Tuesday, November 29, 2011

ममता को सराहौं या सराहौं रमन सिंह को


नक्सलवाद के पीछे खतरनाक इरादों को कब समझेगा देश
-संजय द्विवेदी
नक्सलवाद के सवाल पर इस समय दो मुख्यमंत्री ज्यादा मुखर होकर अपनी बात कह रहे हैं एक हैं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और दूसरी प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। अंतर सिर्फ यह है कि रमन सिंह का स्टैंड नक्सलवाद को लेकर पहले दिन से साफ था, ममता बनर्जी अचानक नक्सलियों के प्रति अनुदार हो गयी हैं। सवाल यह है कि क्या हमारे सत्ता में रहने और विपक्ष में रहने के समय आचरण अलग-अलग होने चाहिए। आप याद करें ममता बनर्जी ने नक्सलियों के पक्ष में विपक्ष में रहते हुए जैसे सुर अलापे थे क्या वे जायज थे?
मुक्तिदाता कैसे बने खलनायकः आज जब इस इलाके में आतंक का पर्याय रहा किशन जी उर्फ कोटेश्वर राव मारा जा चुका है तो ममता मुस्करा सकती हैं। झाड़ग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ों की जान लेने वाला यह खतरनाक नक्सली अगर मारा गया है तो एक भारतीय होने के नाते हमें अफसोस नहीं करना चाहिए।सवाल सिर्फ यह है कि कल तक ममता की नजर में मुक्तिदूत रहे ये लोग अचानक खलनायक कैसे बन गए। दरअसल यही हमारी राजनीति का असली चेहरा है। हम राजनीतिक लाभ के लिए खून बहा रहे गिरोहों के प्रति भी सहानुभूति जताते हैं और साथ हो लेते हैं। केंद्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ ममता की टिप्पणियों को याद कीजिए। पर अफसोस इस देश की याददाश्त खतरनाक हद तक कमजोर है। यह स्मृतिदोष ही हमारी राजनीति की प्राणवायु है। हमारी जनता का औदार्य, भूल जाओ और माफ करो का भाव हमारे सभी संकटों का कारण है। कल तक तो नक्सली मुक्तिदूत थे, वही आज ममता के सबसे बड़े शत्रु हैं । कारण यह है कि उनकी जगह बदल चुकी है। वे प्रतिपक्ष की नेत्री नहीं, एक राज्य की मुख्यमंत्री जिन पर राज्य की कानून- व्यवस्था बनाए रखने की शपथ है। वे एक सीमा से बाहर जाकर नक्सलियों को छूट नहीं दे सकतीं। दरअसल यही राज्य और नक्सलवाद का द्वंद है। ये दोस्ती कभी वैचारिक नहीं थी, इसलिए दरक गयी।
राजनीतिक सफलता के लिए हिंसा का सहाराः नक्सली राज्य को अस्थिर करना चाहते थे इसलिए उनकी वामपंथियों से ठनी और अब ममता से उनकी ठनी है। कल तक किशनजी के बयानों का बचाव करने वाली ममता बनर्जी पर आरोप लगता रहा है कि वे राज्य में माओवादियों की मदद कर रही हैं और अपने लिए वामपंथ विरोधी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही हैं लेकिन आज जब कोटेश्वर राव को सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में मार गिराया है तो सबसे बड़ा सवाल ममता बनर्जी पर ही उठता है। आखिर क्या कारण है कि जिस किशनजी का सुरक्षा बल पूरे दशक पता नहीं कर पाये वही सुरक्षाबल चुपचाप आपरेशन करके किशनजी की कहानी उसी बंगाल में खत्म कर देते हैं, जहां ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं? कल तक इन्हीं माओवादियों को प्रदेश में लाल आतंक से निपटने का लड़ाका बतानेवाली ममता बनर्जी आज कोटेश्वर राव के मारे जाने पर बयान देने से भी बच रही हैं। यह कथा बताती थी सारा कुछ इतना सपाट नहीं है। कोटेश्लर राव ने जो किया उसका फल उन्हें मिल चुका है, किंतु ममता का चेहरा इसमें साफ नजर आता है- किस तरह हिंसक समूहों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने राजनीतिक सफलताएं प्राप्त कीं और अब नक्सलियों के खिलाफ वे अपनी राज्यसत्ता का इस्तेमाल कर रही हैं। निश्चय ही अगर आज की ममता सही हैं, तो कल वे जरूर गलत रही होंगीं। ममता बनर्जी का बदलता रवैया निश्चय ही राज्य में नक्सलवाद के लिए एक बड़ी चुनौती है, किंतु यह उन नेताओं के लिए एक सबक भी है जो नक्सलवाद को पालने पोसने के लिए काम करते हैं और नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं।
छत्तीसगढ़ की ओर देखिएः यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि देश के मुख्यमंत्रियों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने इस समस्या को इसके सही संदर्भ में पहचाना और केंद्रीय सत्ता को भी इसके खतरों के प्रति आगाह किया। नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच समन्वित अभियान की बात भी उन्होंने शुरू की। इस दिशा परिणाम को दिखाने वाली सफलताएं बहुत कम हैं और यह दिखता है कि नक्सलियों ने निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार ही किया है। किंतु इतना तो मानना पड़ेगा कि नक्सलियों के दुष्प्रचार के खिलाफ एक मजबूत रखने की स्थिति आज बनी है। नक्सलवाद की समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या कहकर इसके खतरों को कम आंकने की बात आज कम हुयी है। डा. रमन सिंह का दुर्भाग्य है कि पुलिसिंग के मोर्चे पर जिस तरह के अधिकारी होने चाहिए थे, उस संदर्भ में उनके प्रयास पानी में ही गए। छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक पुलिस महानिदेशक रहे एक आला अफसर, गृहमंत्री से ही लड़ते रहे और राज्य में नक्सली अपना कार्य़ विस्तार करते रहे। कई बार ये स्थितियां देखकर शक होता था कि क्या वास्तव में राज्य नक्सलियों से लड़ना चाहता है ? क्या वास्तव में राज्य के आला अफसर समस्या के प्रति गंभीर हैं? किंतु हालात बदले नहीं और बिगड़ते चले गए। ममता बनर्जी की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने सत्ता में आते ही अपना रंग बदला और नए तरीके से सत्ता संचालन कर रही हैं। वे इस बात को बहुत जल्दी समझ गयीं कि नक्सलियों का जो इस्तेमाल होना था हो चुका और अब उनसे कड़ाई से ही बात करनी पड़ेगी। सही मायने में देश का नक्सल आंदोलन जिस तरह के भ्रमों का शिकार है और उसने जिस तरह लेवी वसूली के माध्यम से अपनी एक समानांतर अर्थव्यवस्था बना ली है, देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। संकट यह है कि हमारी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कोई रास्ता तलाशने के बजाए विभ्रमों का शिकार है। नक्सल इलाकों का तेजी से विकास करते हुए वहां शांति की संभावनाएं तलाशनी ही होंगीं। नक्सलियों से जुड़े बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का सृजन कर रहे हैं। वे खून बहाते लोगों में मुक्तिदाता और जनता के सवालों पर जूझने वाले सेनानी की छवि देख सकते हैं किंतु हमारी सरकार में आखिर किस तरह के भ्रम हैं? हम चाहते क्या हैं? क्या इस सवाल से जूझने की इच्छाशक्ति हमारे पास है?
देशतोड़कों की एकताः सवाल यह है कि नक्सलवाद के देशतोड़क अभियान को जिस तरह का वैचारिक, आर्थिक और हथियारों का समर्थन मिल रहा है, क्या उससे हम सीधी लडाई जीत पाएंगें। इस रक्त बहाने के पीछे जब एक सुनियोजित विचार और आईएसआई जैसे संगठनों की भी संलिप्पता देखी जा रही है, तब हमें यह मान लेना चाहिए कि खतरा बहुत बड़ा है। देश और उसका लोकतंत्र इन रक्तपिपासुओं के निशाने पर है। इसलिए इस लाल रंग में क्रांति का रंग मत खोजिए। इनमें भारतीय समाज के सबसे खूबसूरत लोगों (आदिवासियों) के विनाश का घातक लक्ष्य है। दोनों तरफ की बंदूकें इसी सबसे सुंदर आदमी के खिलाफ तनी हुयी हैं। यह खेल साधारण नहीं है। सत्ता,राजनीति, प्रशासन,ठेकेदार और व्यापारी तो लेवी देकर जंगल में मंगल कर रहे हैं किंतु जिन लोगों की जिंदगी हमने नरक बना रखी है, उनकी भी सुध हमें लेनी होगी। आदिवासी समाज की नैसर्गिक चेतना को समझते हुए हमें उनके लिए, उनकी मुक्ति के लिए नक्सलवाद का समन करना होगा। जंगल से बारूद की गंध, मांस के लोथड़ों को हटाकर एक बार फिर मांदर की थाप पर नाचते-गाते आदिवासी, अपना जीवन पा सकें, इसका प्रयास करना होगा। आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप कर रहे नक्सली दरअसल एक बेहद प्रकृतिजीवी और सुंदर समाज के जीवन में जहर घोल रहे हैं। जंगलों के राजा को वर्दी पहनाकर और बंदूके पकड़ाकर आखिर वे कौन सा समाज बनना चाहते हैं, यह समझ से परे है। भारत जैसे देश में इस कथित जनक्रांति के सपने पूरे नहीं हो सकते, यह उन्हें समझ लेना चाहिए। ममता बनर्जी ने इसे देर से ही सही समझ लिया है किंतु हमारी मुख्यधारा की राजनीति और देश के कुछ बुद्धिजीवी इस सत्य को कब समझेंगें, यह एक बड़ा सवाल है।

Friday, November 25, 2011

आखिर देश कहां जा रहा है ?


देश के खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों को सौंपना एक जनविरोधी कदम
- संजय द्विवेदी
या तो हमारी राजनीति बहुत ज्यादा समझदार हो गयी है या बहुत नासमझ हो गयी है। जिस दौर में अमरीकी पूंजीवाद औंधे मुंह गिरा हुआ है और वालमार्ट के खिलाफ दुनिया में आंदोलन की लहर है,यह हमारी सरकार ही हो सकती है ,जो रिटेल में एफडीआई के लिए मंजूरी देने के लिए इतनी आतुर नजर आए। राजनेताओं पर थप्पड़ और जूते बरस रहे हैं पर वे सब कुछ सहकर भी नासमझ बने हुए हैं। पैसे की प्रकट पिपासा क्या इतना अंधा और बहरा बना देती है कि जनता के बीच चल रही हलचलों का भी हमें भान न रह जाए। जनता के बीच पल रहे गुस्से और दुनिया में हो रहे आंदोलनों के कारणों को जानकर भी कैसे हमारी राजनीति उससे मुंह चुराते हुए अपनी मनमानी पर आमादा हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है.
महात्मा गांधी का रास्ता सालों पहले छोड़कर पूंजीवाद के अंधानुकरण में लगी सरकारें थप्पड़ खाते ही गांधी की याद करने लगती हैं। क्या इन्हें अब भी गांधी का नाम लेने का हक है? हमारे एक दिग्गज मंत्री दुख से कहते हैं “पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?” आप देश को लूटकर खाते रहें और देश की जनता में किसी तरह की प्रतिक्रिया न हो, फिर एक लोकतंत्र में होने के मायने क्या हैं ? अहिंसक प्रतिरोधों से भी सरकारें ‘ओबामा के लोकतंत्र’ की तरह ही निबट रही हैं। बाबा रामदेव का आंदोलन जिस तरह कुचला गया, वह इसकी वीभत्स मिसाल है। लोकतंत्र में असहमतियों को अगर इस तरह दबाया जा रहा है तो इसकी प्रतिक्रिया के लिए भी लोगों को तैयार रहना चाहिए।
रिटेल में एफडीआई की मंजूरी देकर केंद्र ने यह साबित कर दिया है कि वह पूरी तरह एक मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने पर आमादा है। देश के 30 लाख करोड़ रूपए के रिटेल कारोबार पर विदेशी कंपनियों की नजर है। कुल मिलाकर यह भारतीय खुदरा बाजार और छोटे व्यापारियों को उजाड़ने और बर्बाद करने की साजिश से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मंदी की शिकार अर्थव्यवस्थाएं अब भारत के बाजार में लूट के लिए निगाहें गड़ाए हुए हैं। अफसोस यह कि देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए रोजगार सृजन के लिए यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। नौकरियों के लिए सिकुड़ते दरवाजों के बीच सरकार अब निजी उद्यमिता से जी रहे समाज के मुंह से भी निवाला छीन लेना चाहती है। कारपोरेट पर मेहरबान सरकार अगर सामान्य जनों के हाथ से भी काम छीनने पर आमादा है, तो भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगें, इसे सोचा जा सकता है।
खुदरा व्यापार से जी रहे लाखों लोग क्या इस सरकार और लोकतंत्र के लिए दुआ करेंगें ? लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए एक लोकतंत्र इतना आतुर कैसे हो सकता है ? देश की सरकार क्या सच में अंधी-बहरी हो गयी है? सरकार परचून की दुकान पर भी पूंजीवाद को स्थापित करना चाहती है, तो इसके मायने बहुत साफ हैं कि यह जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार भले है, किंतु विदेशी हितों के लिए काम करती है। क्या दिल्ली जाते ही हमारा दिल और दिमाग बदल जाता है, क्या दिल्ली हमें अमरीका का चाकर बना देती है कि हम जनता के एजेंडे को भुला बैठते हैं। कांग्रेस की छोड़िए दिल्ली में जब भाजपा की सरकार आयी तो उसने प्रिंट मीडिया में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए। क्या हमारी राजनीति में अब सिर्फ झंडों का फर्क रह गया है। हम चाहकर अपने लोकतंत्र की इस त्रासदी पर विवश खड़े हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शायद इसीलिए लिखते है-
‘दिल्ली हमका चाकर कीन्ह,
दिल-दिमाग भूसा भर दीन्ह।’
याद कीजिए वे दिन जब हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमरीका से परमाणु करार के लिए अपनी सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। किंतु उनका वह पुरूषार्थ, जनता के महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर हवा हो जाता है। सही मायने में उसी समय मनमोहन सिंह पहली और अंतिम बार एक वीरोचित भाव में दिखे थे क्योंकि उनके लिए अमरीकी सरकार के हित, हमारी जनता के हित से बड़े हैं। यह गजब का लोकतंत्र है कि हमारे वोटों से बनी सरकारें विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करती हैं।
राहुल गांधी की गरीब समर्थक छवियां क्या उनकी सरकार की ऐसी हरकतों से मेल खाती हैं। देश के खुदरा व्यापार को उजाड़ कर वे किस ‘कलावती’ का दर्द कम करना चाहते हैं, यह समझ से परे है। देश के विपक्षी दल भी इन मामलों में वाचिक हमलों से आगे नहीं बढ़ते। सरकार जनविरोधी कामों के पहाड़ खड़े कर रही है और संसद चलाने के लिए हम मरे जा रहे हैं। जिस संसद में जनता के विरूद्ध ही साजिशें रची जा रही हों, लोगों के मुंह का निवाला छीनने की कुटिल चालें चली जा रही हों, वह चले या न चले इसके मायने क्या हैं ? संसद में बैठे लोगों को सोचना चाहिए कि क्या वे जनाकांक्षाओं का प्रकटीकरण कर रहे हैं ? क्या उनके द्वारा देश की आम जनता के भले की नीतियां बनाई जा रही हैं? गांधी को याद करती राजनीति को क्या गांधी का दिया वह मंत्र भी याद है कि जब आप कोई भी कदम उठाओ तो यह सोचो कि इसका देश के आखिरी आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सही मायने में देश की राजनीति गांधी का रास्ता भूल गई है, किंतु जब जनप्रतिरोध हिंसक हो उठते हैं तो वह गांधी और अहिंसा का मंत्र जाप करने लगती है। देश की राजनीति के लिए यह सोचने का समय है कि कि देश की विशाल जनसंख्या की समस्याओं के लिए उनके पास समाधान क्या है? क्या वे देश को सिर्फ पांच साल का सवाल मानते हैं, या देश उनके लिए उससे भी बड़ा है? अपनी झोली भरने के लिए सरकार अगर लोगों के मुंह से निवाला छीनने वाली नीतियां बनाती है तो हमें डा. लोहिया की याद आती है, वे कहते थे- “जिंदा कौमें पांच तक इंतजार नहीं करती। ” सरकार की नीतियां हमें किस ओर ले जा रही हैं, यह हमें सोचना होगा। अगर हम इस सवाल का उत्तर तलाश पाएं तो शायद प्रणव बाबू को यह न कहने पड़े कि “पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?”