करते देखना चाहती है, उसके लिए अपेक्षित श्रम भी कर रही है। किंतु सारा कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। हमारी प्रगति को राजनीतिकों के ग्रहण लगे हुए हैं। सारी राजनीति का चेहरा अत्यंत कुरूप होता जा रहा है। आशा की किरणें नदारद हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें भी जनता से मिले विश्वास के आधार पर ऐसा आत्मविश्वास दिखा रही हैं जैसे जनादेश यही करने के लिए मिला हो। सही मायने में राजनीति में नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो चुके हैं। पूरे समाज में एक गहरी बेचैनी है और लोग बदलाव की आंच को तेज करना चाहते हैं। सामाजिक और सांगठनिक स्तर पर अनेक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम भी चला रहे हैं। इसे तेज करने की जरूरत है। बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्ना हजारे, किरण बेदी आदि अनेक जन इस मुहिम में लगे हैं। हमें देखना होगा कि इस संघर्ष के कुछ शुभ फलित पाए जा सकें। महात्मा गांधी कहते थे साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। हमें इसका ध्यान देते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।
भारतीय लोकतंत्र के एक महान नेता डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ पर क्या हममें लोकलाज बची है, यह एक बड़ा सवाल है। देश में अनेक स्तरों पर प्रतिरोध खड़े हो रहे हैं। कई स्थानों पर ये प्रतिरोध हिंसक आदोंलन के रूप में भी दिखते हैं। किंतु जनता का राजनीति से निराश होना चिंताजनक है। क्योंकि यह निराशा अंततः लोकतंत्र के खिलाफ जाती है। लोकतंत्र बहुत संघर्षों से अर्जित व्यवस्था है। जिसे हमने काफी कुर्बानियों के बाद पाया है। हमें यह देखना होगा कि हम इस व्यवस्था को आगे कैसे ले जा सकते हैं। इसके दोषों का परिष्कार करते हुए, लोकमत का जागरण करते हुए अपने लोकतंत्र को प्राणवान और सार्थक बनाने की जरूरत है। क्योंकि इसमें जनता के सवालों का हल है। जनता आज भी इस देश को समर्थ बनाने के प्रयासों में लगी है किंतु समाज से आर्दश गायब हो गए लगते हैं। समय है कि हम अपने आदर्शों की पुर्स्थापना करें और एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ें। राजनीति से निराश होने की नहीं उसे संशोधित करने और योग्य नेतृत्व को आगे लाने की जरूरत है। लोकतंत्र अपने प्रश्नों का हल निकाल लेगा और हमें एक रास्ता दिखाएगा ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। घने अंधकार से कोई रोशनी जरूर निकलेगी जो सारे तिमिर को चीर कर एक नए संसार की रचना करेगी। शायद वह दिन भारत के परमवैभव का दिन होगा। जिसका इंतजार हम भारत के लोग लंबे समय से कर रहे हैं।
यह विडंबना ही है कि देश में एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं और महंगाई अपने चरण पर है। संभवतः वे ईमानदार भी हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी अपने सारे पुराने रिकार्ड तोड़ चुका है। किंतु क्या इन संर्दभों के बावजूद भी देश के मन में कोई हलचल है। कोई राजनीतिक प्रतिरोध दिख रहा है। शायद नहीं, क्योंकि जनता के सवालों के प्रति कोई राजनीतिक दल आश्वस्त नहीं करता। भ्रष्टाचार के सवाल पर तो बिल्कुल नहीं।
आप देखें तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता तो संदिग्ध हो ही चुकी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जनभावनाओं के आधार पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का रिकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं हैं। लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, जयललिता और करूणानिधि जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके पास कोई जनधर्मी अतीत या वर्तमान नहीं हैं। ऐसे में जनता आखिर प्रतिरोध की शक्ति कहां से अर्जित करे। कौन से विकल्पों की ओर बढ़े। क्योंकि अंततः सत्ता में जाते ही सारे नारे भोथरे हो जाते हैं। सत्ता की चाल किसी भी रंग के झंडे और विचारों के बावजूद एक ही रहती है। सत्ता जनता से जाने वाले नेता को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेती है। अगर ऐसा न होता तो मजदूरों और मेहनतकशों की सरकार होते हुए प.बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम न घटते। उप्र में दलितों की प्रतिनिधि सरकार आने के बाद दलितों और उनकी स्त्रियों पर अत्याचार रूक जाते। पर ऐसा कहां हुआ। यह अनूकूलन सब दिशाओं में दिखता है। ऐसे में विकल्प क्या हैं ? भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी जंग आज हमारी राजनीति के बजाए अदालत ही लड़ रही है। अदालत केंद्रित यह संघर्ष क्या जनता के बीच फैल रही बेचैनियों का जवाब है। यह एक गंभीर प्रश्न है।
हमारे राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता जिस तरह देश के मानस को तोड़ रहे हैं उससे लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा पैदा हो रही है। यह खतरनाक है और इसे रोकना जरूरी है। वोट के बदले नोट को लेकर संसद में हुयी बहसों को देखें तो उसका निकष क्या है. यही है कि अगर आपको जनता ने सत्ता दे दी है तो आप कुछ भी करेंगें। जनता के विश्वास के साथ इससे बड़ा छल क्या हो सकता है। पर ये हो रहा है और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए मजबूर हैं। पूरी दुनिया के अंदर भारत को एक नई नजर से देखा जा रहा है और उससे बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। किंतु हमारी राजनीति हमें बहुत निराश कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज हमारे पास विकल्प नदारद हैं। कोई भी दल इस विषय में आश्वस्त नहीं करता कि वह भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण लगाएगा। राजनीति की यह दिशाहीनता देश को भारी पड़ रही है। देश की जनता अपने संघर्षों से इस महान राष्ट्र को निरंतर विकास करते देखना चाहती है, उसके लिए अपेक्षित श्रम भी कर रही है। किंतु सारा कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। हमारी प्रगति को राजनीतिकों के ग्रहण लगे हुए हैं। सारी राजनीति का चेहरा अत्यंत कुरूप होता जा रहा है। आशा की किरणें नदारद हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें भी जनता से मिले विश्वास के आधार पर ऐसा आत्मविश्वास दिखा रही हैं जैसे जनादेश यही करने के लिए मिला हो। सही मायने में राजनीति में नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो चुके हैं। पूरे समाज में एक गहरी बेचैनी है और लोग बदलाव की आंच को तेज करना चाहते हैं। सामाजिक और सांगठनिक स्तर पर अनेक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम भी चला रहे हैं। इसे तेज करने की जरूरत है। बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्ना हजारे, किरण बेदी आदि अनेक जन इस मुहिम में लगे हैं। हमें देखना होगा कि इस संघर्ष के कुछ शुभ फलित पाए जा सकें। महात्मा गांधी कहते थे साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। हमें इसका ध्यान देते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।
भारतीय लोकतंत्र के एक महान नेता डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ पर क्या हममें लोकलाज बची है, यह एक बड़ा सवाल है। देश में अनेक स्तरों पर प्रतिरोध खड़े हो रहे हैं। कई स्थानों पर ये प्रतिरोध हिंसक आदोंलन के रूप में भी दिखते हैं। किंतु जनता का राजनीति से निराश होना चिंताजनक है। क्योंकि यह निराशा अंततः लोकतंत्र के खिलाफ जाती है। लोकतंत्र बहुत संघर्षों से अर्जित व्यवस्था है। जिसे हमने काफी कुर्बानियों के बाद पाया है। हमें यह देखना होगा कि हम इस व्यवस्था को आगे कैसे ले जा सकते हैं। इसके दोषों का परिष्कार करते हुए, लोकमत का जागरण करते हुए अपने लोकतंत्र को प्राणवान और सार्थक बनाने की जरूरत है। क्योंकि इसमें जनता के सवालों का हल है। जनता आज भी इस देश को समर्थ बनाने के प्रयासों में लगी है किंतु समाज से आर्दश गायब हो गए लगते हैं। समय है कि हम अपने आदर्शों की पुर्स्थापना करें और एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ें। राजनीति से निराश होने की नहीं उसे संशोधित करने और योग्य नेतृत्व को आगे लाने की जरूरत है। लोकतंत्र अपने प्रश्नों का हल निकाल लेगा और हमें एक रास्ता दिखाएगा ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। घने अंधकार से कोई रोशनी जरूर निकलेगी जो सारे तिमिर को चीर कर एक नए संसार की रचना करेगी। शायद वह दिन भारत के परमवैभव का दिन होगा। जिसका इंतजार हम भारत के लोग लंबे समय से कर रहे हैं।
क्या बेमानी हैं राजनीति में नैतिकता के प्रश्न ?
-संजय द्विवेदी
यह विडंबना ही है कि देश में एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं और महंगाई अपने चरण पर है। संभवतः वे ईमानदार भी हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी अपने सारे पुराने रिकार्ड तोड़ चुका है। किंतु क्या इन संर्दभों के बावजूद भी देश के मन में कोई हलचल है। कोई राजनीतिक प्रतिरोध दिख रहा है। शायद नहीं, क्योंकि जनता के सवालों के प्रति कोई राजनीतिक दल आश्वस्त नहीं करता। भ्रष्टाचार के सवाल पर तो बिल्कुल नहीं।
आप देखें तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता तो संदिग्ध हो ही चुकी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जनभावनाओं के आधार पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का रिकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं हैं। लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, जयललिता और करूणानिधि जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके पास कोई जनधर्मी अतीत या वर्तमान नहीं हैं। ऐसे में जनता आखिर प्रतिरोध की शक्ति कहां से अर्जित करे। कौन से विकल्पों की ओर बढ़े। क्योंकि अंततः सत्ता में जाते ही सारे नारे भोथरे हो जाते हैं। सत्ता की चाल किसी भी रंग के झंडे और विचारों के बावजूद एक ही रहती है। सत्ता जनता से जाने वाले नेता को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेती है। अगर ऐसा न होता तो मजदूरों और मेहनतकशों की सरकार होते हुए प.बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम न घटते। उप्र में दलितों की प्रतिनिधि सरकार आने के बाद दलितों और उनकी स्त्रियों पर अत्याचार रूक जाते। पर ऐसा कहां हुआ। यह अनूकूलन सब दिशाओं में दिखता है। ऐसे में विकल्प क्या हैं ? भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी जंग आज हमारी राजनीति के बजाए अदालत ही लड़ रही है। अदालत केंद्रित यह संघर्ष क्या जनता के बीच फैल रही बेचैनियों का जवाब है। यह एक गंभीर प्रश्न है।
हमारे राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता जिस तरह देश के मानस को तोड़ रहे हैं उससे लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा पैदा हो रही है। यह खतरनाक है और इसे रोकना जरूरी है। वोट के बदले नोट को लेकर संसद में हुयी बहसों को देखें तो उसका निकष क्या है. यही है कि अगर आपको जनता ने सत्ता दे दी है तो आप कुछ भी करेंगें। जनता के विश्वास के साथ इससे बड़ा छल क्या हो सकता है। पर ये हो रहा है और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए मजबूर हैं। पूरी दुनिया के अंदर भारत को एक नई नजर से देखा जा रहा है और उससे बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। किंतु हमारी राजनीति हमें बहुत निराश कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज हमारे पास विकल्प नदारद हैं। कोई भी दल इस विषय में आश्वस्त नहीं करता कि वह भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण लगाएगा। राजनीति की यह दिशाहीनता देश को भारी पड़ रही है। देश की जनता अपने संघर्षों से इस महान राष्ट्र को निरंतर विकास करते देखना चाहती है, उसके लिए अपेक्षित श्रम भी कर रही है। किंतु सारा कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। हमारी प्रगति को राजनीतिकों के ग्रहण लगे हुए हैं। सारी राजनीति का चेहरा अत्यंत कुरूप होता जा रहा है। आशा की किरणें नदारद हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें भी जनता से मिले विश्वास के आधार पर ऐसा आत्मविश्वास दिखा रही हैं जैसे जनादेश यही करने के लिए मिला हो। सही मायने में राजनीति में नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो चुके हैं। पूरे समाज में एक गहरी बेचैनी है और लोग बदलाव की आंच को तेज करना चाहते हैं। सामाजिक और सांगठनिक स्तर पर अनेक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम भी चला रहे हैं। इसे तेज करने की जरूरत है। बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्ना हजारे, किरण बेदी आदि अनेक जन इस मुहिम में लगे हैं। हमें देखना होगा कि इस संघर्ष के कुछ शुभ फलित पाए जा सकें। महात्मा गांधी कहते थे साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। हमें इसका ध्यान देते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।
भारतीय लोकतंत्र के एक महान नेता डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ पर क्या हममें लोकलाज बची है, यह एक बड़ा सवाल है। देश में अनेक स्तरों पर प्रतिरोध खड़े हो रहे हैं। कई स्थानों पर ये प्रतिरोध हिंसक आदोंलन के रूप में भी दिखते हैं। किंतु जनता का राजनीति से निराश होना चिंताजनक है। क्योंकि यह निराशा अंततः लोकतंत्र के खिलाफ जाती है। लोकतंत्र बहुत संघर्षों से अर्जित व्यवस्था है। जिसे हमने काफी कुर्बानियों के बाद पाया है। हमें यह देखना होगा कि हम इस व्यवस्था को आगे कैसे ले जा सकते हैं। इसके दोषों का परिष्कार करते हुए, लोकमत का जागरण करते हुए अपने लोकतंत्र को प्राणवान और सार्थक बनाने की जरूरत है। क्योंकि इसमें जनता के सवालों का हल है। जनता आज भी इस देश को समर्थ बनाने के प्रयासों में लगी है किंतु समाज से आर्दश गायब हो गए लगते हैं। समय है कि हम अपने आदर्शों की पुर्स्थापना करें और एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ें। राजनीति से निराश होने की नहीं उसे संशोधित करने और योग्य नेतृत्व को आगे लाने की जरूरत है। लोकतंत्र अपने प्रश्नों का हल निकाल लेगा और हमें एक रास्ता दिखाएगा ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। घने अंधकार से कोई रोशनी जरूर निकलेगी जो सारे तिमिर को चीर कर एक नए संसार की रचना करेगी। शायद वह दिन भारत के परमवैभव का दिन होगा। जिसका इंतजार हम भारत के लोग लंबे समय से कर रहे हैं।
यह विडंबना ही है कि देश में एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं और महंगाई अपने चरण पर है। संभवतः वे ईमानदार भी हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी अपने सारे पुराने रिकार्ड तोड़ चुका है। किंतु क्या इन संर्दभों के बावजूद भी देश के मन में कोई हलचल है। कोई राजनीतिक प्रतिरोध दिख रहा है। शायद नहीं, क्योंकि जनता के सवालों के प्रति कोई राजनीतिक दल आश्वस्त नहीं करता। भ्रष्टाचार के सवाल पर तो बिल्कुल नहीं।
आप देखें तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता तो संदिग्ध हो ही चुकी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जनभावनाओं के आधार पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का रिकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं हैं। लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, जयललिता और करूणानिधि जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके पास कोई जनधर्मी अतीत या वर्तमान नहीं हैं। ऐसे में जनता आखिर प्रतिरोध की शक्ति कहां से अर्जित करे। कौन से विकल्पों की ओर बढ़े। क्योंकि अंततः सत्ता में जाते ही सारे नारे भोथरे हो जाते हैं। सत्ता की चाल किसी भी रंग के झंडे और विचारों के बावजूद एक ही रहती है। सत्ता जनता से जाने वाले नेता को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेती है। अगर ऐसा न होता तो मजदूरों और मेहनतकशों की सरकार होते हुए प.बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम न घटते। उप्र में दलितों की प्रतिनिधि सरकार आने के बाद दलितों और उनकी स्त्रियों पर अत्याचार रूक जाते। पर ऐसा कहां हुआ। यह अनूकूलन सब दिशाओं में दिखता है। ऐसे में विकल्प क्या हैं ? भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी जंग आज हमारी राजनीति के बजाए अदालत ही लड़ रही है। अदालत केंद्रित यह संघर्ष क्या जनता के बीच फैल रही बेचैनियों का जवाब है। यह एक गंभीर प्रश्न है।
हमारे राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता जिस तरह देश के मानस को तोड़ रहे हैं उससे लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा पैदा हो रही है। यह खतरनाक है और इसे रोकना जरूरी है। वोट के बदले नोट को लेकर संसद में हुयी बहसों को देखें तो उसका निकष क्या है. यही है कि अगर आपको जनता ने सत्ता दे दी है तो आप कुछ भी करेंगें। जनता के विश्वास के साथ इससे बड़ा छल क्या हो सकता है। पर ये हो रहा है और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए मजबूर हैं। पूरी दुनिया के अंदर भारत को एक नई नजर से देखा जा रहा है और उससे बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। किंतु हमारी राजनीति हमें बहुत निराश कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज हमारे पास विकल्प नदारद हैं। कोई भी दल इस विषय में आश्वस्त नहीं करता कि वह भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण लगाएगा। राजनीति की यह दिशाहीनता देश को भारी पड़ रही है। देश की जनता अपने संघर्षों से इस महान राष्ट्र को निरंतर विकास करते देखना चाहती है, उसके लिए अपेक्षित श्रम भी कर रही है। किंतु सारा कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। हमारी प्रगति को राजनीतिकों के ग्रहण लगे हुए हैं। सारी राजनीति का चेहरा अत्यंत कुरूप होता जा रहा है। आशा की किरणें नदारद हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें भी जनता से मिले विश्वास के आधार पर ऐसा आत्मविश्वास दिखा रही हैं जैसे जनादेश यही करने के लिए मिला हो। सही मायने में राजनीति में नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो चुके हैं। पूरे समाज में एक गहरी बेचैनी है और लोग बदलाव की आंच को तेज करना चाहते हैं। सामाजिक और सांगठनिक स्तर पर अनेक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम भी चला रहे हैं। इसे तेज करने की जरूरत है। बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्ना हजारे, किरण बेदी आदि अनेक जन इस मुहिम में लगे हैं। हमें देखना होगा कि इस संघर्ष के कुछ शुभ फलित पाए जा सकें। महात्मा गांधी कहते थे साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। हमें इसका ध्यान देते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।
भारतीय लोकतंत्र के एक महान नेता डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ पर क्या हममें लोकलाज बची है, यह एक बड़ा सवाल है। देश में अनेक स्तरों पर प्रतिरोध खड़े हो रहे हैं। कई स्थानों पर ये प्रतिरोध हिंसक आदोंलन के रूप में भी दिखते हैं। किंतु जनता का राजनीति से निराश होना चिंताजनक है। क्योंकि यह निराशा अंततः लोकतंत्र के खिलाफ जाती है। लोकतंत्र बहुत संघर्षों से अर्जित व्यवस्था है। जिसे हमने काफी कुर्बानियों के बाद पाया है। हमें यह देखना होगा कि हम इस व्यवस्था को आगे कैसे ले जा सकते हैं। इसके दोषों का परिष्कार करते हुए, लोकमत का जागरण करते हुए अपने लोकतंत्र को प्राणवान और सार्थक बनाने की जरूरत है। क्योंकि इसमें जनता के सवालों का हल है। जनता आज भी इस देश को समर्थ बनाने के प्रयासों में लगी है किंतु समाज से आर्दश गायब हो गए लगते हैं। समय है कि हम अपने आदर्शों की पुर्स्थापना करें और एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ें। राजनीति से निराश होने की नहीं उसे संशोधित करने और योग्य नेतृत्व को आगे लाने की जरूरत है। लोकतंत्र अपने प्रश्नों का हल निकाल लेगा और हमें एक रास्ता दिखाएगा ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। घने अंधकार से कोई रोशनी जरूर निकलेगी जो सारे तिमिर को चीर कर एक नए संसार की रचना करेगी। शायद वह दिन भारत के परमवैभव का दिन होगा। जिसका इंतजार हम भारत के लोग लंबे समय से कर रहे हैं।
Saturday, March 19, 2011
Tuesday, January 25, 2011
भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए आगे आने की जरूरत
उर्दू पत्रकारिता पर विमर्श के बहाने एक सही शुरूआत
- संजय द्विवेदी
यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य है कि उसकी राजधानी भोपाल से उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर सार्थक विमर्श की शुरूआत हुई है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल और इसके कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला इसके लिए बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने हिंदी ही नहीं भारतीय भाषा परिवार की सभी भाषाओं के विकास और उन्हें एकता के सूत्र में बांधने का लक्ष्य अपने हाथ में लिया है।
यह सुखद संयोग है कि गत 22 जनवरी को विश्वविद्यालय के परिसर में उर्दू भाषा पर संवाद हुआ और 23 जनवरी को भोपाल के शहीद भवन में भारतीय भाषाओं पर बातचीत हुयी। यह शुरूआत मध्यप्रदेश जैसे राज्य से ही हो सकती है, इसे यूं ही देश का ह्दय प्रदेश नहीं कहा जाता। मप्र का भोपाल एक ऐसा शहर है जहां हिंदी और उर्दू पत्रकारिता ही नहीं दोनों भाषाओं का साहित्य फला-फूला है। अपनी सांस्कृतिक विरासतों,भाषाओं व बोलियों का सहेजने का जो उपक्रम मध्यप्रदेश में हुआ है वैसा अन्य स्थानों पर नहीं दिखता।
उर्दू पत्रकारिताः चुनौतियां और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित इस सेमीनार में जुटे उर्दू संपादकों, पत्रकारों और अध्यापकों ने जो बातचीत की वह बताती है हमें उर्दू के विकास को एक खास नजर से देखने की जरूरत है और देश के विकास में उसका एक बड़ा योगदान सुनिश्चित किया जा सकता है। शायद इसीलिए पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग का कहते है कि “उर्दू अपने घर में ही बेगानी हो चुकी है। सियासत ने इन सालों में सिर्फ देश को तोड़ने का काम किया है। अब भारतीय भाषाओं का काम है कि वे देश को जोड़ने का काम करें।”
आजादी के आंदोलन में भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का खास योगदान रहा है। उसमें उर्दू पत्रकारिता अग्रणी रही है। लाला लाजपत राय जैसे हिंद समाचार के संस्थापक और क्रांतिकारियों ने इसे एक नई दिशा दी। अनेक अखबारों के संपादकों को जेल हुयी, यातनाएं दी गयीं। हिंदी के बड़े लेखक के रूप में जाने जाने वाले मुंशी प्रेमचंद की पहली किताब सोजे वतन को अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था। ऐसे संघर्षों से ही भाषा फली-फूली है। आजादी के आंदोलन की भाषा हिंदी और उर्दू रही है। इन दोनों भाषाओं के अखबारों ने जैसी अलख जगाई उसका एक इतिहास है। इन्होंने राजनीतिक जागरूकता लाने में एक अहम भूमिका निभाई। सामाजिक और राजनीतिक तौर पर समाज को जागृत करने में इन अखबारों की एक खास भूमिका रही है।
उर्दू ,भारत में पैदा हुयी भाषा है जिसका अपना एक शानदार इतिहास है। उसका साहित्य एक प्रेरक विषय है। देश के नामवर शायरों की वजह से दुनिया में हमारी एक पहचान बनी है। लेखकों ने हमें एक उँचाई दिलाई है। उर्दू मीडिया ने भी आजादी के बाद काफी तरक्की की है। नई प्रौद्योगिकी को अपनाने के बाद उर्दू के अखबारों को काफी ताकत मिली है। वे व्यापक कवरेज पर ध्यान दे रहे हैं। किंतु यह दुखद है कि नयी पीढ़ी में उर्दू के प्रति जागरूकता कम हो रही है। वह अब व्यापक रूप से संवाद की भाषा नहीं रह पा रही है।
नए समय में हमें अपनी भारतीय भाषाओं को बचाने की जरूरत है। उनके अच्छे साहित्य का अनुवाद करने की जरूरत है ताकि विविध भाषाओं में लिखे जा रहे अच्छे ज्ञान से हमारा अपरिचय न रह सके। हम एक दूसरे के बेहतर साहित्य से रूबरू हो सकें। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि उर्दू अखबारों की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है। खासकर पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र तथा देश के दक्षिणी हिस्से में उर्दू के अखबार लोकप्रिय हो रहे हैं। आज ये अखबार कहीं भी अंग्रेजी या भारतीय भाषाओं के मुकाबले कमजोर नहीं है। सहारा उर्दू रोजनामा (नई दिल्ली) के ब्यूरो चीफ असद रजा की राय में हिंदी व उर्दू पत्रकारिता करने के लिए दोनों भाषाओं को जानना चाहिए। उर्दू अखबारों को अद्यतन तकनीकी के साथ साथ अद्यतन विपणन ( लेटेस्ट मार्केटिंग) को भी अपनाना चाहिए।
तमाम समस्याओं के बीच भी उर्दू मीडिया की एक वैश्विक पहचान बन रही है। वह आज सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया की भाषा बन रही है। यह सौभाग्य ही है कि हिंदी, उर्दू , पंजाबी, मलयालम और गुजराती जैसी भाषाएं आज विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना रही है। दुनिया के तमाम देशों में रह रहे भारतवंशी अपनी भाषाओं के साथ हैं और भारत के समाचार पत्र और टीवी चैनल ही नहीं, फिल्में भी विदेशों में बहुत लोकप्रिय हैं। यह सारी भाषाएं मिलकर हिंदुस्तान की एकता को मजबूत करती हैं। एक ऐसा परिवेश रचती हैं जिसमें हिंदुस्तानी खुद को एक दूसरे के करीब पाते हैं।
यह कहना गलत है कि उर्दू किसी एक कौम की भाषा है। वह सबकी भाषा है। कृश्नचंदर, प्रेमचंद, कृष्णबिहारी नूर, रधुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, चकबस्त, लालचंद फलक, सत्यानंद शाकिर, गुलजार, उपेंद्र नाथ अश्क, चंद्रभान ख्याल, गोपीचंद नारंग जैसे तमाम लेखकों ने उर्दू को समृद्ध किया है। ऐसी एक लंबी सूची बनाई जा सकती है। इसी तरह आप देखें तो धर्म के आधार पर पाकिस्तान का विभाजन तो हुआ किंतु भाषा के नाम पर देश टूट गया और बांगलाभाषी मुसलमान भाईयों ने अपना अलग देश बांग्लादेश बना लिया। इसलिए यह सोच गलत है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें आज भी हिंदुस्तान की सांसें हैं। उसके तमाम बड़े कवि रहीम,रसखान ने देश की धड़कनों को आवाज दी है। हमारे सूफी संतों और कवियों ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। इसलिए भाषा के तौर पर इसे जिंदा रखना हमारा दायित्व है।
प्रमुख उर्दू अखबार सियासत (हैदराबाद) के संपादक अमीर अली खान का कहना है कि “ उर्दू अखबार सबसे ज्यादा धर्म निरपेक्ष होते हैं। उर्दू पत्रकारिता का अपना एक रुतबा है।” सेकुलर कयादत के संपादक कारी मुहम्मद मियां मोहम्मद मजहरी (दिल्ली) भी मानते हैं कि उर्दू पत्रकारिता गंगा-जमनी तहजीब की प्रतीक है। इसी तरह जदीद खबर, दिल्ली के संपादक मासूम मुरादाबादी का मानना है कि “जबानों का कोई मजहब नहीं होता, मजहब को जबानों की जरुरत होती है। किसी भी भाषा की आत्मा उसकी लिपि होती है जबकि उर्दू भाषा की लिपि मर रही है इसे बचाने की जरूरत है।”
ऐसे में अपनी भाषाओं और बोलियों को बचाना हमारा धर्म है। इसलिए मप्र की सरकार ने भोपाल में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना का फैसला किया है। इस बहाने हम हिंदी और इसकी तमाम बोलियों की रक्षा कर पाएंगें। हम देखें तो हमारे सारे बड़े कवि खड़ी बोली हिंदी के बजाए हमारे लोकजीवन में चल रही बोलियों से आते हैं। सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान सभी कवि बोलियों से ही आते हैं। इसलिए अंग्रेजी और अंग्रेजियत के हमलों के बीच हमें हमारी भाषाओं और बोलियों के बचाने के लिए सचेतन प्रयास करने चाहिए। यह हम सबका सामाजिक और नैतिक दायित्व है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश की आजादी के बाद कहा था दुनियावालों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है, पर हमने उनका रास्ता छोड़कर अपनी भाषाओं की उपेक्षा प्रारंभ कर दी। अब हमें फिर से एक बार अपनी जड़ों को जानने की जरूरत है।
- संजय द्विवेदी
यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य है कि उसकी राजधानी भोपाल से उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर सार्थक विमर्श की शुरूआत हुई है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल और इसके कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला इसके लिए बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने हिंदी ही नहीं भारतीय भाषा परिवार की सभी भाषाओं के विकास और उन्हें एकता के सूत्र में बांधने का लक्ष्य अपने हाथ में लिया है।
यह सुखद संयोग है कि गत 22 जनवरी को विश्वविद्यालय के परिसर में उर्दू भाषा पर संवाद हुआ और 23 जनवरी को भोपाल के शहीद भवन में भारतीय भाषाओं पर बातचीत हुयी। यह शुरूआत मध्यप्रदेश जैसे राज्य से ही हो सकती है, इसे यूं ही देश का ह्दय प्रदेश नहीं कहा जाता। मप्र का भोपाल एक ऐसा शहर है जहां हिंदी और उर्दू पत्रकारिता ही नहीं दोनों भाषाओं का साहित्य फला-फूला है। अपनी सांस्कृतिक विरासतों,भाषाओं व बोलियों का सहेजने का जो उपक्रम मध्यप्रदेश में हुआ है वैसा अन्य स्थानों पर नहीं दिखता।
उर्दू पत्रकारिताः चुनौतियां और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित इस सेमीनार में जुटे उर्दू संपादकों, पत्रकारों और अध्यापकों ने जो बातचीत की वह बताती है हमें उर्दू के विकास को एक खास नजर से देखने की जरूरत है और देश के विकास में उसका एक बड़ा योगदान सुनिश्चित किया जा सकता है। शायद इसीलिए पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग का कहते है कि “उर्दू अपने घर में ही बेगानी हो चुकी है। सियासत ने इन सालों में सिर्फ देश को तोड़ने का काम किया है। अब भारतीय भाषाओं का काम है कि वे देश को जोड़ने का काम करें।”
आजादी के आंदोलन में भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का खास योगदान रहा है। उसमें उर्दू पत्रकारिता अग्रणी रही है। लाला लाजपत राय जैसे हिंद समाचार के संस्थापक और क्रांतिकारियों ने इसे एक नई दिशा दी। अनेक अखबारों के संपादकों को जेल हुयी, यातनाएं दी गयीं। हिंदी के बड़े लेखक के रूप में जाने जाने वाले मुंशी प्रेमचंद की पहली किताब सोजे वतन को अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था। ऐसे संघर्षों से ही भाषा फली-फूली है। आजादी के आंदोलन की भाषा हिंदी और उर्दू रही है। इन दोनों भाषाओं के अखबारों ने जैसी अलख जगाई उसका एक इतिहास है। इन्होंने राजनीतिक जागरूकता लाने में एक अहम भूमिका निभाई। सामाजिक और राजनीतिक तौर पर समाज को जागृत करने में इन अखबारों की एक खास भूमिका रही है।
उर्दू ,भारत में पैदा हुयी भाषा है जिसका अपना एक शानदार इतिहास है। उसका साहित्य एक प्रेरक विषय है। देश के नामवर शायरों की वजह से दुनिया में हमारी एक पहचान बनी है। लेखकों ने हमें एक उँचाई दिलाई है। उर्दू मीडिया ने भी आजादी के बाद काफी तरक्की की है। नई प्रौद्योगिकी को अपनाने के बाद उर्दू के अखबारों को काफी ताकत मिली है। वे व्यापक कवरेज पर ध्यान दे रहे हैं। किंतु यह दुखद है कि नयी पीढ़ी में उर्दू के प्रति जागरूकता कम हो रही है। वह अब व्यापक रूप से संवाद की भाषा नहीं रह पा रही है।
नए समय में हमें अपनी भारतीय भाषाओं को बचाने की जरूरत है। उनके अच्छे साहित्य का अनुवाद करने की जरूरत है ताकि विविध भाषाओं में लिखे जा रहे अच्छे ज्ञान से हमारा अपरिचय न रह सके। हम एक दूसरे के बेहतर साहित्य से रूबरू हो सकें। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि उर्दू अखबारों की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है। खासकर पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र तथा देश के दक्षिणी हिस्से में उर्दू के अखबार लोकप्रिय हो रहे हैं। आज ये अखबार कहीं भी अंग्रेजी या भारतीय भाषाओं के मुकाबले कमजोर नहीं है। सहारा उर्दू रोजनामा (नई दिल्ली) के ब्यूरो चीफ असद रजा की राय में हिंदी व उर्दू पत्रकारिता करने के लिए दोनों भाषाओं को जानना चाहिए। उर्दू अखबारों को अद्यतन तकनीकी के साथ साथ अद्यतन विपणन ( लेटेस्ट मार्केटिंग) को भी अपनाना चाहिए।
तमाम समस्याओं के बीच भी उर्दू मीडिया की एक वैश्विक पहचान बन रही है। वह आज सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया की भाषा बन रही है। यह सौभाग्य ही है कि हिंदी, उर्दू , पंजाबी, मलयालम और गुजराती जैसी भाषाएं आज विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना रही है। दुनिया के तमाम देशों में रह रहे भारतवंशी अपनी भाषाओं के साथ हैं और भारत के समाचार पत्र और टीवी चैनल ही नहीं, फिल्में भी विदेशों में बहुत लोकप्रिय हैं। यह सारी भाषाएं मिलकर हिंदुस्तान की एकता को मजबूत करती हैं। एक ऐसा परिवेश रचती हैं जिसमें हिंदुस्तानी खुद को एक दूसरे के करीब पाते हैं।
यह कहना गलत है कि उर्दू किसी एक कौम की भाषा है। वह सबकी भाषा है। कृश्नचंदर, प्रेमचंद, कृष्णबिहारी नूर, रधुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, चकबस्त, लालचंद फलक, सत्यानंद शाकिर, गुलजार, उपेंद्र नाथ अश्क, चंद्रभान ख्याल, गोपीचंद नारंग जैसे तमाम लेखकों ने उर्दू को समृद्ध किया है। ऐसी एक लंबी सूची बनाई जा सकती है। इसी तरह आप देखें तो धर्म के आधार पर पाकिस्तान का विभाजन तो हुआ किंतु भाषा के नाम पर देश टूट गया और बांगलाभाषी मुसलमान भाईयों ने अपना अलग देश बांग्लादेश बना लिया। इसलिए यह सोच गलत है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें आज भी हिंदुस्तान की सांसें हैं। उसके तमाम बड़े कवि रहीम,रसखान ने देश की धड़कनों को आवाज दी है। हमारे सूफी संतों और कवियों ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। इसलिए भाषा के तौर पर इसे जिंदा रखना हमारा दायित्व है।
प्रमुख उर्दू अखबार सियासत (हैदराबाद) के संपादक अमीर अली खान का कहना है कि “ उर्दू अखबार सबसे ज्यादा धर्म निरपेक्ष होते हैं। उर्दू पत्रकारिता का अपना एक रुतबा है।” सेकुलर कयादत के संपादक कारी मुहम्मद मियां मोहम्मद मजहरी (दिल्ली) भी मानते हैं कि उर्दू पत्रकारिता गंगा-जमनी तहजीब की प्रतीक है। इसी तरह जदीद खबर, दिल्ली के संपादक मासूम मुरादाबादी का मानना है कि “जबानों का कोई मजहब नहीं होता, मजहब को जबानों की जरुरत होती है। किसी भी भाषा की आत्मा उसकी लिपि होती है जबकि उर्दू भाषा की लिपि मर रही है इसे बचाने की जरूरत है।”
ऐसे में अपनी भाषाओं और बोलियों को बचाना हमारा धर्म है। इसलिए मप्र की सरकार ने भोपाल में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना का फैसला किया है। इस बहाने हम हिंदी और इसकी तमाम बोलियों की रक्षा कर पाएंगें। हम देखें तो हमारे सारे बड़े कवि खड़ी बोली हिंदी के बजाए हमारे लोकजीवन में चल रही बोलियों से आते हैं। सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान सभी कवि बोलियों से ही आते हैं। इसलिए अंग्रेजी और अंग्रेजियत के हमलों के बीच हमें हमारी भाषाओं और बोलियों के बचाने के लिए सचेतन प्रयास करने चाहिए। यह हम सबका सामाजिक और नैतिक दायित्व है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश की आजादी के बाद कहा था दुनियावालों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है, पर हमने उनका रास्ता छोड़कर अपनी भाषाओं की उपेक्षा प्रारंभ कर दी। अब हमें फिर से एक बार अपनी जड़ों को जानने की जरूरत है।
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