Monday, March 29, 2010

विश्व मंच पर पहचान बना रही हैं भारतीय ललित कलाएं

देर से ही सही भारतीय ललित कलाएं विश्व की कला दुनिया में अपनी जगह बना रही हैं। शास्त्रीय संगीत और नृत्य से शुरुआत तो हुई पर अब चित्रकला की दुनिया में भी भारत की पहल को स्वागतभाव से देखा जा रहा है। सतत जिद और जिजीविषा के चलते भारतीय कलाकारों की यह सफलता हमारे गर्व करने का विषय है। आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास लगभग डेढ़ शताब्दी पुराना है जब मद्रास, कलकत्ता, मुंबई और लाहौर में कला विद्यालय खोले गए। तब की शुरुआत को अपेक्षित गरिमा और गंभीरता मिली राजा रवि वर्मा के काम से। वे सही अर्थों में भारतीय चित्रकला के जन्मदाता कहे जा सकते हैं । केरल के किली मन्नूर नामक एक गांव में 29 अप्रैल, 1848 को जन्में राजा रवि वर्मा के आलोचकों ने भले ही उनकी ‘कैलेंडर आर्टिस्ट’ कहकर आलोचना की हो परंतु पौराणिक कथाओं के आधार पर बने चित्र व पोट्रेट उनकी पहचान बन गए। हेवेल और अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने 19 वीं सदी के आखिरी दशक में गंभीर और उल्लेखनीय काम किया, जिसे, ‘बंगाल स्कूल’ के नाम से भी संबोधित किया गया। बाद में रवीद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल से होती हुई यह पंरपरा मकबूल फिदा हुसैन, सैयद हैदर रजा, नारायण श्रीधर वेन्द्रे, फ्रांसिस न्यूटन सूजा, वी.एस. गायतोंडे, गणेश पाइन, के.जी. सुब्रह्मण्यम, गुलाम मोहम्मद शेख, के. सी. ए. पाणिक्कर, सोमनाथ होर, नागजी पटेल, मनु पारेख, लक्ष्मा गौड़, विकास भट्टाचार्य, मनजीत बावा, रामकिंकर बैज, सतीश गुजराल, जगदीश स्वामीनाथन, रामकुमार और कृष्ण रेड्डी तक पहुँची । जाहिर है, इस दौर में भारतीय कला ने न सिर्फ नए मानक गढ़े, वरन् वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपना सार्थक हस्तक्षेप भी किया। विदेशों में जहां पहले भारतीय पारंपरिक कला की मांग थी और उनका ही बाजार था। अब गणित उलट रहा है। विदेशी कलाबाजार में भारतीय कलाकारों की जगह बनी है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला के सामने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में कायम रहने की चुनौती है, वरन अपने लिए बाजार की तलाश भी करनी है। बाजार शब्द से वैसे भी कला-संस्कृति क्षेत्रों के लोग चौंक से उठते हैं । न जाने क्यों यह माना जाने लगा है कि बाजार और सौंदर्यशास्त्र एक दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन देखा जाए तो चित्र बनना और बेचना एक-दूसरे से जुड़े कर्म हैं । इनमें विरोध का कोई रिश्ता नहीं दिखता । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस रिश्ते के चलते क्या कला तो प्रभावित नहीं हो रही ? उसकी स्वाभाविकता एवं मौलिकता तो नष्ट नहीं हो रही, या बाजार के दबाव में कलाकार की सृजनशीलता तो प्रभावित नहीं हो रही ? वैसे भी कलाओं के प्रति आम भारतीय समाज में किसी प्रकार का उत्साह नहीं दिखता । बहुत हद तक समझ का भी अभाव दिखता है। सो प्रायोजित चर्चाओं के अलावा कला के बजाय कलाकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज्यादा बातें छापी और कहीं जाती हैं। अंग्रेजी अखबार जो प्रायः इस प्रकार के कलागत रूझानों की बात तो करते हैं, किंतु उनमें भी कला की समीक्षा, उसके, रचनाकर्म या विश्व कला परिदृश्य में उस कृति की जगह के बजाय कलाकार के खान-पान की पसंदों उसके दोस्तों-दुश्मनों, प्रेमिकाओं, कपड़ों की समीक्षा ज्यादा रहती है। मकबूल फिदा हुसैन को लेकर ऐसी चर्चाएं प्रायः बाजार को गरमाए रहती हैं। ‘माधुरी प्रसंग’ को इस नजरिए से देखा जा सकता है। आज ऐसे कलाकार कम दिखते हैं जो अपने कलालोक में डूबे रहते हों - प्रचार पाना या प्रचार को प्रायोजित कराना कलाकार की विवशता बनता जा रहा है। कुछ साल पहले कलाकार अंजली इला मेमन ने अपने जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में एक स्त्री के धड़ के रूप में बना केक काटा। इससे वे क्या साबित करना चाहती हैं, वे ही जाने पर ‘प्रचार की भूख’ इससे साफ झांकती है।कला प्रदर्शनियों के उद्घाटन में भी कभी-कभी ऐसे दृश्य दिखते हैं, जैसे कोई पार्टी हो। इन पार्टियों में हाथ में जाम लिए सुंदर कपड़ों में सजे-सधे कला प्रेमियों की पीठ ही दीवार पर टंगी कलाकृतियों की ओर रहती है। इस उत्सव धर्मिता ने नए रूप रचे हैं। पत्र-पत्रिकाओं का रुझान भी कला संबंधी गंभीर लेखन की बजाय हल्के-फुल्के लेखन की ओर है । कुछ कलाकार मानते हैं कि पश्चिम में भारतीय कलाकारों की बढ़ती मांग के पीछे अनिवासी भारतीयों का एक बड़ा वर्ग भी है, जो दर्शक ही नहीं कला का खरीददार भी है । लेकिन सैयद हैदर रजा जैसे कलाकार इस मांग के दूसरे कारण भी बताते हैं। वे मानते हैं कि पश्चिम की ज्यादातक कला इस समय कथ्यविहीन हो गयी है। उनके पास कहने को बहुत कुछ नहीं है । प्रख्यात कवि आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘स्वयं पश्चिम में आधुनिकता थक-छीज गई है और उत्तर आधुनिकता ने पश्चिम को बहुकेंद्रिकता की तलाश के लिए विवश किया है। पश्चिम की नजर फिर इस ओर पड़ी है कि भारत सर्जनात्मकता का एक केंद्र है।’ सही अर्थों में भारतीय कला में भी अपनी जड़ों का अहसास गहरा हुआ है और उसने निरंतर अपनी परंपरा से जुड़कर अपना परिष्कार ही किया है। सो भारतीय समाज में कला की पूछताछ बढ़ी है। ज्यादा सजगता और तैयारी के साथ चीजों को नए नजरिए से देखने का रुझान बढ़ा है। कला का फलक बहुत विस्तृत हुआ है। इतिहास, परंपरा से लेकर मन के झंझावतों की तमाम जिज्ञासाएं कैनवास पर जगह पा रही हैं। बाजारवाद के ताजा दौर ने दुनिया की खिड़किंयां खोली हैं। इसके नकारात्मक प्रभावों से बचकर यदि भारतीय कला अपनी जिद और जिजीविषा को बचाए और बनाए रख सकी तो उसकी रचनात्मकता के प्रति सम्मान बढ़ेगा ही और वह सकारात्मक ढंग से अभिव्यक्ति पा सकेगी।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
- संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
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Friday, March 19, 2010

मुसाफिर हूं यारों


- संजय द्विवेदी
काले अक्षरों से कागज रंगते, टेबल पर झुके हुए कब चौदह कैलेंडर बीते पता ही नहीं चला...इस बीच कलम थामकर कागज पर खेलने वाली उंगलियां की-बोर्ड पर थिरकने लगीं। प्रदेश और शहर बदलते गए, अखबार भी बदलते गए, अगर कुछ नहीं बदला तो वह थी इस कलम के साथ जुड़ी एक जिम्मेदारी। जिसकी धुन में जिंदगी की सबसे अहम चीज फुरसत छिन गई और खबरों के बीच ही बाकी की जिंदगी सोते, जागते, उठते, बैठते, खाते, पीते गुजरती है...एक शायर के इस शेर की तरह-

'अब तो ये हालत है कि जिंदगी के रात-दिन,

सुबह मिलते हैं मुझे अखबार में लिपटे हुए
बस्ती : ये जो मेरी बस्ती है...
उत्तर प्रदेश के एक बहुत पिछड़े जिले बस्ती का जिक्र अक्सर बाढ़ या सूखे के समय खबरों में आता है। लगभग उद्योग शून्य और मुंबई, दिल्ली या कोलकाता में मजदूरी कर जीवनयापन कर रहे लोगों के द्वारा भेजे जाने वाले 'मनीआर्डर इकानामी पर यह पूरा का पूरा इलाका जिंदा है। बस्ती शहर से लगकर बहती हुई कुआनो नदी वैसे तो देखने में बहुत ही निर्मल और सहिष्णु लगती है, पर बाढ़ के दिनों में इसकी विकरालता न जाने कितने गांव, खेत और मवेशियों को अपनी लपेट में लेती है, कहा नहीं जा सकता। बस्ती जहां खत्म होता है, वहीं से अयोध्या शुरू होता है। अयोध्या और बस्ती के बीच बहने वाली सरयू नदी लगभग वही करिश्मा करती है, जो कुआनो। इसके लंबे पाट पर कितने खेत, कितने गांव और कितने मवेशी हर साल बह जाते हैं जिन्हें देखते हुए आंखें पथरा सी गई हैं। हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का कविता संग्रह 'कुआनो नदी इन्हीं विद्रूपताओं के आसपास घूमता है। सर्वेश्वर इस इलाके की गरीबी, बदहाली और दैनंदिन जीवन के संघर्ष से जूझती हुई जनता के आत्मविश्वास को रेखांकित करना नहीं भूलते। वे एक कविता में लिखते हैं- गांव के मेले में पनवाड़ी की दुकान का शीशा जिस पर इतनी धूल जम गई है कि अब कोई अक्स दिखाई नहीं देता।
सर्वेश्वर की यह कविता इस पहचानविहीन इलाके को बहुत अच्छी तरह से अभिव्यक्त करती है। यह वही शहर है, जहां मैं पैदा तो नहीं हुआ पर मेरा बचपन इसी शहर में बीता। इस शहर ने मुझे चीजों को देखने का नजरिया, लोगों को समझने की दृष्टि और वह पहचान दी, जिसे लेकर मैं कहीं भी जा सकता था और अपनी अलग 'बस्ती बसा सकता था। बस्ती मेरी आंखों के सामने जैसा भी रहा हो, लेकिन आजादी के बहुत पहले जब भारतेंदु हरिश्चंद्र एक बार बस्ती आए तो उन्होंने बस्ती को देखकर कहा- 'बस्ती को बस्ती कहौं, तो काको कहौं उजाड़। आज का बस्ती जाहिर है उस तरह का नहीं है। एक लंबी सी सड़क और उसके आसपास ढेर सारी सड़कें उग आई हैं। कई बड़े भवन भी दिखते हैं। कुछ चमकीले शोरूम भी। बस्ती बदलती दुनिया के साथ बदलने की सचेतन कोशिश कर रहा है। बस्ती एक ऐसी जगह है, जो प्रथमदृष्टया किसी भी तरह से आकर्षण का केंद्र नहीं है। कुआनो नदी भी बरसात के मौसम को छोड़कर बहुत दयनीय दिखती है, लेकिन साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में यहां के साहित्यकारों, पत्रकारों ने जो जगह बनाई है उससे बस्ती मुग्ध होते रहती है। हिंदी के समालोचना सम्राट आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जन्मभूमि अगौना इसी जिले में है। यह एक ऐसा साहित्यिक तीर्थ है, जिस पर बार-बार सिर झुकाने का मन होता है। बस्ती शहर से बहुत थोड़ी दूर पर ही मगहर नाम की वह जगह है, जहां संत कबीर ने अपनी देह त्यागी थी। मगहर को कबीर ने क्यों चुना? यह वजह लगभग सब जानते हैं कि काशी में मरने से मोक्ष मिलता है। कबीर ने इस अंधश्रध्दा को तोड़ने के लिए मगहर का चयन किया था। कबीर का कहना था कि- 'यदि मैं काशी में मरता हूं और मुझे मोक्ष मिल जाता है, तो इसमें राम को क्या श्रेय। इसीलिए कबीर अपनी मृत्यु के लिए मगहर को चुनते हैं। हमें पता है कबीर की मृत्यु के बाद मगहर में उनके पार्थिव शरीर को लेकर एक अलग तरह का संघर्ष छिड़ गया। मुसलमान उन्हें दफनाना चाहते थे, तो हिंदू उनका हिंदू रीति से अंतिम क्रियाकर्म करना चाहते थे। इस संघर्ष में जब लोग कबीर के शव के पास जाते हैं, तो वहां उनका शव नहीं होता, कुछ फूल पड़े होते हैं। हिंदू-मुसलमान इन फूलों को बांट लेते हैं और अपने-अपने धर्म के रीति-रिवाज के अनुसार इन फूलों का ही अंतिम संस्कार कर देते हैं। वहीं पर मंदिर और मस्जिद अगल-बगल एक साथ बनाए जाते हैं। एकता का यह स्मारक आज भी हमें प्रेरणा देता है। यह एक संयोग ही है कि छत्तीसगढ़ के लोक गायक भारती बंधु मगहर में प्रतिवर्ष होने वाले मगहर महोत्सव में कबीर का गान करके लौटे हैं। बस्ती शहर में भी उन्हें सुना गया। कबीर इस तरह से आज भी विविध संस्कृतियों और प्रदेशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र बने हुए हैं। फिर बाद के दौर में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डा. लक्ष्मीनारायण लाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, डा. वागीश शुक्ल, डा. माहेश्वर तिवारी, श्याम तिवारी, अष्टभुजा शुक्ल, अल्पना मिश्र जैसे कई ऐसे नाम हैं, जिन्होंने बस्ती को एक अलग पहचान दी है। यह अलग बात है कि रोजी-रोटी की तलाश में इनमें से ज्यादातर तो बड़े शहरों में ही अपना आशियाना बनाने के लिए चले गए और वहां उन्हें जो पहचान मिली उसने बस्ती को गौरव तो दिया, किंतु बस्ती का बस्ती ही रहा। सिर्फ और सिर्फ अष्टभुजा शुक्ल आज की पीढ़ी में एक ऐसे कवि हैं, जो आज भी सुदूर दीक्षापार नामक गांव में रहकर साहित्य साधना में लगे हैं। इसी शहर में बारहवीं तक की पढ़ाई के बाद मुझे भी उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ जाना पड़ा। यह एक संयोग ही है कि इस इलाके के ज्यादातर लोग उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। बचे-खुचे बनारस चले जाते हैं, पर जाने क्या हुआ कि मेरा प्रवेश लखनऊ विश्वविद्यालय में करवाया गया। शायद इसका कारण यह भी रहा हो कि मेरे पिता लखनऊ विश्वविद्यालय के ही छात्र थे। इस नाते उस विश्वविद्यालय से उनका राग थोड़ा गहरा रहा होगा। लखनऊ में गुजरे तीन साल छात्र आंदोलनों में मेरी अति सक्रियता के चलते लगभग उल्लेखनीय नहीं हैं। कालेज की पढ़ाई से लगभग रिश्ता विद्यार्थी का कम और परीक्षार्थी का ही ज्यादा रहा। जैसे-तैसे बीए की डिग्री तो मिल गई, लेकिन कैरियर को लेकर चिंताएं शुरू हो गईं। इस बीच कुछ समय के लिए बनारस भी रहना हुआ, और यहां मन में कहीं यह इच्छा भी रही कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई की जाए।

बनारस : आत्मा में उतरे राग-रंग
काशी में रहते हुए ऐसा बनारसी रंग चढ़ा, जो सिर चढ़कर बोलता था। छात्र आंदोलनों से जुड़ा होने के नाते कई छात्र नेता और नेता अपने मित्रों की सूची में थे। यहां उस समय बीएचयू के अध्यक्ष रहे देवानंद सिंह और महामंत्री सिध्दार्थ शेखर सिंह से लेकर प्रदीप दुबे, जेपीएस राठौर, राजकुमार चौबे, दीपक अग्रवाल और मनीष खेमका जैसे न जाने कितने दोस्त बन गए। इनमें मैं अपने उस समय संरक्षक रहे डा. सुरेश अवस्थी को नहीं भूल सकता। वे बीएचयू में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक थे। हम उनके सामने बहुत बच्चे थे, लेकिन उन्होंने हमें जिस तरह अपना प्यार और संरक्षण दिया, उसे भुलाना मुश्किल है। वे प्राय: अपने चौक स्थित घर पर हमें बुलाते, सिर्फ बुलाते ही नहीं इतना खिलाते कि उनकी बातों का रस और बढ़ जाता। उनकी धर्मपत्नी इतनी सहज और स्नेहिल थीं कि सुरेशजी का घर हमें अपना सा लगने लगा। अब सुरेश जी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी बातें, बनारस को लेकर उनका राग आज भी याद आता है। वे सही मायने में बनारस को जीने वाले व्यक्ति थे। बनारस उनकी आत्मा में उतर गया था। लगातार सिगरेट पीते हुए, बनारस और बनारस वालों की बातें बताते डा. अवस्थी एक ऐसे कथावाचक में तब्दील हो जाते, जिसको सुनना और उन बातों से सम्मोहित हो जाना बहुत आसान था। इसी दौरान मेरे साथ अजीत कुमार और राजकुमार से जो रिश्ते बने, वो आज तक जिंदा हैं। बनारस की अपनी एक मस्ती है। शहर के किनारे बहती हुई गंगा नदी आमंत्रण सी देती है और उसके आसपास बहने वाली हवाएं एक अजीब सा संतोष भी देती हैं। जीवन और मृत्यु दोनों को बहुत करीब से देखने वाला यह शहर वास्तव में भोलेबाबा की नगरी क्यों कहा जाता है यह अहसास यहां रहकर ही हो सकता है। बनारस आप में धीरे-धीरे उतरता है, ठीक भांग की गोली की तरह। बनारस के अस्सी इलाके में चाय की दुकानों पर अनंत बहसों का आकाश है, जहां अमेरिका के चुनाव से लेकर वीपी सिंह के आरक्षण तक पर चिंताएं पसरी रहती थीं। बहसों का स्तर भी इतना उच्च कि ऐसा लगता है कि यह चर्चाएं अभी मारपीट में न बदल जाएं। बनारस आपको अपने प्रति लापरवाह भी बनाता है। यह बहुत बदलने के बाद भी आज भी अपनी एक खास बोली और खनक के साथ जीता हुआ शहर है। इस शहर ने मुझे ढेर सारे दोस्त तो दिए ही, चीजों को एक अलग और विलक्षण दृष्टि से विश्लेषित करने का साहस भी दिया। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जहां वर्षभर प्रवेश और वर्षभर परीक्षाएं होती हैं। जिसका श्रेय वहां की छात्र राजनीति को ही ज्यादा है। बड़ी मुश्किल से अभी कुछ विश्वविद्यालयों के सत्र नियमित हुए हैं, वरना हालात तो यह थे कि कुछ विश्वविद्यालयों में सत्र चार वर्ष तक पीछे चल रहे थे। ऐसे हालात में मैंने बीएचयू के साथ ही भोपाल में खुले माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के लिए भी आवेदन कर दिया। बीएचयू से पहले माखनलाल का प्रवेश परीक्षा का परिणाम आ गया और इस तरह मैं भोपाल चला आया। जब बीएचयू के प्रवेश परीक्षा के परिणाम आए तब तक माखनलाल का सत्र तीन माह आगे निकल चुका था। यहां पड़े रहना एक विवशता भी थी और जरूरत भी।


कलम लियो जहां हाथ
जब मैं पहली बार भोपाल स्टेशन उतरा, तो मुझे लेने के लिए पत्रकारिता विश्वविद्यालय में मेरे सीनियर रहे और पत्रकार ऋतेंद्र माथुर आए थे। उनकी कृपा से मुझे भोपाल में किसी तरह का कोई कष्ट नहीं हुआ। वे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के छात्र रहे, इन दिनों इंडिया टुडे में कार्यरत वरिष्ठ संवाददाता श्यामलाल यादव के सहपाठी थे। श्यामलाल यादव ने ही मेरी मदद के लिए ऋतेंद्र को कहा था। ऋतेंद्र से आरंभिक दिनों में जो मदद और प्यार मिला, उसने मुझे यह लगने ही नहीं दिया कि मैं किसी दूसरे प्रदेश में हूं। इसके बाद ऋतेंद्र ने ही मेरी मुलाकात मेरे अध्यापक डा. श्रीकांत सिंह से करवाई। डा. श्रीकांत सिंह से मिलने के बाद तो मेरी दुनिया ही बदल गई। वे बेहद अनुशासनप्रिय होने के साथ-साथ इतने आत्मीय हैं कि आपकी जिंदगी में उनकी जगह खुद-ब-खुद बनती चली जाती है। डा. श्रीकांत सिंह और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती गीता सिंह ने मुझे जिस तरह से अपना स्नेह दिया, उससे मैं यह भी कह सकता हूं कि मैं घर को भूल गया। वे मेरी जिंदगी में एक ऐसे शख्स हैं, जिनकी छाया के बिना मैं कुछ भी नहीं। उनकी डांट-फटकार और उससे ज्यादा मिले प्यार ने मुझे गढ़ने और एक रास्ता पकड़ने में बहुत मदद की। मेरे जीवन की अराजकताएं धीरे-धीरे खत्म होने लगीं। बहुत सामान्य क्षमता का छात्र होने के बावजूद मैंने दैनिक भास्कर, भोपाल की नौकरी करते हुए न सिर्फ बीजे की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए, बल्कि मुझे विश्वविद्यालय की ओर से मा.गो. वैद्य स्मृति रजत पदक से सम्मानित भी किया गया। विश्वविद्यालय के तत्कालीन महानिदेशक वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा, मेरे विभागाध्यक्ष प्रोफेसर कमल दीक्षित का हमें बहुत स्नेह हासिल था। दीक्षित सर की क्लास को हम आज भी याद करते हैं। उनका अंदाज इतना प्यारा था कि समय का पता ही नहीं चलता। विश्वविद्यालय का परिवार बहुत छोटा था सो हमारी पहुंच महानिदेशक के घर तक थी। हम जब भी श्री शर्मा के घर जाते हमें श्रीमती शर्मा बहुत प्यार से कुछ खिलातीं। त्रिलंगा का परिसर ही हमारा छात्रावास था और वहीं हमारी क्लास भी लगती थी। तब विश्वविद्यालय का स्वरूप इतना व्यापक नहीं था। किंतु हम सब एक खास तरह के उत्साह से भरे हुए थे। अध्यापक के रूप में मौजूद प्रो. दविंदर कौर उप्पल, शशिकांत शुक्ला, प्रो.बीर सिंह निगम, अंबाप्रसाद श्रीवास्तव अलग-अलग विभागों में रहने के बावजूद हमारे प्रति स्नेह भाव रखते थे। प्रो. उप्पल की चीजों को देखने की नजर प्रभावित करती थी। वे हमेशा सीखने पर जोर देती थीं।
बीजे की हमारी क्लास में कुल बीस लोग थे। बीस सीटें भी थीं, जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से आए हुए लोग थे। इनमें सुरेश केशरवानी, पुरुषोत्तम कुमार, शरद पंडया, अजीत कुमार, सचिन जैन, धनंजय प्रताप सिंह, आकृति श्रीवास्तव, संगीता, विजयलक्ष्मी, राखी झंवर, पवन गुप्ता जैसे तमाम दोस्त मिले, जिनसे आज भी रिश्ता कायम है। इसके अलावा पवित्र श्रीवास्तव, आनंद पाण्डेय, अनुराग ढेंगुला, अनुज खरे, विश्वेश ठाकरे, अमरेश चंद्रा, दिलीप तिवारी जैसे तमाम दोस्त आज भी साथ हैं। एमजे की हमारी क्लास में अजीत सिंह, सतीश एलिया, स्मृति जोशी, अजय उपाध्याय, सुरेश पाण्डेय, पुरूषोत्तम कुमार, सचिन जैन सबने पत्रकारिता और समाज जीवन में एक बड़ी जगह बना ली है। पत्रकारिता विश्वविद्यालय में रहते हुए हमने एक नई आंखें पाईं, नई सोच पाई और सलीका भी। विश्वविद्यालय में रहते हुए सबसे बड़ी चीज जो हमें आज भी इस परिसर से जोड़े हुए है आत्मीयता और रिश्ते। पहले अखबार के रूप में दैनिक भास्कर से मेरी यात्रा शुरू हुयी। यहां प्रांतीय डेस्क के प्रभारी रहे अक्षय मुदगल ने हमें पत्रकारिता का अखबारी ककहरा सिखाया। उन दिनों भास्कर के संपादक रहे महेश श्रीवास्तव के अलावा दैनिक नई दुनिया में समाचार संपादक रहे शिव अनुराग पटेरिया, स्वदेश के प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा, स्वदेश के तत्कालीन संपादक हरिमोहन शर्मा, दैनिक नई दुनिया में उस समय कार्यरत रहे विवेक मृदुल और साधना सिंह का जो स्नेह और संरक्षण मुझे मिला उसने मेरे व्यक्तित्व के विकास में बहुत मदद की। दैनिक नई दुनिया, भोपाल में मुझे छात्र जीवन में छपने का जितना ज्यादा अवसर मिला, आज भी मैं उन दिनों को याद कर रोमांचित हो जाता हूं। भास्कर की नौकरी के दौरान ही एक दिन डा. ओम नागपाल से मुलाकात हुई। उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा था कि उनके सामने जाते समय भी घबराहट होती थी। वे न सिर्फ सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी थे, बल्कि उनके पास सम्मोहित कर देने वाली आवाज थी। वे बोलते समय जितने प्रभावी दिखते थे, उनका लेखन भी उतना ही तार्किक और संदर्भित होता था। उनके ज्ञान का और विश्व राजनीति पर उनकी पकड़ का कोई सानी नहीं था। इस दौरान उन्होंने मुझसे रसरंग, पत्रिका के लिए कुछ चीजें लिखवाईं। वे नई पीढ़ी के लिए ऊर्जा के अजस्र स्रोत थे। आज जबकि वे हमारे बीच नहीं हैं, उनकी स्मृति मेरे लिए एक बड़ा संबल है। बीजे की परीक्षा पास करने के बाद स्वदेश, भोपाल के तत्कालीन संपादक हरिमोहन शर्मा मुझे अपने साथ 'स्वदेश लेते गए थे। स्वदेश एक छोटा अखबार था और कर्मचारियों का अभाव यहां प्राय: बना रहता था। स्वदेश के मालिक और प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा एक अच्छे पत्रकार के रूप में ख्यातनाम हैं। उन्होंने और हरिमोहन जी ने मुझे यहां काम करने के स्वतंत्र और असीमित अवसर उपलब्ध कराए। बाद में कुछ दिनों के लिए यहां प्रमोद भारद्वाज भी आए, प्रमोद जी से भी मेरी खूब बनी। उन्होंने मुझे रिपोर्टिंग के कई नए फंडे बताए। जिस पर मैं बाद के दिनों में अमल इसलिए नहीं कर पाया, क्योंकि नौकरी देने वालों को मेरा रिपोर्टिंग करना पसंद नहीं आया, बल्कि उन्होंने मुझमें एक संपादक की योग्यताएं ज्यादा देखीं। एमजे की परीक्षा पास करने के बाद राजेंद्र शर्मा का कृपापात्र होने के नाते 1996 में मुझे स्वदेश, रायपुर का कार्यकारी संपादक बनाकर छत्तीसगढ़ भेज दिया गया। मेरे मित्र और शुभचिंतक मेरे इस फैसले के बहुत खिलाफ थे। कई तो मेरे रायपुर जाने को मेरे कैरियर का अंत भी घोषित कर चुके थे।

रायपुर : एक अलग स्वाद का शहर
रायपुर आना मेरे लिए आत्मिक और मानसिक रूप से बहुत राहत देने वाला साबित हुआ। छत्तीसगढ़ की फिजाओं में मैंने खुद को बहुत सहज पाया। जितना प्यार और आत्मीयता मुझे रायपुर में मिली, उसने मुझे बांध सा लिया। 1996 का रायपुर शायद दिल्ली से न दिखता रहा हो, लेकिन उसकी मिठास और उसका अपनापन याद आता है। आज का रायपुर जब 2008 की देहरी पर खड़े होकर देखता हूं, तो बहुत बदल गया है। शायद इस शहर का राजधानी बन जाना और राजपुत्रों का हमारे करीब आ जाना इस शहर की तासीर को धीरे-धीरे बदल रहा है। 1996 का रायपुर एक बड़े गांव का अहसास कराता था, जहां लगभग सारे परिचित से चेहरे दिखते थे। बहुत सारे पारा-मोहल्ले में बसा हुआ रायपुर एक अलग ही स्वाद का शहर दिखता था। लखनऊ, भोपाल के तेज जीवन ने थोड़ा थकाया-पकाया जरूर रहा होगा, मुझे लगा मैं अपनी 'बस्ती में आ गया हूं। धीरे-धीरे सरकता हुआ शहर, आज के मुख्यमंत्री आवास तक सिमटा हुआ शहर, आज जिस तरह अपने आकार से, भीड़ से, गाड़ियों के प्रेशर हार्न से आतंकित करता है तो मुझे वह पुराना रायपुर बार-बार याद आता है। आज जिस बंगले में प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हैं, इसी बंगले में कभी कलेक्टर डीपी तिवारी रहा करते थे। उस समय यहां कमिश्नर रहे जेएल बोस हों या उस समय के एसपी संजय राणा, सभी याद आते हैं। अधिकारी भी तब आज के अधिकारियों जैसे नहीं थे। रायपुर सबको अपने जैसा बना लेता था। रायपुर का गुरुत्वाकर्षण अब मुझे कमजोर होता दिख रहा है। अब लोग रायपुर को अपने जैसा बनाने में लगे हैं। ब्राम्हणपारा में रहने वाले लोग हों या पुरानी बस्ती के बाशिंदे, वे इस बदलते शहर को मेरी तरह ही भौंचक निगाहों से देख रहे हैं। शहर में अचानक उग आए मेगा मॉल्स, बंद होते सिनेमाघर उनकी जगह लेता आईनाक्स, सड़क किनारे से गायब होते पेड़, गायब होती चिड़ियों की चहचहाहट, तालाब को सिकोड़ते हुए लोग, ढेर सी लालबत्तियां और उसमें गुम होते इंसान। रायपुर में रहते हुए रायपुर के समाज जीवन में सक्रिय अनेक साहित्यकारों, पत्रकारों से उस समय ही ऐसे रिश्ते बने, जो मुंबई जाकर भी खत्म नहीं हुए। शायद रिश्तों की यह डोर मुझे फिर से छत्तीसगढ़ खींच लाई।

इन मुंबई
1997 में मुंबई से नवभारत का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। नवभारत, छत्तीसगढ़ का बहुत प्रतिष्ठित दैनिक है। उन दिनों बबन प्रसाद मिश्र, नवभारत, रायपुर के प्रबंध संपादक थे। उनकी कृपा और आशीर्वाद से मुझे नवभारत, नागपुर के संपादक और मालिक विनोद माहेश्वरी ने मुंबई संस्करण में काम करने का अवसर दिया। जब मैं मुंबई पहुंचा तो यहां भी मेरे कई दोस्त और सहयोगी पहले से ही मौजूद थे। इन दिनों स्टार न्यूज, दिल्ली में कार्यरत रघुवीर रिछारिया उस समय नवभारत, मुंबई में ही थे। वे स्टेशन पर मुझे लेने आए और संयोग ऐसा बना कि मुंबई के तीन साल हमने साथ-साथ ही गुजारे। यहां जिंदगी में गति तो बढ़ी पर उसने बहुत सारी उन चीजों को देखने और समझने का अवसर दिया, जिसे हम एक छोटे से शहर में रहते हुए महसूस नहीं कर पाते। मुंबई देश का सबसे बड़ा शहर ही नहीं है, वह देश की आर्थिक धड़कनों का भी गवाह है। यहां लहराता हुआ समुद्र, अपने अनंत होने की और आपके अनंत हो सकने की संभावना का प्रतीक है। यह चुनौती देता हुआ दिखता है। समुद्र के किनारे घूमते हुए बिंदास युवा एक नई तरह की दुनिया से रूबरू कराते हैं। तेज भागती जिंदगी, लोकल ट्रेनों के समय के साथ तालमेल बिठाती हुई जिंदगी, फुटपाथ किनारे ग्राहक का इंतजार करती हुई महिलाएं, गेटवे पर अपने वैभव के साथ खड़ा होटल ताज और धारावी की लंबी झुग्गियां मुंबई के ऐसे न जाने कितने चित्र हैं, जो आंखों में आज भी कौंध जाते हैं। सपनों का शहर कहीं जाने वाली इस मुंबई में कितनों के सपने पूरे होते हैं यह तो नहीं पता, पर न जाने कितनों के सपने रोज दफन हो जाते हैं। यह किस्से हमें सुनने को मिलते रहते हैं। लोकल ट्रेन पर सवार भीड़ भरे डिब्बों से गिरकर रोजाना कितने लोग अपनी जिंदगी की सांस खो बैठते हैं इसका रिकार्ड शायद हमारे पास न हो, किंतु शेयर का उठना-गिरना जरूर दलाल स्ट्रीट पर खड़ी एक इमारत में दर्ज होता रहता है। यहां देश के वरिष्ठतम पत्रकार और उन दिनों नवभारत टाइम्स के संपादक विश्वनाथ सचदेव से मुलाकात अब एक ऐसे रिश्ते में बदल गई है, जो उन्हें बार-बार छत्तीसगढ़ आने के लिए विवश करती रहती है। विश्वनाथ जी ने पत्रकारिता के अपने लंबे अनुभव और अपने जीवन की सहजता से मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनके पास बैठकर मुझे यह हमेशा लगता रहा कि एक बड़ा व्यक्ति किस तरह अपने अनुभवों को अपनी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करता है। यहां नवभारत के समाचार संपादक के रूप में कार्यरत भूपेंद्र चतुर्वेदी का स्नेह भी मुझे निरंतर मिला। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी कर्मठता, काम के प्रति उनका निरंतर उत्साह मुझे प्रेरित करता है। उसी दौरान नवभारत परिवार से जुड़े सर्वश्री कमल भुवनेश, अरविंद सिंह, केसर सिंह बिष्ट, अजय भट्टाचार्य, विमल मिश्र, सुधीर जोशी, विनीत चतुर्वेदी जैसे न जाने कितने दोस्त बने, जो आज भी जुड़े हुए हैं। नवभारत में काम करने के अनेक अवसर मिले। उससे काम में विविधता और आत्मविश्वास की ही वृध्दि हुई। वैचारिकी नाम का एक साप्ताहिक पृष्ठ हमने लगातार निकाला, जिसकी खासी चर्चा होती रही। फिर कई फीचर पत्रिकाओं का ए-4 आकार में प्रकाशन पत्रकारिता का एक अलग अनुभव रहा। इसके साथ-साथ सिटी डेस्क की वर्किंग का अनुभव भी यहां मिला। यह अनुभव आपस में इतने घुले-मिले हैं कि जिसने एक पूर्ण पत्रकार बनाने में मदद ही की।
मुंबई में रहने के दौरान ही वेब पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ, जिसमें अनेक हिंदी वेबसाइट का भी काम प्रारंभ हुआ। वेबदुनिया, रेडिफ डाटकाम, इन्फोइंडिया डाटकाम जैसे अनेक वेबसाइट हिंदी में भी कार्य करती दिखने लगीं। हिंदी जगत के लिए यह एक नया अनुभव था। हमारे अनेक साथी इस नई बयार के साथ होते दिखे, किंतु मैं साहस न जुटा पाया। कमल भुवनेश के बहुत जोर देने पर मैंने इन्फोइंडिया डाटकाम में चार घंटे की पार्टटाइम नौकरी के लिए हामी भरी। जिसके लिए मुझे कंटेन्ट असिस्टेंट का पद दिया गया। वेब पत्रकारिता का अनुभव मेरे लिए एक अच्छा अवसर रहा, जहां मैंने वेब पत्रकारिता को विकास करते हुए देखा। यह दौर लंबा न चल सका, क्योंकि इसी दौरान मेरी शादी भी हुई और शादी के एक महीने बाद दैनिक भास्कर, बिलासपुर में समाचार संपादक के रूप में नियुक्ति हो गई और मुझे छत्तीसगढ़ के दूसरे नंबर के शहर बिलासपुर आ जाना पड़ा।अथ श्री भास्कर कथा
दैनिक भास्कर, बिलासपुर आने की कथा भी रोचक है। यहां भी स्वदेश के संपादक रहे हरिमोहन शर्मा ही मेरे पुन: भास्कर में प्रवेश का कारण बने। वे उन दिनों हिसार भास्कर के संपादक थे। उन्होंने मुझे पानीपत में जगदीश शर्मा जी से मिलने के लिए कहा। मैं पानीपत पहुंचा और श्री शर्मा से मिला। श्री शर्मा इन दिनों भास्कर समूह में उपाध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने अपने सद्व्यवहार और आत्मीयता से मुझे बहुत प्रभावित किया ही तथा साथ लेकर अगले दिन दिल्ली में भास्कर के प्रबंध संचालक सुधीर अग्रवाल से मुलाकात करवाई। श्री अग्रवाल हिंदी पत्रकारिता के उन नायकों में हैं, जिन्होंने अपनी कर्मठता से अपने समाचार पत्र को एक विशिष्ट पहचान दिलाई है। उनके प्रति मेरे मन में वैसे भी बहुत आदरणीय भाव है। मैं उन्हें पत्रकारिता के चंद गिने-चुने मालिकों में मानता हूं, जो हिन्दी में इतनी गंभीरता के साथ एक संपूर्ण अखबार निकालने का प्रयास कर रहे हैं। उनसे मिलना एक अच्छा अनुभव था। उन्होंने मुझसे जगहों के विकल्प के बारे में पूछा और चंडीगढ़, सीकर तथा छत्तीसगढ़ जैसे विकल्प सामने रखे। छत्तीसगढ़ से मेरा एक भावनात्मक रिश्ता पहले ही बन गया था। जाहिर तौर पर मैंने छत्तीसगढ़ का विकल्प ही सामने रखा। उन्होंने तत्काल ही बिलासपुर में समाचार संपादक के रूप में मेरी नियुक्ति कर दी। उनके काम करने का तरीका, चीजों को समझने की त्वरा देखते ही बनती है। वे वस्तुत: विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। हिंदी पत्रकारिता में हो रहे परिवर्तनों को जिस तेजी के साथ उन्होंने स्वीकार किया और अपने अखबार को भी आज के समय के साथ चलना सिखाया, उससे वे एक किंवदंती बन गए हैं।
भास्कर, बिलासपुर के अपने तीन साल के कार्यकाल में उनसे कुल दो बड़ी बैठकें ही हो पाईं, जिनमें एक भोपाल में और दूसरी बिलासपुर के श्यामा होटल में। आमतौर पर समाचार पत्र मालिकों के प्रति पत्रकारों की देखने की दृष्टि अलग होती है, किंतु मैंने यह पाया कि श्री अग्रवाल में संपादकीय मुद्दों की गहरी समझ है और वे अखबार को बहुत गंभीरता से लेने वाले मालिकों में से एक हैं। उनके साथ बैठकर बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है। इस बीच भास्कर में काम करते हुए उनसे फोन और ई-मेल पर हल्की-फुल्की सलाहें, कभी प्रेम की भाषा में तो कभी चेतावनी की भाषा में मिलती रहीं किंतु इस कार्यकाल ने मुझे आज की पत्रकारिता के लायक बनाया। साथ ही साथ मेरी कई पूर्व मान्यताओं को बेमानी भी साबित किया।
बिलासपुर शहर में रहते हुए मुझे लोगों से जो अपनापा, प्यार और सद्भाव मिला वह मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान पूंजी है। यह एक ऐसा शहर था, जिसने मुझे न सिर्फ काम के महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध कराए वरन रिश्तों की दृष्टि से भी बहुत संपन्न बना दिया। दिखने में यह शहर बहुत ठहरा हुआ सा और धीमी चाल चलने वाला शहर है किंतु यहां बहने वाली अरपा की तरह लोगों में भी अंत:सलिला बहती है। प्रतिवाद न करने के बावजूद लोग अपनी राय रखते हैं। साथ ही साथ धार्मिकता की भावना इस शहर में बहुत गहरी है। सही अर्थों में यह उस तरह का शहर नहीं है, जिस नाते शहर, शहर होते हैं। एक बड़े गांव सा सुख देता यह शहर आज भी अपने स्वभाव से उतना ही निर्मल और प्यारा है। शहर से लगी रतनपुर की धरती और यहां विराजी मां महामाया का आशीर्वाद सतत् आसपास के क्षेत्र पर बरसता दिखता है। यहां की राजनीति, साहित्य और पत्रकारिता सब कुछ एक-दूसरे आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि बहुत द्वंद नजर नहीं आते।
हिंदी के यशस्वी कवि श्रीकांत वर्मा, प्रख्यात रंगकर्मी सत्यदेव दुबे का यह शहर इसलिए भी खास है कि इसी जिले के सुदूर पेंड्रा नामक स्थान से सन् 1901 में पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र निकालकर पत्रकारिता की एक यशस्वी परंपरा की शुरुआत की। जड़ों में संस्कारों से लिपटा यह शहर अपने प्रेमपाश में बहुत जल्दी बांध लेता है। इसकी सादगी ही इसका सौंदर्य बन जाती है। यहां मुझे मित्रों का इतना बड़ा परिवार मिला कि बिलासपुर मेरे घर जैसा हो गया। यहां भास्कर के मेरे दो वर्ष का कार्यकाल पूरा होने के बाद मेरे वरिष्ठ अधिकारी के रूप में हिंदी के महत्वपूर्ण कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के सुपुत्र दिवाकर मुक्तिबोध का आगमन हुआ। उन्होंने कभी भी अपनी वरिष्ठता की गरिष्ठता का अहसास मुझे नहीं होने दिया और एक छोटे भाई के रूप में हमेशा अपना स्नेह और संरक्षण मुझे प्रदान किया। मेरी पुस्तक 'मत पूछ हुआ क्या-क्या’ की भूमिका भी उन्होंने कृपापूर्वक लिखी। आज भी वे मेरे प्रति बेहद आत्मीय और वात्सल्य भरा व्यवहार रखते हैं। भास्कर में उस समय मेरे सहयोगियों में रहे प्रवीण शुक्ला, सुशील पाठक, सुनील गुप्ता,अनिल तिवारी, विश्वेश ठाकरे, सूर्यकांत चतुर्वेदी, राजेश मुजुमदार, रविंद्र तैलंग, अशोक व्यास, संजय चंदेल, घनश्याम गुप्ता, हर्ष पांडेय, प्रतीक वासनिक, व्योमकेश त्रिवेदी, देवेश सिंह, अनिल रतेरिया, रविशंकर मिश्रा, योगेश मिश्रा, सुभाष गर्ग, अजय गुप्ता जैसे तमाम मित्र आज भी एक परिवार की तरह जुड़े हुए हैं। इसके अलावा शहर में पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, हरीश केडिया, डा. आरएसएल त्रिपाठी, बेनी प्रसाद गुप्ता, पं. नंदकिशोर शुक्ल,बजरंग केडिया जैसे समाज जीवन के सभी क्षेत्रों में इतने व्यापक संपर्क बने, जिनका नाम गिनाना मुझे संकट में तो डालेगा ही, इस लेख की पठनीयता को भी प्रभावित कर सकता है। इसी दौरान लगभग तीन साल गुरू घासीदास विश्वविद्यालय की पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष डा. गोपा बागची और उनके अत्यंत सरल और सौम्य पतिदेव डा. शाहिद अली की कृपा, प्रेरणा से विश्वविद्यालय में पत्रकारिता शिक्षण का अवसर भी मिला। इसमें अनेक विद्यार्थी तो इतने प्रिय हो गए, जैसे वे मेरे परिवार का ही हिस्सा हैं। जिनमें यशवंत गोहिल नई पीढ़ी के प्रखर पत्रकारों में हैं, जो मेरे साथ भास्कर और बाद में हरिभूमि में भी जुड़े रहे। इसी तरह अनुराधा आर्य, मधुमिता राव, नीलम शुक्ला, दीपिका राव, सुरेश पांडेय, शरद पांडेय, योगेश्वर शर्मा जैसे तमाम विद्यार्थी आज भी उसी भावना से मिलते हैं। बिलासपुर के तीन साल मेरे जीवन के बीते सालों पर भारी थे।

रायपुर : यादों की महक
यादों की यही महक लिए हुए मैं थोड़े समय के बाद छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित होने वाले हरिभूमि से जुड़ गया। यह एक संयोग ही था कि मैं हरिभूमि के तब पंडरी स्थित कार्यालय में रमेश नैयर से मिलने के लिए आया हुआ था। वे छत्तीसगढ़ के अत्यंत सम्मानित पत्रकार और मुझे बहुत स्नेह करने वाले व्यक्ति हैं। स्वदेश, रायपुर में कार्य करते समय मेरा उनसे संपर्क आया था, जो उनकी आत्मीयता के नाते निरंतर सघन होता गया। श्री नैयर से इस मुलाकात के समय ही हिमांशु द्विवेदी से मेरी भेंट हुई। कैसे, क्या हुआ, लेकिन मैं मार्च, 2004 में हरिभूमि से जुड़ गया। इसके पूर्व हरिभूमि के संपादक के रूप में गिरीश मिश्र और एल.एन. शीतल कार्य कर चुके थे। अखबार को निकलते कुल डेढ़ साल हो गए थे और मैं तीसरा संपादक था। बावजूद इसके, अखबार बहुत अच्छे स्वरूप में निकल रहा था। हरिभूमि और हरिभूमि के पदाधिकारियों से जैसा रिश्ता बना कि वह बहुत आत्मीय होता चला गया। यहां पर आरंभिक दिनों में छत्तीसगढ़ के अत्यंत श्रेष्ठ पत्रकार स्वर्गीय रम्मू श्रीवास्तव के साथ काम करने का भी मौका मिला। कुछ ही समय बाद हिमांशु जी पूर्णकालिक तौर पर रोहतक से रायपुर आ गए। उनके साथ मेरा जिस तरह का और जैसा आत्मीय संबंध है, उसमें उनकी तारीफ को ब्याज निंदा ही कहा जाएगा। बावजूद इसके वे बेहद सहृदय, संवेदनशील और किसी भी असंभव कार्य को संभव कर दिखाने की क्षमता के प्रतीक हैं। उनमें ऊर्जा का एक अजस्र स्रोत है, जो उन्हें और उनके आसपास के वातावरण को हमेशा जीवंत तथा चैतन्य रखता है। एक संपादक और एक प्रबंधक के रूप में उनकी क्षमताएं अप्रतिम हैं। इसके साथ ही उनके पास एक बहुत बड़ा दिल है, जो अपने दोस्तों और परिजनों के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए आमादा दिखता है।
इस बीच मेरा चयन कुशाभाऊ पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर में रीडर के पद पर हो गया। सो मुझे लगभग छ: माह हरिभूमि से अलग होकर विश्वविद्यालय को अपनी सेवाएं देनी पड़ीं। विश्वविद्यालय में मेरे पुराने साथी डा. शाहिद अली और नृपेंद्र शर्मा मौजूद थे। छ: माह का यह समय एक पूर्णकालिक अध्यापक के रूप में ही गुजरा किंतु मित्रों के लगातार दबाव और तरह-तरह की प्रतिक्रियाओं से मन जल्दी ही बोर होने लगा। हिमांशुजी का स्नेहभरा दबाव हमेशा बना रहता था। उनके आदेश पर मुझे अंतत: विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़कर फिर हरिभूमि में स्थानीय संपादक के पद पर आना पड़ा। इस दौरान हरिभूमि में काफी परिवर्तन हो चुके थे। कई पुराने साथी अखबार छोड़कर जा चुके थे और एक नई टीम बनाने की चुनौती सामने थी। इस दौर में भी नए-नए साथी जुड़े और कई तो ऐसे जिन्होंने हरिभूमि से ही अपने पत्रकारीय कैरियर की शुरुआत की। इस बीच धमतरी रोड पर हरिभूमि का नया भवन भी बना। वह बहुत सुदर्शन अखबार के रूप में ज्यादा रंगीन पन्नों के साथ निकलने लगा। शहर के बौध्दिक तबकों में भी उसकी खास पहचान बननी शुरू हो गई। इसका फायदा निश्चित रूप से हम सबको मिला। नगर के बुध्दिजीवी हरिभूमि के साथ अपना जुड़ाव महसूस करने लगे। वरिष्ठ पत्रकार बसंत कुमार तिवारी, बबन प्रसाद मिश्र, गिरीश पंकज, जयप्रकाश मानस, सुधीर शर्मा, डा. राजेंद्र सोनी, डा. मन्नूलाल यदु ऐसे न जाने कितने नाम हैं, जिनका योगदान और सहयोग निरंतर हरिभूमि को मिलता रहा। यह एक ऐसा परिवार बन रहा था, जो शब्दों के साथ जीना चाहता है। इस दौरान हरिभूमि ने अपार लोक स्वीकृति तो प्राप्त की ही, तकनीकी तौर पर भी खुद को सक्षम बनाया। इसका श्रेय निश्चित रूप से हरिभूमि के उच्च प्रबंधन को ही जाता है।
जून, 2008 के आखिरी दिनों में मैंने छत्तीसगढ़ के पहले सेटलाइट चैनल जी चौबीस घंटे छत्तीसगढ़ के साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया में इनपुट एडीटर और एंकर के रूप में अपनी पारी बहुत संकोच के साथ शुरू की। मेरे तमाम मित्र और शुभचिंतक मेरे इस फैसले के खिलाफ थे। इसका कारण यह था कि वे मुझे अखबार के संपादक के रूप में देखने के अभ्यस्त थे और किसी अन्य भूमिका में मेरा होना शायद उन्हें असहज लग रहा था। उन्हें यह भी लगता रहा होगा कि कहीं इसका मुझे नुकसान न हो। किंतु इस नए चैनल के साथ जुड़कर मैंने खोया कम पाया ज्यादा। बहुत कम समय में ही मुझे चैनल से जुड़े तमाम विषयों की जानकारी तो मिली ही, एक नए संस्थान के उदय के समय होने वाली जद्दोजहद से भी मैं रूबरू हो सका। किसी जमे जमाए चैनल में जाता तो शायद इतने विलक्षण अनुभव आज मेरे पास न होते। हमारे संपादक रविकांत मित्तल, चैनल के निदेशक दिनेश गोयल, सीईओ केके नायक और एचआर हेड निवेदिता कानूनगो ने रात दिन की मेहनत से रायपुर जैसी जगह पर जो करिश्मा किया उसका गवाह होने की मुझे बहुत खुशी है। मैं इस दुनिया के लिए एक बाहरी जीव था पर रविकांत मित्तल और उनकी कोर टीम ने मुझे इस माध्यम की बारीकियां सिखायीं। यह अनुभव मुझे रोमांचित कर जाता है। यहां से बहुत से रिश्ते बने जो आज भी मेरी पूंजी हैं। जनवरी, 2009 में चैनल से अपनी विदाई के बाद मैं थोड़े समय के लिए भास्कर छत्तीसगढ़ के महाप्रबंधक केपी सिंह की कृपा से दैनिक भास्कर से जुड़ा। इस बीच माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में मेरी नियुक्ति रीडर- जनसंचार के पद हो गयी। मेरा यह सौभाग्य ही है कि जिस परिसर में मेरी शिक्षा-दीक्षा हुयी उसी परिसर में मेरी वापसी एक अध्यापक के नाते हुयी है। अब जबकि मीडिया में 1994 में शुरू हुए अपने कैरियर की एक लंबी पारी खेलकर मैं मीडिया शिक्षण के क्षेत्र में प्रवेश कर चुका हूं तो यह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ ही कहा जाएगा। यह समय मुझे कैसे और कितना बदल पाएगा, इसे हम और आप मिलकर देखेंगे। तब तक इलेक्ट्रानिक मीडिया की भाषा में मैं एक ब्रेक ले लेता हूं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Tuesday, March 16, 2010

आइए बनाएं एक पानीदार समाज


- संजय द्विवेदी
मीडिया का काम है लोकमंगल के लिए सतत सक्रिय रहना। पानी का सवाल भी एक ऐसा मुद्दा बना गया है जिस पर समाज, सरकार और मीडिया तीनों की सामूहिक सक्रियता जरूरी है। कहा गया है-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष,चून।
प्रकृति के साथ निरंतर छेड़छाड़ ने मनुष्यता को कई गंभीर खतरों के सामने खड़ा कर दिया है। देश की नदियां, ताल-तलैये, कुंए सब हमसे सवाल पूछ रहे हैं। हमारे ठूंठ होते गांव और जंगल हमारे सामने एक प्रश्न बनकर खड़े हैं। पर्यावरण के विनाश में लगी व्यवस्था और उद्योग हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। इस भयानक शोषण के फलित भी सामने आने लगे हैं। मानवता एक ऐसे गंभीर संकट को महसूस कर रही है और कहा जाने लगा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। बारह से पंद्रह रूपए में पानी खरीद रहे हम क्या कभी अपने आप से ये सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा पानी इतना महंगा क्यों है। जब हमारे शहर का नगर निगम जलकर में थोड़ी बढ़त करता है तो हम आंदोलित हो जाते हैं, राजनीतिक दल सड़क पर आ जाते हैं। लेकिन पंद्रह रूपए में एक लीटर पानी की खरीदी हमारे मन में कोई सवाल खड़ा नहीं करती। उदाहरण के लिए दिल्ली जननिगम की बात करें तो वह एक हजार लीटर पानी के लिए साढ़े तीन रूपए लेता है। यानि की तीन लीटर पानी के लिए एक पैसे से कुछ अधिक। यही पानी मिनरल वाटर की शकल में हमें तकरीबन बयालीस सौ गुना से भी ज्यादा पैसे का पड़ता है। आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं। इसके खामोशी के चलते दुनिया में बोतलबंद पानी का कारोबार तेजी से उठ रहा है और 2004 में ही इसकी खपत दुनिया में 154 बिलियन लीटर तक पहुंच चुकी थी। इसमें भारत जैसे हिस्सा भी 5.1 बिलियन लीटर का है। यह कारोबार चालीस प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। आज भारत बोतलबंद पानी की खपत के मामले में दुनिया के दस शीर्ष देशों में शामिल है। लेकिन ये पानी क्या हमारी आम जनता की पहुंच में है। यह दुर्भाग्य है कि हमारे गांवों में मल्टीनेशनल कंपनियों के पेय पदार्थ पहुंच गए किंतु आजतक हम आम लोंगों को पीने का पानी सुलभ नहीं करा पाए। उस आदमी की स्थिति का अंदाजा लगाइए जो इन महंगी बोलतों में बंद पानी तक नहीं पहुंच सकता।पानी का विचार करते हुए हमें केंद्र में उन देश के कोई चौरासी करोड़ लोगों को रखना होगा जिनकी आय प्रतिदिन छः से बीस रूपए के बीच है। इस बीस रूपए रोज कमानेवाले आदमी की चिंता हमने आज नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी। पानी का संघर्ष एक ऐसी शक्ल ले रहा है जहां लोग एक-दूसरे की जान लेने को आमादा हैं। भोपाल में ही पानी को लेकर इसी साल शहर में हत्याएं हो चुकी हैं।
पानी की चिंता आज सब प्रकार से मानवता की सेवा सबसे बड़ा काम है। आंकड़े चौंकानेवाले हैं कितु ये खतरे की गंभीरता का अहसास भी कराते हैं। भारत में सालाना 7 लाख, 83 हजार लोंगों की मौत खराब पानी पीने और साफ- सफाई न होने से हो जाती है। दूषित जल के चलते हर साल देश की अर्थव्यवस्था को करीब पांच अरब रूपए का नुकसान हो रहा है। देश के कई राज्यों के लोग आज भी दूषित जल पीने को मजबूर हैं क्योंकि यह उनकी मजबूरी भी है।
पानी को लेकर सरकार, समाज और मीडिया तीनों को सक्रिय होने की जरूरत है। आजादी के इतने सालों के बाद पानी का सवाल यदि आज और गंभीर होकर हमारे है तो हमें सोचना होगा कि आखिर हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं। पानी की सीमित उपलब्धता को लेकर हमें सोचना होगा कि आखिर हम अपने समाज के सामने इस चुनौती का क्या समाधान रखने जा रहे हैं।
मीडिया की जिम्मेदारीः
मीडिया का जैसा विस्तार हुआ है उसे देखते हुए उसके सर्वव्यापी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। मीडिया सरकार, प्रशासन और जनता सबके बीच एक ऐसा प्रभावी माध्यम है जो ऐसे मुद्दों पर अपनी खास दृष्टि को संप्रेषित कर सकता है। कुछ मीडिया समूहों ने पानी के सवाल पर जनता को जगाने का काम किया है। वह चेतना के स्तर पर भी है और कार्य के स्तर पर भी। ये पत्र समूह अब जनता को जगाने के साथ उनके घरों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने तक में मदद कर रहे हैं। इसी तरह भोपाल की सूखती झील की चिंता को जिस तरह भोपाल के अखबारों ने मुद्दा बनाया और लोगों को अभियान शामिल किया उसकी सराहना की जानी चाहिए। इसी तरह हाल मे नर्मदा को लेकर अमृतलाल वेगड़ से लेकर अनिल दवे तक के प्रयासों को इसी नजर से देखा जाना चाहिए। अपनी नदियों, तालाबों झीलों के प्रति जनता के मन में सम्मान की स्थापना एक बड़ा काम है जो बिना मीडिया के सहयोग से नहीं हो सकता।
उत्तर भारत की गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी समाज और उद्योग की बेरुखी ने काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। दिल्ली में यमुना जैसी नदी किस तरह एक गंदे नाले में बदल गयी तो लखनऊ की गोमती का क्या हाल है किसी से छिपा नहीं है।देश की नदियों का जल और उसकी चिंता हमें ही करनी होगी। मीडिया ने इस बड़ी चुनौती को समय रहते समझा है, यह बड़ी बात है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सवाल को मीडिया के नियंता अपनी प्राथमिक चिंताओं में शामिल करेंगें। ये कुछ बिंदु हैं जिनपर मीडिया निरंतर अभियान चलाकर पानी को बचाने में मददगार हो सकता है-
1.पानी का राष्ट्रीयकरण किया जाए और इसके लिए एक अभियान चलाया जाए।
2.छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी को एक पूंजीपति को बेचकर जो शुरूआत हुयी उसे दृष्टिगत रखते हुए नदी बेचने की प्रवृत्ति पर रोक लगाई जाए।
3. उद्योगों के द्वारा निकला कचरा हमारी नदियों को नष्ट कर रहा, पर्यावरण को भी। उद्योग प्रायः प्रदूषणरोधी संयत्रों की स्थापना तो करते हैं पर बिजली के बिल के नाते उसका संचालन नहीं करते। उद्योगों की हैसियत के मुताबिक प्रत्येक उद्योग का प्रदूषणरोधी संयत्र का मीटर अलग हो और उसका न्यूनतम बिल तय किया जाए। इससे इसे चलाना उद्योगों की मजबूरी बन जाएगा।
4. केंद्र सरकार द्वारा नदियों को जोड़ने की योजना को तेज किया जाना चाहिए।
5. बोलतबंद पानी के उद्योग को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
6. सार्वजनिक पेयजल व्यवस्था को दुरुस्त करने के सचेतन और निरंतर प्रयास किए जाने चाहिए।
7. गांवों में स्वजलधारा जैसी योजनाओं को तेजी से प्रचारित करना चाहिए।
8. परंपरागत जल श्रोतों की रक्षा की जानी चाहिए।
9. आम जनता में जल के संयमित उपयोग को लेकर लगातार जागरूकता के अभियान चलाए जाने चाहिए।
10. सार्वजनिक नलों से पानी के दुरूपयोग को रोकने के लिए मोहल्ला समितियां बनाई जा सकती हैं। जिनकी सकारात्मक पहल को मीडिया रेखांकित कर सकता है।
11.बचपन से पानी के महत्व और उसके संयमित उपयोग की शिक्षा नई पीढ़ी को देने के लिए मीडिया बच्चों के निकाले जा रहे अपने साप्ताहिक परिशिष्टों में इन मुद्दों पर बात कर सकता है। साथ स्कूलों में पानी के सवाल पर आयोजन करके नई पीढ़ी में संस्कार डाले जा सकते हैं।
12. वाटर हार्वेस्टिंग को नगरीय क्षेत्रों में अनिवार्य बनाया जाए, ताकि वर्षा के जल का सही उपयोग हो सके।
13.जनप्रबंधन की सरकारी योजनाओं की कड़ी निगरानी की जाए साथ ही बड़े बांधों के उपयोगों की समीक्षा भी की जाए।
15.गांवों में वर्षा के जल का सही प्रबंधन करने के लिए इस तरह के प्रयोग कर चुके विशेषज्ञों की मदद से इसका लोकव्यापीकरण किया जाए।
16. हर लगने वाले कृषि और किसान मेलों में जलप्रबंधन का मुद्दा भी शामिल किया जाए, ताकि फसलों और खाद के साथ पानी को लेकर हो रहे प्रयोगों से भी अवगत हो सकें, ताकि वे सही जल प्रबंधन भी कर सकें।
17. विभिन्न धर्मगुरूओं और प्रवचनकारों से निवेदन किया जा सकता है कि वे अपने सार्वजनिक समारोहों और प्रवचनों में जलप्रबंधन को लेकर अपील जरूर करें। हर धर्म में पानी को लेकर सार्थक बातें कही गयी हैं उनका सहारा लेकर धर्मप्राण जनता में पानी का महत्व बताया जा सकता है।
18. केंद्र और राज्य सरकारें पानी को लेकर लघु फिल्में बना सकते हैं जिन्हें सिनेमाहालों में फिल्म के प्रसारम से पहले या मध्यांतर में दिखाया जा सकता है।
19. पारंपरिक मीडिया के प्रयोग से गांव-कस्बों तक यह संदेश पहुंचाया जा सकता है।
20. पत्रिकाओं के पानी को लेकर अंक निकाले जा सकते हैं जिनमें दुनिया भर पानी को लेकर हो रहे प्रयोगों की जानकारी दी जा सकती है।
21.राज्यों के जनसंपर्क विभाग अपने नियमित विज्ञापनों में गर्मी और बारिश के दिनों में पानी के संदेश दे सकते हैं।
ऐसे अनेक विषय हो सकते हैं जिसके द्वारा हम जल के सवाल को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए समाज में जनचेतना फैला सकते हैं। यही रास्ता हमें बचाएगा और हमारे समाज को एक पानीदार समाज बनाएगा। पानीदार होना कोई साधारण बात नहीं है, क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं।
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( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)

- संपर्कः अध्यक्ष,जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
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Saturday, March 13, 2010

ताकि बेमौत न मारे जाएं मीडियाकर्मी


इलेक्ट्रानिक मीडिया को धंधेबाजों से बचाना जरूरी
- संजय द्विवेदी
मीडिया में आकर, कुछ पैसे लगाकर अपना रूतबा जमाने का शौक काफी पुराना है किंतु पिछले कुछ समय से टीवी चैनल खोलने का चलन जिस तरह चला है उसने एक अराजकता की स्थिति पैदा कर दी है। हर वह आदमी जिसके पास नाजायज तरीके से कुछ पैसे आ गए हैं वह टीवी चैनल खोलने या किसी बड़े टीवी चैनल की फ्रेंचाइजी लेने को आतुर है। पिछले कुछ महीनों में इन शौकीनों के चैनलों की जैसी गति हुयी है और उसके कर्मचारी- पत्रकार जैसी यातना भोगने को विवश हुए हैं, उससे सरकार ही नहीं सारा मीडिया जगत हैरत में है। एक टीवी चैनल में लगने वाली पूंजी और ताकत साधारण नहीं होती किंतु मीडिया में घुसने के आतुर नए सेठ कुछ भी करने को आमादा दिखते हैं।
अब इनकी हरकतों की पोल एक-एक कर खुल रही है। रंगीन चैनलों की काली कथाएं और करतूतें लोगों के सामने हैं, उनके कर्मचारी सड़क पर हैं। भारतीय टेलीविजन बाजार का यह अचानक उठाव कई तरह की चिंताएं साथ लिए आया है। जिसमें मीडिया की प्रामणिकता, विश्वसनीयता की चिंताएं तो हैं ही साथ ही उन पत्रकारों का जीवन भी एक अहम मुद्दा है जो अपना कैरियर इन नए-नवेले चैनलों के लिए दांव पर लगा देते हैं। चैनलों की बाढ़ ने न सिर्फ उनकी साख गिरायी है वरन मीडिया के क्षेत्र को एक अराजक कुरूक्षेत्र में बदल दिया है। ऐसे समय में केंद्र सरकार की यह चिंता बहुत स्वाभाविक है कि कैसे इस क्षेत्र में मचे धमाल को रोका जाए। दिसंबर,2008 तक देश में कुल 417 चैनल थे जिसमें 197 न्यूज चैनल काम कर रहे थे। सितंबर,2009 तक सरकार 498 चैनलों के लिए अनुमति दे चुकी है और 150 चैनलों के नए आवेदन विचाराधीन हैं। टीवी मीडिया के क्षेत्र में जाहिर तौर पर यह एक बड़ी छलांग है। कितु क्या इस देश को इतने सेटलाइट चैनलों की जरूरत है। क्या ये सिर्फ धाक बनाने और निहित स्वार्थों के चलते खड़ी हो रही भीड़ नहीं है। जिसका पत्रकार नाम के प्राणी के जीवन और पत्रकारिता के मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। जिस दौर में दिल्ली जैसी जगह में हजारों पत्रकार अकारण बेरोजगार बना दिए गए हों और तमाम चैनलों में लोग अपनी तनख्वाह का इंतजार कर रहे हों इस अराजकता पर रोक लगनी ही चाहिए।
यह बहुत बेहतर है कि सरकार इस दिशा में कुछ नियमन करने के लिए सोच रही है। चैनल अनुमति नीति में बदलाव बहुत जरूरी हैं। यह सामयिक है कि सरकार अपने अनुमति देने के नियमों की समीक्षा करे और कड़े नियम बनाए जिसमें कर्मचारी का हित प्रधान हो। ताकि लूट-खसोट के इरादे से आ रहे चैनलों को हतोत्साहित किया जा सके। सरकार ने ट्राइ को लिखा है कि वह उसे इसके लिए सुझाव दे कि और कितने चैनलों की गुंजाइश इस देश में है और चैनलों की बढ़ती संख्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है। अपने पत्र में मंत्रालय की चिंता वास्तव में देश की भी चिंता है। पत्र में इस बात पर भी चिंता जताई गई है कि नए चैनल शुरू करने वालों में बिल्डर,ठेकेदार, शिक्षा क्षेत्र में व्यापार करने वाले, स्टील व्यापारी समेत तमाम ऐसे लोग हैं जिनका मीडिया उद्योग से कोई लेना देना या पूर्व अनुभव नहीं है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को यह भी शिकायत मिली है चैनल शुरू करवाने को लेकर दलाली का एक पूरा कारोबार जोर पकड़ चुका है। उल्लेखनीय है कि चैनल शुरू करने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय के अलावा गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, वित्त मंत्रालय की अनुमति भी लेनी होती है।
हालांकि कुछ आलोचक यह कह कर इन कदमों की आलोचना कर सकते हैं कि यह कदम लोकतंत्र विरोधी होगा कि नए चैनल आने में अड़चनें लगाई जाएं। किंतु जिस तरह के हालात हैं और पत्रकारों व कर्मियों को मुसीबतों का सामना करना पड़ा रहा है उसमें नियमन जरूरी है। चैनल का लाइसेंस पाकर कभी भी चैनल पर ताला डालने का प्रवृत्ति से आम पत्रकारों को गहरा झटका लगता है। उनके परिवार सड़क पर आ जाते हैं। नौकरियों को लेकर कोई सुरक्षा न होना और पत्रकारों से अपने संपर्कों के आधार पर पैसै या व्यावसायिक मदद लेने की प्रवृत्ति भी उफान पर है। चैनल खोलने के शौकीनों से सरकार को यह जानने का हक है कि आखिर वे ऐसा क्या प्रमाण दे रहे हैं कि जिसके आधार पर यह माना जा सके कि आपके पास तीन या पांच साल तक चैनल चलाने की पूंजी मौजूद है। वित्तीय क्षमता के अभाव या मीडिया के दुरूपयोग से पैसे कमाने की रूचि से आने वालों को निश्चित ही रोका जाना चाहिए। चैनल में नियुक्त कर्मियों के रोजगार गारंटी के लिए कड़े नियमों के आघार पर ही नए नियोक्ताओं को इस क्षेत्र में आने की अनुमति मिलनी चाहिए। मीडिया जिस तरह के उद्योग में बदल रहा है उसे नियमों से बांधे बिना कर्मियों के हितों की रक्षा असंभव है। पैसे लेकर खबरें छापने या दिखाने के कलंकों के बाद अब मीडिया को और छूट नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि हर तरह की छूट दरअसल पत्रकारिता या मीडिया के लिए नहीं होती, ना ही वह उसके कर्मचारियों के लिए होती है, यह सारी छूट होती है मालिकों के लिए। सो नियम ऐसे हों जिससे मीडिया कर्मी निर्भय होकर, प्रतिबद्धता के साथ अपना काम कर सकें। केंद्र सरकार अगर चैनलों की भीड़ रोकने और उन्हें नियमों में बांधने के लिए आगे आ रही है तो उसका स्वागत होना चाहिए। ध्यान रहे यह मामला सेंसरशिप का नहीं हैं। पत्रकारों के कल्याण, उनके जीवन से भी जुड़ा है, सो इस मुद्दे पर एलर्जिक होना ठीक नहीं है। ( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

नई प्रौद्योगिकी से आया हिंदी लेखन में लोकतंत्र

-संजय द्विवेदी

साहित्य और मीडिया की दुनिया में जिस तरह की बेचैनी इन दिनों देखी जा रही है। वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह ऐसा समय है जिसमें उसके परंपरागत मूल्य और जनअपेक्षाएं निभाने की जिम्मेदारी दोनों कसौटी पर हैं। बाजार के दबाव और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच उलझी शब्दों की दुनिया अब नए रास्तों की तलाश में है । तकनीक की क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है वहीं पाठकों एवं दर्शकों से उसकी रिश्तेदारी को व्याख्यायित करने की आवाजें भी उठने लगी है।
साहित्य की बात करते ही उसकी हमारी चेतना में कई नाम गूंजते हैं जो हिंदी के नायकों में थे, यह खड़ी बोली हिंदी के खड़े होने और संभलने के दिन थे। वे जो नायक थे वे भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, प्रेमचंद हों, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों ,माखनलाल चतुर्वेदी या माधवराव सप्रे, ये सिर्फ साहित्य के नायक नहीं थे, हिंदी समाज के भी नायक थे। इस दौर की हिंदी सिर्फ पत्रकारिता या साहित्य की हिंदी न होकर आंदोलन की भी हिंदी थी। शायद इसीलिए इस दौर के रचनाकार एक तरफ अपने साहित्य के माध्यम से एक श्रेष्ठ सृजन भी कर रहे थे तो अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना को जगाने का काम भी कर रहे थे। इसी तरह इस दौर के साहित्यकार समाजसुधार और देशसेवा या भारत मुक्ति के आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। तीन मोर्चों पर एक साथ जूझती यह पीढ़ी अगर अपने समय की सब तरह की चुनौतियों से जूझकर भी अपनी एक जगह बना पाई तो इसका कारण मात्र यही था कि हिंदी तब तक सरकारी भाषा नहीं हो सकी थी। वह जन-मन और आंदोलन की भाषा थी इसलिए उसमें रचा गया साहित्य किसी तरह की खास मनःस्थिति में लिखा गया साहित्य नहीं था। वह समय हिंदी के विकास का था और उसमें रचा गया साहित्य लोगों को प्रेरित करने का काम कर रहा था। उस समय के बेहद साधारण अखबार जो जनचेतना जगाने के माध्यम थे और देश की आजादी की लड़ाई में उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया। जबकि आज के अखबार ज्यादा पृष्ठ, ज्यादा सामग्री देकर भी अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे हैं, यह पत्रकारिता के सामने भी एक बड़ा सवाल है । क्या बात है कि जहां पहले पाठक को अपने ‘खास’ अखबार की आदत लग जाती थी । वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से अपना अखबार बदल लेता है । क्या हिंदी क्षेत्र के अखबार अपनी पहचान खो रहे हैं, क्या उनकी अपनी विशिष्टता का लोप हो रहा है-जाहिर है पाठक को सारे अखबार एक से दिखने लगे हैं। ‘जनसत्ता’ जैसे प्रयोग भी अपनी आभा खो चुके हैं। मुख्यधारा के मीडिया से साहित्य को लगभग बहिष्कृत सा कर दिया गया है। बाजार ने आंदोलन की जगह ले ली है। मास मीडिया के इस भटकाव का प्रभाव साहित्य पर भी देखा जा रहा है। साहित्य में भी लोकप्रिय लेखन की चर्चा शुरू हो गयी है।
हिंदी साहित्य पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि उसने आजादी के बाद अपनी धार खो दी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था। मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है।हिंदी का साहित्यिक जगत का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया,जो उसकी मूल पूंजी थे। आजादी के पूर्व हमारी हिन्दी पट्टी का साहित्य सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करता था।
निर्बल का बल है संचार प्रौद्योगिकीः
बात अगर नई तकनीक और प्रौद्योगिकी की करें तो उसने हिंदी की ताकत और उर्जा का विस्तार ही किया है। हिंदी साहित्य को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित करने और एक वैश्विक हिंदी समाज को खड़ा करने का काम नयी प्रौद्योगिकी कर रही है। इंटरनेट के अविष्कार ने इसे एक ऐसी शक्ति दी जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। वेबसाइट्स के निर्माण से ई-बुक्स का प्रचलन भी बढ़ा है और नयी पीढ़ी एक बार फिर पठनीयता की ओर लौटी है। हमारे पुस्तकालय खाली पड़े होंगे किंतु साइबर कैफै युवाओं से भरे-पड़े हैं। एक क्लिक से उन्हें दुनिया जहान की तमाम जानकारियां और साहित्य का खजाना मिल जाता है। यह सही है उनमें चैटिंग और पोर्न साइट्स देखनेवालों की भी एक बड़ी संख्या है किंतु यह मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि नई पीढ़ी आज भी ज्यादातर पाठ्य सामग्री की तलाश में इन साइट्स पर विचरण करती है। साहित्य जगत की असल चुनौती इस पीढ़ी को केंद्र में रखकर कुछ रचने और काम करने की है। तकनीक कभी भी किसी विधा की दुश्मन नहीं होती, वह उसके प्रयोगकर्ता पर निर्भर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है। नई तकनीक ने साहित्य का कवरेज एरिया तो बढ़ा ही दिया ही साथ ही साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के प्रति हमारी पहुंच का विस्तार भी किया है। दुनिया के तमाम भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य और साहित्यकारों से अब हमारा रिश्ता और संपर्क भी आसान बना दिया है। भारत जैसे महादेश में आज भी श्रेष्ठ साहित्य सिर्फ महानगरों तक ही रह जाता है। छोटे शहरों तक तो साहित्य की लोकप्रिय पत्रिकाओं की भी पहुंच नहीं है। ऐसे में एक क्लिक पर हमें साहित्य और सूचना की एक वैश्विवक दुनिया की उपलब्धता क्या आश्चर्य नहीं है। हमारे सामने हिंदी को एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने की चुनौती शेष है। यदि एक दौर में बाबू देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति को पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीख सकते हैं तो क्या मुश्किल है कि हिंदी में रचे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य से अन्य भाषा भाषियों में हिंदी के प्रति अनुराग न पैदा हो। वैश्विक स्तर भी आज हिंदी को सीखने-पढ़ने की बात कही जा रही है वह भले ही बाजार पर कब्जे के लिए हो किंतु इससे हिंदी का विस्तार तो हो रहा है। अमेरिका जैसे देशों में हिंदी के प्रति रूझान यही बताता है.।
दूसरी महत्वपूर्ण बात तकनीक को लेकर हो हिचक को लेकर है। यह तकनीक सही मायने निर्बल का बल है। इस तकनीक के इस्तेमाल ने एक अनजाने से लेखक को भी ताकत दी है जो अपना ब्लाग मुफ्त में ही बनाकर अपनी रचनाशीलता से दूर बैठे अपने दोस्तों को भी उससे जोड़ सकता है। भारत जैसे देश में जहां साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रमसाध्य काम है वहीं वेब पर पत्रिका का प्रकाशन सिर्फ आपकी तकनीकी दक्षता और कुछ आर्थिक संसाधनों के इंतजाम से जीवित रह सकता है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि इस पत्रिका का टिका रहना, विपणन रणनीति पर नहीं, उसकी सामग्री की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। वेबसाइट्स पर चलने वाली पत्रिकाएं अपनी गुणवत्ता से जीवित रहती हैं जबकि प्रिंट पर छपने वाली पत्रिकाएं अपनी विपणन रणनीति और अर्थ प्रबंधन की कुशलता से ही दीर्धजीवी हो पाती हैं। सो साहित्य के अनुरागी जनों के लिए ब्लाग जहां एक मुफ्त की जगह उपलब्ध कराता है वहीं इस माध्यम पर नियमित पत्रिका या विचार के फोरम मुफ्त चलाए जा सकते हैं। इसमें गति भी है और गुणवत्ता भी। इस तरह बाजार की संस्कृति का विस्तारक होने की आरोपी होने के बावजूद आप इस माध्यम पर बाजार के खिलाफ, उसकी अपसंस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं। इस मायने में यह बेहद लोकतांत्रिक माध्यम भी है। इसने पत्राचार की संस्कृति को ई-मेल के जरिए लगभग खत्म तो कर दिया है पर गति बढ़ा दी है, इसे सस्ता भी कर दिया है।
ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरतः
सही मायने में हिंदी समाज को ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरत है जिससे वह इस माध्यम का ज्यादा से ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर सके। यह प्रौद्योगिकी शायद इसीलिए निर्बल का बल भी कही जा सकती है। यह प्रौद्योगिकी उन शब्दों को मंच दे रही है जिन्हें बड़े नामों के मोह में फंसे संपादक ठुकरा रहे हैं। यह आपकी रचनाशीलता को एक आकार और वैश्विक विस्तार भी दे रही है। सही मायने में यह प्रौद्योगिकी साहित्य के लिए चुनौती नहीं बल्कि सहयोगी की भूमिका में है। इसका सही और रचनात्मक इस्तेमाल साहित्य के वैश्विक विस्तार और संबंधों की सघनता के लिए किया जा सकता है। रचनाकार को उसके अनुभव समृद्ध बनाते हैं। हिंदी का यह बन रहा विश्व समाज किसी भी भाषा के लिए सहयोगी साबित हो सकता है। हिंदी की अपनी ताकत पूरी दुनिया में महसूसी जा रही है। हिंदी फिल्मों का वैश्विक बाजार इसका उदाहरण है। एक भाषा के तौर हिंदी का विस्तार संतोषजनक ही कहा जाएगा किंतु चिंता में डालने वाली बात यही है कि वह तेजी से बाजार की भाषा बन रही है। वह वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा तो बनी है किंतु साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों में वह पिछड़ रही है। इसे संभालने की जरूरत है। साहित्य के साथ आम हिंदी भाषी समाज का बहुत रिश्ता बचा नहीं है। ऐसे में तकनीक, बाजार या जिंदगी की जद्दोजहद में सिकुड़ आए समय को दोष देना ठीक नहीं होगा। नयी तकनीक ने हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को ताकतवर ही बनाया है क्योंकि तकनीक भाषा, भेद और राज्य की सीमाओं से परे है। हमें नए मीडिया के द्वारा खोले गए अवसरों के उपयोग करने वाली पीढ़ी तैयार करना होगा। हिंदी का श्रेष्ठ साहित्य न्यू मीडिया में अपनी जगह बना सके इसके सचेतन प्रयास करने होंगें। हिंदी हर नए माध्यम के साथ चलने वाली भाषा है। आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की यह ताकत ही है कि देश के सर्वाधिक बिकने वाले दस अखबारों में अंग्रेजी का कोई अखबार नहीं है। ज्यादातर टीवी चैनल हिंदी या मिली जुली हिंदी जिसे हिंग्लिश कहा जा रहा है में अपनी बात कहने को कहने को मजबूर हैं। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। हिंदी की यह ताकत उसके उस आम आदमी की ताकत है जो आज भी 20 रूपए रोज पर अपनी जिंदगी जी रहा है। उस समाज को कोई तकनीक तोड़ नहीं सकती,कोई प्रौद्योगिकी तोड़ नहीं सकती। मेहनतकश लोगों की इस भाषा की इसी ताकत को महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद ने पहचान लिया था पर कुछ लोग जानकर भी इसे नजरंदाज करते हैं। हिंदी में आज एक बड़ा बाजार उपलब्ध है वह साबुन, शैंपो का है तो साहित्य का भी है। साहित्य की चुनौती यह भी है कि वह अपने को इस बाजार में खड़ा होने लायक बनाए। हिंदी का प्रकाशन जगत लगातार समृद्ध हो रहा है। इस फलते-फूलते प्रकाशन उद्योग का लेखक क्यों गरीब है यह भी एक बड़ा सवाल है। असल चुनौती यहीं है कि हिंदी समाज में किस तरह एक व्यवासायिक नजरिया पैदा किया जाए। क्या कारण है कि चेतन भगत तीन उपन्यास लिखकर अंग्रेजी बाजार में तो स्वीकृति पाते ही हैं ही हिंदी का बाजार भी उन्हें सिर माथे बिठा लेता है। उनकी किताबों के अनुवाद किसी लोकप्रिय हिंदी लेखक से ज्यादा बिक गए। हिंदी समाज को नए दौर के विषयों पर भी काम करना होगा। ऐसी कथावस्तु जिससे हिंदी जगत अनजाना है वह भी हिंदी में आए तो उसका स्वागत होगा। चेतन भगत की सफलता को इसी नजर से देखा जाना चाहिए।
इन सारी चुनौतियों के बीच भी हिंदी साहित्य को एक नया पाठक वर्ग नसीब हुआ है, जो पढ़ने के लिए आतुर है और प्रतिक्रिया भी कर रहा है। नई प्रौद्योगिकी ने इस तरह के विर्मशों के लिए मंच भी दिया है और स्पेस भी। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसी प्रौद्योगिकी ने हिंदी में एक तरह का लोकतंत्र भी विकसित किया है। यह हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को भी समर्थ करेगा जो अन्यान्य कारणों से उपेक्षा की शिकार रही हैं या होती आयी हैं।
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(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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आतंकवादः जरूरी है खबरों की गेटकीपिंग

-संजय द्विवेदी
आतंकवाद का जैसा वैश्विक चेहरा बन रहा है वह बहुत बदरंग है। मीडिया की लाचारी है कि वह इससे सीधे नहीं जूझ सकता। उसका संकट यह है कि यदि वह इसे ठीक तरीके से प्रस्तुत करता है तो उसके महिमामंडन का आरोप उस पर लगता है इसी तरह प्रस्तुत न करने पर सूचना के दबाए जाने का आरोप भी उस पर लग सकता है। ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी बहुत अलग हो जाती है। हमें यह मानना होगा कि आतंकवाद कोई साधारण अपराध नहीं है। हम उसे अन्य सामान्य अपराधों के समानांतर नहीं देख सकते। मीडिया में इसका कवरेज कहीं न कहीं इन ताकतों के हितसाधन के रूप में ही व्याख्यायित किया जाता है।
वैश्विक आतंकवाद से जूझ रही दुनिया के सामने जिस तरह की लाचारगी आज दिख रही है वैसी कभी देखी नहीं गयी। जाति, धर्म के नाम होते आए उपद्रवों और मारकाट को इससे जोड़कर देखा जाना ठीक नहीं है क्योंकि आतंकवादी ताकतें मानवता के सामने इतने संगठित रूप में कभी नहीं देखी गयीं। अगर आज इनका एक बड़ा संजाल दुनिया के भीतर खड़ा हुआ है तो यह साधारण नहीं है। ऐसे में भारत जैसे आतंकवाद के एक बड़े शिकार देश में, मीडिया की चुनौती बड़ी कठिन हो जाती है।
भारत जैसे देश में जहां विविध भाषा-भाषी, जातियों, धर्मों के लोग अपनी-अपनी सांस्कृतिक चेतना और परंपराओं के साथ सांस ले रहे हैं, आतंक को फलने- फूलने के अवसर मिल ही जाते हैं। हमारा उदार लोकतंत्र और वोट के आधार पर बननेवाली सरकारें भी जिस प्रामणिकता के साथ आतंकवाद के खिलाफ खड़ा होना चाहिए, खड़ी नहीं हो पातीं। जाहिर तौर पर ये लापरवाही, आतंकी ताकतों के लिए एक अवसर में बदल जाती है। ऐसे में भारतीय मीडिया की भूमिका पर विचार बहुत जरूरी हो जाता है कि क्या भारतीय मीडिया अपने आप में एक ऐसी ताकत बन चुका है जिससे आतंकवाद जैसे मुद्दे पर कोई अपेक्षा पाली जानी चाहिए। मुंबई हमलों के वक्त मीडिया कवरेज को लेकर जैसे सवाल उठे वे अपनी जगह सोचने के लिए विवश करते हैं लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि आतंकवाद जैसे गंभीर विषय पर संघर्ष के लिए क्या हमारा राष्ट्र- राज्य तैयार है। भारत जैसा महादेश जहां दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी रहती है में ऐसी क्या कमजोरी है कि हम आतंकवादी ताकतों का सबसे कमजोर निशाना हैं। आतंकवाद का बढ़ता संजाल दरअसल एक वैश्विक संदर्भ है जिसे समझा जाना जरूरी है। दुनिया के तमाम देश इस समस्या से जूझ रहे हैं। बात भारत और उसके पड़ोसी देशों की हो तो यह जानना भी दिलचस्प है कि आतंकवाद की एक बड़ी पैदावार इन्हीं देशों में तैयार हो रही है। भारतीय मीडिया के सामने यह बड़ा सवाल है कि वह आतंकवाद के प्रश्न पर किस तरह की प्रस्तुति करे। आप देखें तो पाकिस्तान हिंदुस्तानी मीडिया का एक प्रिय विषय है वह शायद इसलिए क्योंकि दोनों देशों की राजनीति एक-दूसरे के खिलाफ माहौल बनाकर अपने चेहरों पर लगी कालिख से बचना चाहती है। पाकिस्तान में जिस तरह के हालात लगातार बने हुए हैं उसमें लोकतंत्र की हवा दम तोड़ती नजर आ रही है। जिसके चलते वहां कभी अच्छे हालात बन ही नहीं पाए। भारत धृणा, पाकिस्तानी राजनीति का मूलमंत्र है वहीं कश्मीर का सवाल इस भावना को खाद-पानी देता रहा है। पर बात अब आगे जा चुकी है,बात अब सिर्फ पाक की नहीं है उन अतिवादी संगठनों की भी है जो दुनिया के तमाम देशों में बैठकर एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसकी अंत नजर नहीं आता। पाक की सरकार भी इनके आगे बेबस नजर आती है। यहां भारतीय संदर्भ में यह रेखांकित करना जरूरी है कि हमारा देश भी लगातार ऐसे खतरों से जूझने के बावजूद कोई ऐसी कारगर विधि विकसित नहीं कर पाया जिससे आतंकवाद के विस्तार या प्रसार को रोक पाने में माकूल कदम कहा जा सके। यह पूरा मामला भारतीय राष्ट्र- राज्य की विफलता के रूप में सामने आता है। ऐसे में आतंकवाद की तरफ देखने के मीडिया के रवैये पर बातचीत करने के बजाए हमें सोचना होगा कि क्या हम आतंकवाद को कोई समस्या वास्तव में मान रहे हैं या हमने इसे अपनी नियती मान लिया है। दूसरा सवाल यह उठता है कि अगर हम इसे समस्या मानते हैं तो क्या इसके ईमानदार हल के लिए सच्चे मन से तैयार हैं। मीडिया के इस प्रभावशाली युग में मीडिया को तमाम उन चीजों का भी जिम्मेदार मान लिया जाता है जिसके लिए वह जिम्मेदार होता नहीं हैं। मीडिया सही अर्थों में घटनाओं के होने के बाद उसकी प्रस्तुति या विश्लेषण की ही भूमिका में नजर आता है। आतंकवाद जैसे प्रश्न के समाधान में मीडिया एक बहुत सामान्य सहयोगी की ही भूमिका निभा सकता है। आज भारत जैसा देश आतंकवाद के अनेक रूपों से टकरा रहा है। एक तरफ पाक पोषित आतंकवाद है तो दूसरी ओर वैश्विक इस्लामी आतंकवाद है जिसे अलकायदा,तालिबान जैसे संगठन पोषित कर रहे हैं। इसी तरह पूर्वोत्तर राज्यों में चल रहा आतंकवाद तथा अति वामरूझानों में रूचि रखने वाला नक्सल आतंक जिसने वैचारिक खाल कुछ भी पहन रखी हो, हैं वे भारतीय लोकतंत्र के विरोधी ही। ऐसे समय में जब आतंकवाद का खतरा इतने रूपों में सामने हो तो मीडिया के किसी भी माध्यम में काम करने वाले व्यक्ति की उलझनें बढ़ जाती हैं।
एक तो समस्या की समझ और उसके समाधान की दिशा में सामाजिक दबाव बनाने की चुनौती सामने होती है तो दूसरी ओर मीडिया की लगातार यह चिंता बनी रहती है कहीं वह इन प्रयासों में जरा से विचलन से भारतीय राज्य या लोकतंत्र का विरोधी न मान लिया जाए। घटनाओं के कवरेज के समय उसके अतिरंजित होने के खतरे तो हैं पर साथ ही अपने पाठक और दर्शक से सच बचाने की जिम्मेदारी भी मीडिया की ही है। यह बात भी सही है कि तालिबान और अलकायदा के नाम पर कुछ बेहद फूहड़ प्रस्तुतियां भी मीडिया में देखने को मिलीं जिनकी आलोचना भी हुयी। इतने संवेदनशील प्रश्न पर मीडिया का जरा भी विचलन उसे उपेक्षा और उपहास का पात्र जरूर बनाता है। किंतु यह कहने और स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए हर संकट के समय भारतीय मीडिया ने अपने देश गौरव तथा आतंकवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट किया है। मुंबई धमाकों के समय भारतीय मीडिया की भूमिका को काफी लांछित किया गया और उसके सीधे प्रसारण को कुछ लोगों की मौत का जिम्मेदार भी माना गया। किंतु ऐसे प्रसंगों पर सरकार की जबाबदेही सामने आती है। मीडिया अपनी क्षमता के साथ आपके साथ खड़ा है। किस प्रसंग का प्रसारण करना किसका नहीं इसका नियमन मीडिया स्वयं नहीं कर सकता। जब सीधे प्रसारण को रोकने की बात सेना की ओर से कही गयी तो मीडिया ने तत्काल इस पर अमल किया। भारत में इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी शैशव अवस्था में है उसे एक लंबी दूरी तय करके परिपक्वता प्राप्त करनी है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि आतंकवाद जैसे राष्ट्रीय प्रश्न पर मीडिया की भूमिका पर विचार जरूर हो। उसके कवरेज की सीमाएं जरूर तय हों। खासकर ऐसे मामलों में कि जब सेना या सुरक्षा बल कोई सीधी लड़ाई लड़ रहे हों। मीडिया पर सबसे बड़ा आरोप यही है कि वह अपराध या आतंकवाद के महिमामंडन का लोभ संवरण नहीं कर पाता। यही प्रचार आतंकवादियों के लिए मीडिया आक्सीजन का काम करता है। यह गंभीर चिंता का विषय है। इससे आतंकियों के हौसले तो बुलंद होते ही हैं आम जनता में भय का प्रसार भी होता है। विचारक बौसीओऊनी लिखते हैं कि – वास्तव में संवाददाता पूर्णतया सत्य खबरों का विवरण नहीं देते । परिणामतः वे इस प्रक्रिया में एक विषयगत भागीदार बन जाते हैं। ये मुख्यतया समाचार लेखक ही होते हैं। आतंकवादी इन स्थितियों का पूर्ण लाभ उठा लेते हैं औऱ बड़ी ही दक्षतापूर्वक इन जनमाध्यमों का उपयोग अपने स्वार्थ एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर लेते हैं।
जाहिर तौर पर देश जब एक बड़ी लड़ाई से मुखातिब है तो खास संदर्भ में मीडिया को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। आज असहमति के अधिकार के नाम पर देश के भीतर कई तरह के सशस्त्र संघर्ष खड़े किए जा रहे हैं, लोकतंत्र में भरोसा न करने वाली ताकतें इन्हें कई बार समर्थन भी करती नजर आती हैं। यह भी बड़ा गजब है कि लोकतंत्र में आस्था न रखने वाले, खून-खराबे के दर्शन में भरोसा करने वालों के प्रति भी सहानुभूति रखनेवाले मिल जाते हैं। राज्य या पुलिस अथवा सैन्य बलों के अतिवाद पर तो विचार- जांच करने के लिए संगठन हैं किंतु आतंकवादियों या नक्सलियों के खिलाफ आमजन किसका दरवाजा खटखटाएं। यह सवाल सोचने को विवश करता है। क्रांति या किसी कौम का राज लाना और उसके माध्यम से कोई बदलाव होगा ऐसा सोचने मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा ही है। शासन की तमाम प्रणालियों में लोकतंत्र ही अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद सबसे श्रेष्ठ प्रणाली मानी गयी है। ऐसे में मीडिया को यहां सावधान रहने की जरूरत है कि ये ताकतें कहीं उसका इस्तेमाल न कर ले जाएं। सूचना देने के अपने अधिकार के साथ ही साथ हमारी एक बड़ी जिम्मेदारी अपने देश के प्रति भी है। अतएव किसी भी रूप में आतंकवादी हमारी ताकत से प्रचार या मीडिया आक्सीजन न पा सकें यह देखना जरूरी है। विद्वान विलियम कैटन लिखते हैं कि – आतंकवाद बुनियादी रूप से एक रंगमंच की तरह होता है। आतंकवादी गतिविधियों के द्वारा यह समूह जनता में अपनी भूमिकाएं अभिनीत करता है एवं जनमाध्यमों एवं मीडिया द्वारा इसे लोंगों तक सुगमता से पहुंचाता है। हालांकि जनमाध्यमों के बिना भी वह अपना आतंक आम आदमी तक बना ही लेता है।
ऐसे में मीडिया की ताकत का सावधानीपूर्वक उपयोग जरूरी हो जाता। हिंदुस्तानी मीडिया आपातकाल की काली यादों के चलते किसी तरह की सरकारी आचार संहिता को लेकर बेहद एलर्जिक है, ऐसे में मीडिया को अपनी राह खुद बनानी होगी ताकि उसका दुरूपयोग न किया जा सके। इसके लिए मीडिया समूह अपनी तरफ से आचार संहिता बना सकते हैं। कुछ समूह और संगठन ऐसी पहल करते हैं किंतु व्यवहार में देखा गया है कि वे इसका पालन करने में विफल रहे जाते हैं। ऐसे में मीडिया को खबरों की गेटकीपिंग पर खास जोर देना चाहिए ताकि इसका दुरूपयोग रोका जा सके। दूसरा बड़ा काम जनमत निर्माण का है, अपने लेखन और प्रस्तुति से कहीं भी मीडिया को आतंकवाद के प्रति नरम रवैया नहीं अपनाना चाहिए ताकि जनता में आतंकी गतिविधियों के प्रति समर्थन का भाव न आने पाए। आतंकवाद के खिलाफ मुंबई हमलों के बाद मीडिया ने जिस तरह की बहस की शुरूआत की उसे साधारण नहीं कहा जा सकता। उसकी प्रशंसा होनी चाहिए। हमारी आतंरिक सुरक्षा से जुड़े प्रश्न जिस तरह से उठाए गए वे शायद पहली बार इतनी प्रखरता से सामने आए। हमें देखना होगा कि आतंकवाद का सवाल टीआरपी के दीवानों के उपयोग का विषय नहीं है। ऐसे सवालों पर भी अगर हम टीआरपी तलाश रहे हैं तो इस देश का भगवान ही मालिक है। हमें देखना है कि हमारी कोई भी गतिविधि इस राज्य के तंत्र को कमजोर करने वाली साबित न हो। राजनीतिक नेतृत्व की विफलता को रेखांकित करने के अलावा हमारे गुप्तचर तंत्र और उससे जुड़ी तमाम खामियों पर एक सार्थक विमर्श सामने आया। आज के दौर में जिस तरह से मीडिया एक प्रभावशाली भूमिका में सामने आया है मीडिया से उम्मीदें बहुत बढ़ गयीं हैं। शायद इसीलिए मीडिया की आलोचना बहुत हो रही है क्योंकि सभी तंत्रों से निराश लोगों की उम्मीदें आखिर में मीडिया पर टिकी हैं। इन उम्मीदों को पूरा करना और उस पर खरा उतरना मीडिया की जिम्मेदारी है। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि आतंकवाद की खबर अन्य खबरों की तरह एक सामान्य खबर है यह सोच भी बदलनी चाहिए। इससे आतंकवाद के प्रति मीडिया के खास रवैये का प्रगटीकरण भी होगा और मीडिया में उत्तरदायित्वपूर्ण भावना का विकास होगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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शाहरूख और ठाकरेः जोड़ी क्या बनाई

-संजय द्विवेदी
बाल ठाकरे, शाहरूख एक साथ दोनों हो तो टीवी चैनलों के न्यूज रूम की रंगत ही बदल जाती है। एक बार बालीबुड की एक अभिनेत्री ने कहा था यहां तो दो ही चीजें बिकती हैं एक सेक्स, दूसरा शाहरूख। लेकिन मीडिया की मंडी में ठाकरे भी बिकता है। बाल हों या राज दोनो चलेगें। इस हफ्ते तो टीवी न्यूज चैनलों का मौजा ही मौजा हो गया। ठाकरे और शाहरूख दोनों को एक साथ पाकर खबरिया चैनल तो धन्य-धन्य हो रहे थे। वाह-वाह रामजी जोड़ी क्या बनाई। सुबह से शाम बस बिकने वाला मसाला। यहां क्या नहीं था। थ्रिल, सस्पेंस और ड्रामा सब मौजूद था। बाकी के लिए शाहरूख की फिल्मों की क्लीपिंग्स और ठाकरे के लिए सरकारराज जैसी फिल्मों के कतरे। सारे एंकर उत्साह में। कुछ भी पूछो, किसी से भी पूछो। इस फिल्मी तमाशे में सब शामिल थे। क्या हीरो-हीरोइन, क्या नेता, क्या जनता, क्या पुलिस। ऐसे अनोखे संयोग घटित कहां होते हैं। टीआरपी की चिंता नहीं थी। विषय की चिंता भी नहीं थी, बस हमें खींचे जाना है।
कोई ठाकरे को थप्पड़ दे रहा था तो कोई उन्हें फ्लाप बता रहा था। सच तो यह है कि मीडिया किसी का नहीं है। कल तक ठाकरे को मुंबई का शेर बताने वाला मीडिया आज उन्हें चूहा साबित करने पर जुटा था। सरकार हैं भी ऐसे, कहां परवाह करते हैं कि कौन क्या कहता है। वे तो जिन्ना साहिब की तरह की डायरेक्ट एक्शन के पक्ष में रहते हैं। डरे लोगों को डराकर अपना सरकारराज चलाते आए ठाकरे साहब को शाहरूख ने थोड़ी हिम्मत क्या दिखाई मीडिया उनके पीछे ही पड़ गया। शाहरूख विदेश में पर देश में कैमरा तो उन्हें ही फालो कर रहा था। ठाकरे और शाहरूख दोनों को ही मजा आ रहा था इस खेल में। उन्हें आमने-सामने आने की क्या जरूरत। मीडिया है न इसके लिए। ऐसा लाइव तमाशा मुंबई ने ताज हमले के बाद ही देखा है। मीडिया इसीलिए ठाकरे परिवार की लंबी आयु की दुआ करता है। वो तो भला हो कि बाला साहब थोड़ा बीमार हैं , इसलिए मीडिया ने राज ठाकरे को नेता बनाया। कल्पना करें अगर टीवी चैनल न होते राज ठाकरे नाम की बीमारी का नाम देशवासी कितने सालों में जान पाते। लेकिन यहां तो सब कुछ तैयार, इंस्टेंट फूड की तरह। राज ठाकरे को मीडिया ने महानायक बना दिया।
मीडिया को लाइव तमाशे भाते हैं। दृश्य माध्यम होने के नाते यह उनकी मजबूरी भी है। उन्हें कुछ ड्रामा और तमाशा चाहिए तभी तो दर्शक बंधकर बैठेगा। टीआरपी भूत तभी पकड़ में आएगा। टीआरपी ऐसी ही आती है। वह बाबा रामदेव से आती है, राखी सावंत से आती है, राजू श्रीवास्तव से आती है और ठाकरे से आती है। इस मंत्र को ठाकरे परिवार ने पकड़ लिया है। वे जानते हैं कि राहुल भैया की तरह गांव की धूल फांकने से क्या होगा, आडवानी की तरह रथयात्राएं करने से क्या होगा, शिवराज सिंह चौहान की तरह यात्राओं से क्या होगा। मातोश्री में बैठो, मनसे के दफ्तर में बैठो अपने गुर्गों को हुकुम दो जाओ दो टैक्सियां तोड़ दो। वे दो टैक्सियां की तोड़फोड़ दिखाकर हम मीडिया वाले आपको महानायक बना देंगें। देखिए और जानिए कि मराठी अस्मिता के लिए किस तरह हम तोड़फोड़ कर रहे हैं। फिर चर्चा, विमर्श के लिए शाम को देश के सारे महा एंकर मैदान में उतर पड़ेंगें। मजा नहीं आ रहा तो शाहरूख, सचिन या अमिताभ के खिलाफ अपने भोंपू पेपर में लिख देते हैं। पेपर पढ़कर भी टीवी न्यूज चैनल वाले खबर बना लेते हैं। काय को टेंशन लेने का। सब बताएंगें कि बाला साहब ने क्या लिखा। सामना पेपर को खरीदने की जरूरत नहीं, मुंबईवासियों पूरा पेपर टीवी वाले पढ़कर बताएंगें। दो रूपए कायकू खर्च करने का, बड़ा पाव खाने का और टीवी देखने का। टीवी वाला सब बताता है,कल मुंबई में क्या होने का। टीवी चैनल के रहते फिकर काहे की। बाल ठाकरे साहब क्या सोचने वाला है यह भी एंकर बताता है। बाकी समझ नहीं आए तो ग्राफिक्स से बताते हैं।
शाहरुख भाई भी समझदार निकले, खुद तो फिल्म के प्रोमोशन के लिए विदेश चले गए। देश में फिल्म का ठेका ठाकरे भाई को दे गए अंकल, फिल्म हिट करा दो। सो बालासाहब लग गए बोले फिल्म से कोई विरोध नहीं, सारा झगड़ा शाहरूख से है। फिल्म नहीं चलेगी। बाल ठाकरे सहित पूरी महाराष्ट्र सरकार फिल्म के प्रोमोशन में लग गयी। देखा भाई कितना सयाणा है अपना किंग खान। पूरी मुंबई को बेवकूफ बनाकर अपना पिक्चर बेच दिया। मीडिया वाले भाई भी सहप्रयोजक हो गए। मीडिया को लगता है वह शाहरूख को इस्तेमाल कर रहा है, हमें लगता है कि भाई कोई घाटे में नहीं सबने सबको इस्तेमाल किया। ठाकरे, शाहरूख और मीडिया तीनों को एक दूसरे का शुक्रगुजार होना चाहिए। क्योंकि ये हैं ही एक-दूजे के लिए। हमारी दुआ है कि वेलेटाइन डे की वेला पर इनका प्यार और बढ़े धंधा व रोजगार बढ़े। इसी में सबकी रोजी रोटी चलती रहेगी। बोलिए टीआरपी महारानी की जय।

चल रही ज्ञान पर एकाधिकार की साजिशः सुलभ


बिलासपुर। कथाकार एवं संस्कृतिकर्मी ह्रषिकेश सुलभ का कहना है कि भूमंडलीकरण के युग में ज्ञान के क्षेत्र में एकाधिकार की साजिश चल रही है। जो भी सुंदर है, शुभ है और मंगल है उसका हरण हो रहा है। मीडिया का स्वरूप भस्मासुर की तरह है लेकिन वहां भी मंगल और शुभ है, जिसके लिए तमाम पत्रकार संघर्ष कर रहे हैं। वर्तमान में लोग साहित्यिक पत्रकारिता के प्रति उदासीन हैं, इसलिए सच सामने नहीं आ पा रहा है। श्री सुलभ बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के लायंस भवन में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में कथादेश ( दिल्ली) के संपादक हरिनारायण को मुख्यअतिथि प्रख्यात कवि,कथाकार एवं उपन्यासकार विनोदकुमार शुक्ल ने यह सम्मान प्रदान किया। सम्मान के तहत शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह, प्रमाणपत्र और ग्यारह हजार रूपए नकद प्रदान कर साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में किसी यशस्वी संपादक को सम्मानित किया जाता है। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा (इंदौर) के संपादक रहे स्व. श्यामसुंदर व्यास और दस्तावेज ( गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथप्रसाद तिवारी को दिया जा चुका है।
श्री सुलभ ने पत्रकारिता के सामने मौजूद संकटों की विस्तार से चर्चा की और कहा कि वर्तमान में उद्योगों के साथ अखबारों की संख्या भी बढ़ती जा रही है ऐसे में साहित्य व पत्रकारिता से जुड़े लोगों को साहस दिखाने की जरूरत है ताकि मीडिया पर गलत तत्वों का कब्जा न हो जाए। उन्होंने कहा कि कथादेश के संपादक हरिनारायण लोकमंगल के लिए काम रहे हैं, उनका सम्मान गौरव की बात है।
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने कहा कि इस सम्मान ने प्रारंभ से ही अपनी प्रतिष्ठा बना ली है। एक अच्छा पाठक होने के नाते हरिनारायण को यह सम्मान देते हुए मैं प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं। कवि-कथाकार जया जादवानी ने कहा कि शब्दों का जादू मनुष्य को जगाता है, दुख है कि पत्रकारिता इस जादू को खो रही है। पत्रकारिता समाज के मन से मनुष्य के मन तक का सफर कर सकती है। साहित्य मनुष्य के मन को सूकून देता है। वरिष्ठ पत्रकार और छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर ने कहा कि मीडिया और पत्रकारिता दो अलग ध्रुव बन गए हैं। समाचारों में मिलावट आज की एक बड़ी चिंता है। इसी तरह खबरों की भ्रूण हत्या भी हो रही है।
बख्शी सृजनपीठ, भिलाई के अध्यक्ष बबनप्रसाद मिश्र का कहना था कि जो समाज पूर्वजों के योगदान को भूल जाता है वह आगे नहीं बढ़ सकता। निरक्षर भारत की अपेक्षा आज के साक्षर होते भारत में समस्याएं बढ़ रही हैं। ऐसे समय में साहित्यकारों को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। साहित्य अकादमी, दिल्ली के सदस्य और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने कहा कि इस विपरीत समय में साहित्यिक पत्रिका निकालना बहुत कठिन कर्म है। कथादेश एक अलग तरह की पत्रिका है, इसमें साहित्यिक पत्रकारिता के तेवर हैं और देश के महत्वपूर्ण लेखकों के साथ नए लेखकों को भी इसने पहचान दी है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह ने कहा कि वर्तमान की चुनौतियों का सामना हम तभी कर सकते हैं जब सहित्य, पत्रकारिता और समाज तीनों मिलकर काम करें। उन्होंने कहा कि यह सम्मान साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों का सेतु बनता हुआ दिख रहा है। मीडिया विमर्श के संपादक डा. श्रीकांत सिंह ने साहित्य के संकट की चर्चा करते हुए कहा कि संकट के दौर का साहित्य ही सच्चा और असरदार साहित्य होता है। पत्रकारिता के अवमूल्यन पर उन्होंने कहा कि पाठक सूचनाओं से वंचित हो रहे हैं। भूमंडलीकरण के नशे में मीडिया पैसे के पीछे भाग रहा है, इससे देश या प्रदेश का विकास नहीं होगा। साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका दूर्वादल ( बस्ती, उप्र) के संपादक डा. परमात्मानाथ द्विवेदी ने समाज में बाजार की भूमिका की चर्चा करते हुए कहा कि इससे सारे रिश्ते खत्म हो रहे हैं। इस स्थिति से हमें सिर्फ साहित्य ही जूझने की शक्ति दे सकता है।
इस मौके पर सम्मानित हुए संपादक हरिनारायण ने अपने संबोधन में कहा कि इसे छद्म विनम्रता ही माना जाएगा यदि मैं कहूं कि इस सम्मान को प्राप्त कर मुझे खुशी नहीं हो रही है। बल्कि इसे मैं एक उपलब्धि की तरह देखता हूं। मेरी जानकारी में साहित्यिक पत्रकारिता के लिए यह तो अकेला सम्मान है। उन्होंने कहा कि मैंने शुऱू से रचना को महत्व दिया। कथादेश में संपादकीय न लिखने के प्रश्न का जवाब देते हुए हरिनारायण ने कहा कि इसे लेकर शुरू से ही मेरे मन में द्वंद रहा है। क्योंकि वर्तमान परिवेश में अधिकतर संपादकीयों में अपने गुणा-भाग, आत्मविज्ञापन, झूठे दावे, सतही वैचारिक मुद्रा,उनके अंतविर्रोध या रचना की जगह अपने हितकारी लेखकों का अतिरिक्त प्रोजेक्शन ही नजर आता है। जिससे साहित्य का वातावरण दूषित हुआ है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष श्यामलाल चतुर्वेदी ने कहा कि अखबारों ने जमीनी समस्याओं को निरंतर उठाया है किंतु आज उनपर सवाल उठ रहे हैं तो उन्हें अपनी छवि के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि शब्दों की सत्ता से भरोसा उठ गया तो कुछ भी नहीं बचेगा।
कार्यक्रम के प्रारंभ में स्वागत भाषण बेनीप्रसाद गुप्ता ने किया। संचालन छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर हिंदी की प्राध्यापक डा. सुभद्रा राठौर ने तथा आभार प्रदर्शन बिलासपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष शशिकांत कोन्हेर ने किया। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के अनेक महत्वपूर्ण रचनाकार, साहित्यकार, पत्रकार एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे। जिनमें प्रमुख रूप से रविवार डाट काम के संपादक आलोकप्रकाश पुतुल, पत्रकार नथमल शर्मा, कथाकार सतीश जायसवाल, रामकुमार तिवारी, संजय द्विवेदी, भूमिका द्विवेदी, कपूर वासनिक,डा. विनयकुमार पाठक, डा. पालेश्वर शर्मा, सोमनाथ यादव, अचिंत्य माहेश्वरी, प्रवीण शुक्ला, हर्ष पाण्डेय, यशवंत गोहिल, हरीश केडिया, बजरंग केडिया, पूर्व विधायक चंद्रप्रकाश वाजपेयी, बलराम सिंह ठाकुर, पं. रामनारायण शुक्ल, व्योमकेश त्रिवेदी आदि मौजूद रहे। इस अवसर मुख्यअतिथि विनोदकुमार शुक्ल ने मीडिया विमर्श के प्रभाष जोशी स्मृति अंक का विमोचन किया। इसके अलावा उप्र के बस्ती जिले से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका दूर्वादल के नवीन अंक का विमोचन भी हुआ।

सूचना तंत्र की ताकत के सामने नतमस्तक हम


सूचना नहीं सूचना तंत्र की ताकत के आगे हम नतमस्तक खड़े हैं। यह बात हमने आज स्वीकारी है, पर कनाडा के मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकुलहान को इसका अहसास साठ के दशक में ही हो गया था। तभी शायद उन्होंने कहा था कि ‘मीडियम इज द मैसेज’ यानी ‘माध्यम ही संदेश है।’ मार्शल का यह कथन सूचना तंत्र की महत्ता का बयान करता है। आज का दौर इस तंत्र के निरंतर बलशाली होते जाने का समय है। नई सदी की चुनौतियां इस परिप्रेक्ष्य में बेहद विलक्षण हैं। जा रही सदी ने सूचना तंत्र के उभार को देखा है, उसकी ताकत को महसूस किया है। आने वाली सदी में यह सूचना तंत्र या सूचना प्रौद्योगिकी ही हर युद्ध की नियामक होगी, जाहिर है नई सदी में लड़ाई हथियारों से नहीं सूचना की ताकत से होनी है। जर्मनी को याद करें तो उसने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के पूर्व जो ऐतिहासिक जीतें दर्ज की वह उसकी चुस्त-दुरुस्त टेलीफोन व्यवस्था का ही कमाल था। आज भारत जैसे विकासशील और बहुस्तरीय समाज रचना वाले देश ने भी सूचना प्रौद्योगिकी के इस सर्वथा नए क्षेत्र के प्रति उत्साह दिखाया है। ये संकेत नई सदी की सबसे बड़ी चुनौती से मुकाबले की तैयारी तो है ही साथ ही इसमें एक समृद्ध भारत बनाने के सपने भी छिपे हैं। 1957 में पहले मानव निर्मित उपग्रह को छोड़ने से लेकर आज हम ‘साइबर स्पेस’ के युग तक पहुंच गए हैं। सूचना आज एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गई है। सत्तर के दशक में तो पूंजीवादी एवं साम्यवादी व्यवस्था के बीच चल रही बहस और जंग इसी सूचना तंत्र पर लड़ी गई, एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल होता यह सूचना तंत्र आज अपने आप में एक निर्णायक बन गया है। समाज-जीवन के सारे फैसले यह तंत्र तरवा रहा है। सच कहें तो इन्होंने अपनी एक अलग समानांतर सत्ता स्थापित कर ली है। रूस का मोर्चा टूट जाने के बाद अमरीका और उसके समर्थक देशों की बढ़ी ताकत ने सूचना तंत्र के एकतरफा प्रवाह को ही बल दिया है। सूचना तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण ने अमरीकी राजसत्ता और उसके समर्थकों को एक कुशल व्यापारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बाजार और सूचना के इस तालमेल में पैदा हुआ नया चित्र हतप्रभ करने वाला है। पूंजीवादी राजसत्ता इस खेल में सिंकदर बनी है। ये सूचना तंत्र एवं पूंजीवादी राजसत्ता का खेल आप खाड़ी युद्ध और उसके बाद हुई संचार क्रांति से समझ सकते हैं। आज तीसरी दुनिया को संचार क्रांति की जरूरतों बहुत महत्वपूर्ण बताई जा रही है। अस्सी के दशक तक जो चीज विकासशील देशों के लिए महत्व की न थी वह एकाएक महत्वपूर्ण क्यों हो गई । खतरे का बिंदू दरअसल यही है। मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था से ग्रस्त पश्चिमी देशों को बाजार की तलाश तथा तीसरी दुनिया को देशों में खड़ा हो रहा, क्रयशक्ति से लबरेज उपभोक्ता वर्ग वह कारण हैं जो इस दृश्य को बहुत साफ-साफ समझने में मदद करते हैं । पश्चिमी देशों की यही व्यावसायिक मजबूरी संचार क्रांति का उत्प्रेरक तत्व बनी है। यह सिलसिला तीसरी दुनिया के मुल्कों से सुंदरियों तलाशने से शुरू हुआ है। ऐश्वर्या, सुष्मिता, युक्ता मुखी, डायना हेडेन भारतीय संदर्भ में ऐसे ही उदाहरण हैं । उपभोग की लालसा तैयार करने में जुटे ये लोग दरअसल तीसरी दुनिया की बड़ी आबादी में अपना उपभोक्ता तलाश रहे हैं। सूचना के लिए पश्चिमी राष्ट्रों पर विकासशील देशों की निर्भरता जग जाहिर है। यह निर्भरता विश्व में अशांति व हथियार उद्योग को बल देने में सहायक बनी है। विकासशील देशों में आज भी सीधा संवाद नहीं हो पाता । संवाद कराने में विकसित राष्ट्र बिचौलिए की भूमिका निभाते हैं। निर्भरता का आलम यह है कि आज भी हम अपने देश की खबरों को ही बीबीसी, सीएनएन, वॉयस ऑफ अमरीका, रेडियो जापान या विदेशी एजेंसियों से प्राप्त करते हैं। विकसित देश, विकासशील देश, देशों की इस निर्भरता का फायदा उठाकर हमें वस्तु दे रहे हैं, पर उसकी तकनीक को छिपाना चाहते हैं। मीडिया विश्लेषक मैकब्राइड ने शायद इसी खतरे को पहचानकर ही कहा था कि ‘विकासशील देशों द्वारा विदेशी तकनीक का इस्तेमाल ज्यादा खतरनाक होगा। इसलिए जब तक विकासशील देश आत्मनिर्भर नहीं होते तब तक उन्हें पारंपरिक और वैयक्तिक संचार माध्यमों का प्रयोग करना चाहिए’। लेकिन बाजार के इस तंत्र में मैकब्राइड की बात अनसुनी कर दी गई। हम देखें तो अमरीका ने लैटिन देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से कब्जा कर उन्हें अपने ऊपर निर्भर बना लिया। अब पूरी दुनिया पर इसी प्रयोग को दोहराने का प्रयास जारी है। निर्भरता के इस तंत्र में अंतर्राट्रीय संवाद एजेंसियां, विज्ञापन एजेसियां, जनमत संस्थाएं, व्यावसायिक संस्थाए मुद्रित एवं दृश्य-श्रवण सामग्री, अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार कंपनियां, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियां सहायक बनी हैं ।

अपसंस्कृति और उपभोक्तावाद के प्रवक्ता



बाजार की माया और मार इतनी गहरी है कि वह अपनी चकाचौंध से सबको लपेट चुकी है, उसके खिलाफ हवा में लाठियां जरूर भांजी जा रही हैं, लेकिन लाठियां भांज रहे लोग भी इसकी व्यर्थता को स्वीकार करने लगे हैं। स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में पली-बढ़ी कांग्रेस हो या नवस्वदेशीवाद की प्रवक्ता भाजपा, सब इस उपभोक्तावाद, विनिवेश और उदारीकरण की त्रिवेणी में डुबकी लगा चुके हैं।टीवी चैलनों पर मचा धमाल इससे अलग नहीं है।देश में सैकड़ों चैनल रात-दिन कुछ न कुछ उगलते रहते हैं। इन विदेशी-देशी चैनलों का आपसी युद्ध चरम पर है।ज्यादा से ज्यादा बाजार ,विज्ञापन एवं दर्शक कैसे खींचे जाएं सारा जोर इसी पर है। जाहिर है इस प्रतिस्पर्धा में मूल्य, नैतिकता एवं शील की बातें बेमानी हो चुकी हैं। होड़ नंगेपन की है, बेहूदा प्रस्तुतियों की है और जैसे-तैसे दर्शकों को बांधे रखने की है। टीवी चैनलों पर चल रहे धारावाहिकों में ज्यादातर प्रेम-प्रसंगों, किसी को पाने-छोड़ने की रस्साकसी एवं विवाहेतर संबंधों के ही इर्द-गिर्द नाचते रहते हैं। वे सिर्फ हंसी-मजाक नहीं करते, वे माता-पिता के साथ परिवार व बच्चों के बदलते व्यवहार की बानगी भी पेश करते हैं । अक्सर धारावाहिकों में बच्चे जिसे भाषा में अपने माता-पिता से पेश आते हैं, वह आश्चर्यचकित करता है। इन कार्यों से जुड़े लोग यह कहकर हाथ झाड़ लेते हैं कि यह सारा कुछ तो समाज में घट रहा है, लेकिन क्या भारत जैसे विविध स्तरीय समाज रचना वाले देश में टीवी चैनलों से प्रसारित हो रहा सारा कुछ प्रक्षेपित करने योग्य है ? लेकिन इस सवाल पर सोचने की फुसरत किसे है ? धार्मिक कथाओं के नाम भावनाओं के भुनाने की भी एक लंबी प्रक्रिया शुरू है। इसमें देवी-देवताओं के प्रदर्शन तो कभी-कभी ‘हास्य जगाते हैं। देवियों के परिधान तो आज की हीरोइनों को भी मात करते हैं। ‘धर्म’ से लेकर परिवार, पर्व-त्यौहार, रिश्तें सब बाजार में बेचे–खरीदें जा रहे हैं। टीवी हमारी जीवन शैली, परंपरा के तरीके तय कर रहा है। त्यौहार मनाना भी सिखा रहा है। नए त्यौहारों न्यू ईयर, वेलेंटाइन की घुसपैठ भी हमारे जीवन में करा रहा है। नए त्यौहारों का सृजन, पुरानों को मनाने की प्रक्रिया तय करने के पीछ सिर्फ दर्शक को ढकेलकर बाजार तक ले जाने और जेबें ढीली करो की मानसिकता ही काम करती है। जाहिर है टीवी ने हमारे समाज-जीवन का चेहरा-मोहरा ही बदल दिया है। वह हमारा होना और जीना तय करने लगा है। वह साथ ही साथ हमारे ‘माडल’ गढ़ रहा है। परिधान एवं भाषा तय कर रहा है। हम कैसे बोलेंगे, कैसे दिखेंगे सारा कुछ तय करने का काम ये चैनल कर रहे हैं । जाहिर है बात बहुत आगे निकल चुकी है। प्रसारित हो रही दृश्य-श्रव्य सामग्री से लेकर विज्ञापन सब देश के किस वर्ग को संबोधित कर रहे हैं इसे समझना शायद आसान नहीं है। लेकिन इतना तय है कि इन सबकालक्ष्य सपने दिखाना, जगाना और कृत्रिम व अंतहीन दौड़ को हवा देना ही है। जीवन के झंझावातों, संघर्षों से अलग सपनीली दुनिया, चमकते घरों, सुंदर चेहरों के बीच और यथार्थ की पथरीली जमीन से अलग ले जाना इन सारे आयोजनों का मकसद होता है। बच्चों के लिए आ रहे कार्यक्रम भी बिना किसी समझ के बनाए जाते हैं। गंभीरता के अभाव तथा ‘जैक आफ आल’ बनने की कोशिशों में हर कंपनी और निर्माता हर प्रकार के कार्यक्रम बनाने लगता है। भले ही उस की प्रारंभिक समझ भी निर्माता के पास न हो। हो यह रहा है कि धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक, बच्चों से जुड़े हर कार्यक्रम को बनाने वाले चेहरे वही होते है। गुलजार जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें तो प्रायः सब अपनी अधकचरी समझ ही थोपते नजर आते हैं। ऐसे हालात में समाज टीवी चैनलों के द्वारा प्रसारित किए जा रहे उपभोक्तावाद, पारिवारिक टूटन जैसे विषयों का ही प्रवक्ता बन गया है। एम टीवी, फैशन तथा अंग्रेजी के तमाम चैनलों के अलावा अब तो भाषाई चैनल भी ‘देह’ के अनंत ‘राग’ को टेरते और रूपायित करते दिखते हैं। ‘देहराग’ का यह विमर्श 24 घंटे मन को कहां-कहा ले जाता है व जीवन-संघर्ष में कितना सहायक है शायद बताने की आवश्यकता नहीं है।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

क्या खामोश मौत मर जाएगा दूरदर्शन

नए बाजार में खुद को तलाशता एक जनमाध्यम
- संजय द्विवेदी
अगर किसी देश का परिचय पाना है तो उसका टेलीविजन देखना चाहिए। वह उस राष्ट्र का व्यक्तित्व होता है। - पीसी जोशी पैनल


आज 2009 में खड़े होकर हम इस टिप्पणी से कितना सहमत हो सकते हैं। जाहिर तौर पर यह टिप्पणी एक बड़ी बहस की मांग करती है। अब जबकि देश में प्राइवेट चैनलों की संख्या 450 के आसपास जा पहुंची है तो दूरदर्शन भी अपना परिवार बढ़ाकर 30 चैनलों के नेटवर्क में बदल चुका है। 15 सितंबर,1959 को हमारे यहां टीवी की शुरूआत हुयी। आकाशवाणी की तरह दूरदर्शन के लिए हमारी सरकारों में कोई स्वागतभाव नहीं था। भारत सरकार और वित्त मंत्रालय की यह धारणा बनी हुयी थी कि टीवी तो विलास की चीज है। शायद इसीलिए इसे रेडियो की तरह पश्चिम के साथ ही, प्रारंभ नहीं किया जा सका।
दूरदर्शन को लेकर सरकारी हिचक के कारण इसे एक माध्यम के रूप में स्थापित होने में काफी समय लगा। यह तो इस माध्यम की शक्ति ही थी कि उसने बहुत कम समय की यात्रा में खुद को न सिर्फ स्थापित किया वरन तमाम जनमाध्यमों को कड़ी चुनौती भी दी। हम देखें तो 1966 में दूरदर्शन को लेकर पहला गंभीर प्रयत्न चंदा कमेटी के माध्यम से नजर आया। जिसने उसे रेडियो के बंधन से मुक्त करने और एक स्वतंत्र माध्यम के रूप में काम करने की सलाह दी। कमेटी ने कहा- उसे (टीवी को) उस रेडियो के उपांग के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, जो (रेडियो)खुद आमूल परिवर्तन की दरकार रखता हो।
इसके लगभग एक दशक बाद 1977 में बनी बीजी वर्गीज कमेटी ने भी अपनी 1978 में दी गयी रिपोर्ट में भी स्वायत्तता की ही बात कही। कुल मिलाकर दूरदर्शन को लेकर सरकारी रवैये के चलते उसके स्वाभाविक विकास में भी बाधा ही पड़ी। संचार माध्यमों की विकासमूलक भूमिका को दुनिया भर में स्वीकृति मिल चुकी थी। शिक्षण और सूचना का दौर भी इसी माध्यम के साथ आगे बढ़ना था। कुल मिलाकर इस भूमिका को स्वीकृति मिल रही थी और भारत की सूचना नीति (1985) इसे काफी कुछ साफ करती नजर आती है, जिसमें दूरदर्शन व्यापक फैलाव के सपने न सिर्फ देखे गए वरन उस दिशा में काफी काम भी हुआ। हालांकि 1982 में एशियाड के आयोजन के चलते दूरदर्शन को रंगीन किया गया। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री बसंत साठे की इसमें बड़ी भूमिका रही। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हमसे पहले ही पाकिस्तान, श्रीलंका और बांगलादेश में रंगीन टीवी आ चुका था। दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक शिव शर्मा के मुताबिक एशियाड के बेहतर प्रसारण के लिए पांच ओबी वैन, और 20 कैमरे खरीदे गए, नौ लोगों की टीम दी गयी। जिस दिन एशियाड का प्रसारण प्रारंभ हुआ उस दिन वह टीम 900 लोगों की हो चुकी थी। इस प्रसारण की दुनिया भर में तारीफ हुयी।
दूरदर्शन का यह सफर जारी रहा। सही मायनों में 1982 से 1991 तक का समय भारतीय दूरदर्शन का स्वर्णकाल कहा जा सकता है जिसने न सिर्फ उसके नायक गढ़े वरन एक दूरदर्शन संस्कृति का विकास भी किया। यह उसकी लोकप्रियता का चरम था जहां आम जनता के बीच उसके समाचार वाचकों, धारावाहिकों के अभिनेताओं की छवि एक नायक सरीखी हो चुकी थी। दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रमों में चित्रहार का प्रमुख स्थान था। यह आधे धटे का फिल्मी गीतों का कार्यक्रम जनता के बीच बहुत लोकप्रिय था। दूरदर्शन पर आने वाले शैक्षणिक कार्यक्रमों के अलावा कृषि दर्शन नाम का कार्यक्रम भी काफी देखा जाता था। इसे ऐतिहासिक विस्तार ही कहेंगें कि जहां 1962 में देश में मात्र 41 टीवी सेट थे वहीं 1985 आते-आते इनकी संख्या 67 लाख, 85 हजार से ज्यादा हो चुकी थी। रंगीन प्रसारण और सोप आपेरा ने इसे और विस्तार दिया। हमलोग, बुनियाद धारावाहिक के माध्यम से मनोहर श्याम जोशी ने एक क्रांति की। ये जो है जिंदगी, फिर वही तलाश जैसे धारावाहिक काफी पसंद किए गए। इसके बाद दूरदर्शन पर धार्मिक धारावाहिकों का दौर शुरू हुआ। रामानंद सागर की रामायण और उसके चमत्कारी प्रभाव ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले। रामायण के प्रसारण के समय गांवों-शहरों में जिंदगी ठहर जाती थी। इस धारावाहिक का ही असर था कि इसके पात्र सीता और रावण दोनों लोकसभा तक पहुंच गए। आंकड़ों पर भरोसा करें तो करीब 10 करोड़ लोगों ने इसका हर एपीसोड देखा। इसके अलावा इसी कड़ी में महाभारत को भी अपार लोकप्रियता मिली। भारत एक खोज जहां एक नया स्वाद लेकर आया वहीं मुंगेरीलाल के हसीन सपने, कक्का जी कहिन, करमचंद, मुल्ला नसीरूद्दीन, वागले की दुनिया, तमस जैसे धारावाहिक अपनी जगह बनाने में सफल रहे। एकमात्र चैनल होने के नाते प्रतिस्पर्धा का अभाव तो था ही किंतु जो कार्यक्रम सराहे गए उनकी गुणवत्ता से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
सही मायनों में दूरदर्शन ने देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए एक पूरी पीढी का विकास किया। आज की बहुत विकसित हो चुकी टीवी न्यूज मीडिया के स्व. कमलेश्वर, स्व. सुरेंद्र प्रताप सिंह, प्रणव राय, विनोद दुआ, नलिनी सिंह, अनुराधा प्रसाद, सईद नकवी या राहुल देव, ये सभी दूरदर्शन के माध्यम से ही प्रकाश में आए। सुरेंद्र प्रताप सिंह की प्रस्तुति आजतक, दूरदर्शन के मैट्रो चैनल के माध्यम से ही प्रकाश में आयी। यही आधे घंटे का कार्यक्रम बाद में टीवी टुडे कंपनी के पूर्ण चैनल आजतक के रूप में दिख रहा। प्रणव राय भी एनडीटीवी इंडिया के मालिक हैं। इसी तरह अनुराधा प्रसाद भी अब न्यूज 24 चैनल चला रही हैं। राहुल देव, सीएनईबी न्यूज चैनल के संपादक हैं। दूरदर्शन के मंच से सामने आए ये पत्रकार आज खुद उसके एक बड़े प्रतिद्वंदी के रूप में हैं, किसी माध्यम की सफलता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि टीवी मीडिया की एक पूरी पीढ़ी के विकास एवं वातावरण निर्माण का श्रेय दूरदर्शन को ही जाता है। चुनावी नतीजों के कई दिनों के प्रसारण की याद करें तो दूरदर्शन का महत्व और नेटवर्क की कार्यक्षमता याद आएगी। तब होने वाली बहसें, कई दिनों तक चलने वाली मतगणना में भी दूरदर्शन ने अपनी ताकत का अहसास कराया था। 1989 की मतगणना की याद करें दूरदर्शन ने 100 जगहों पर संवाददाताओं को रखकर चुनाव का सीधा प्रसारण कराया था। प्रणव राय और विनोद दुआ की जोड़ी का आनस्क्रीन कमाल इसमें दिखा था। क्रिकेट के खेलों के सीधे प्रसारण से लेकर, संसदीय कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण का श्रेय दूरदर्शन के हिस्से दर्ज है। दूरदर्शन ने एक मास कल्चर भी रचा था। गोविंद निहलानी, माणिक सरकार, गिरीश करनाड, तपन सिन्हा, महेश भट्ट जैसे लोग दूरदर्शन से यूं ही नहीं जुड़े थे। उन दिनों मंडी हाउस देश की कला,संस्कृति और प्रदर्शन कलाओं को मंच देने का एक बड़ा केंद्र बन गया था।
सही मायने में अर्थपूर्ण कार्यक्रमों और भारतीय संस्कृति को बचाए रखते हुए देश की भावनाओं को स्वर देने का काम दूरदर्शन ने किया है। आज जबकि 24 घंटे के तमाम निजी समाचार चैनल अपनी भाषा, प्रस्तुति और भौंडेपन को लेकर आलोचना के शिकार हो रहे हैं, तब भी दूरदर्शन का डीडी न्यूज चैनल अपनी प्रस्तुति के चलते राहत का सबब बन गया है। क्योंकि लोग कहने लगे हैं कि बाकी चैनलों में खबरें होती ही कहां हैं। दूरदर्शन आज भी अपने न्यूज नेटवर्क और तंत्र के लिहाज से बेहद सक्षम तंत्र है। उसकी पहुंच का आज भी किसी चैनल के पास तोड़ नहीं है। फिर क्या कारण है कि आज के चमकीले बाजार तंत्र में उसकी आवाज अनसुनी की जा रही है। उसके भौतिक विकास, पहुंच, सक्षम तकनीकी तंत्र के बावजूद उसके सामने चुनौतियां कठिन हैं। उसे आज के बाजारवादी तंत्र में अपनी उपयोगिता के साथ-साथ, कटेंट को सरोकारी बनाने की भी चुनौती है। नया बाजार, नए सूत्रों और नए मानदंडों के साथ विकसित हो रहा है। इसके लिए दूरदर्शन को एक नया रास्ता पकड़ना होगा। आने वाले समय में दूरदर्शन को भी हाई डिफिनिशन टीवी और मोबाइल टीवी शुरू करना होगा। इससे उसे बहुत लाभ होगा। दूरदर्शन की डायरेक्ट टू होम सेवा ने उसकी पहुंच को विस्तारित किया है। इसे और विस्तारित किए जाने की जरूरत है। इसमें पेड चैनलों को शामिल कर उसकी उपयोगिता को बढ़ाया जा सकता है। आने वाले दिनों में दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों में दूरदर्शन ही होस्ट ब्राडकास्टर है, इसमें उसे अपनी तकनालाजी को उन्नत करते हुए विश्वस्तरीय प्रसारण मुहैया कराने का मौका मिलेगा। एशियाड के माध्यम से उसने जो ख्याति पाई थी, राष्ट्रमंडल खेल उसमें एक अवसर ही है जब उसे अपनी सिद्धता और उपयोगिता साबित करनी है। लाख बाजारी दावों के बावजूद दूरदर्शन आज भी अपनी पहुंच, क्षमता, तकनीक में बहुत बेहतर है। पचास साल पूरे होने पर इसका संकल्प यही होना चाहिए कि वह अपने देश के विशाल जनमानस के लिए रुचिकर कार्यक्रमों का प्रसारण करे। बीबीसी को एक रोलमाडल की तरह इस्तेमाल करते हुए उस दिशा में कुछ कदम चलने का सार्थक प्रयास करे। बाजार के इस दौर में जब हर तंत्र पर बाजारी शक्तियों का कब्जा है और यह बढ़ता ही चला जाने वाला है ऐसे में आम आदमी और उसकी सरकार की बात कहने-सुनने का यह अकेला माध्यम बचा है। जिसपर आज भी बाजार की ताकतें अभी पूरी तरह काबिज नहीं हो पायी हैं। सरकार और लोकतंत्र के पहरेदारों को समझना होगा कि आज जिस तरह पूरा मीडिया बाजार और पैसे के तंत्र का गुलाम है, ऐसे में दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे तंत्र को बचाना भी जरूरी है। क्योंकि सरकारें कम से कम इन माध्यमों पर अपनी बात कह सकती हैं। अन्यथा अन्य प्रचार माध्यमों तो बिकी हुयी खबरों के ही वाहक बन रहे हैं। जो कई बार सामाजिक, सामुदायिक हितों से परे भी आचरण करते नजर आते हैं। ऐसे में सरकारी तंत्र होने के नाते जो इसकी सीमा है वही इसकी शक्ति भी है। इस कमजोरी को ताकत बनाते हुए दूरदर्शन समाचार-विचार और संस्कृति केंद्रित कार्यक्रमों का अकेला प्रस्तोता हो सकता है। जड़ों की तरफ लौटने, जड़ों से जोड़ने, उसपर संवाद करने और सही मायने में जनमाध्यम बनने की ताकत आज भी दूरदर्शन में ही है। बड़ा सवाल यह है कि क्या दूरदर्शन अपनी इस ताकत को पहचान कर आज के समय के प्रश्नों से जूझने को तैयार है। अगर नहीं तो उसे अपनी धीमी और खामोश मौत के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
- संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
Web-site-
www.sanjaydwivedi.com

कहां खो गयी हैं खबरें

टीवी चैनलों की होड़ ने बदल दिए हैं समाचारों के मानक
-संजय द्विवेदी

खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर अब ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे । खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब नज़रिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। ख़बर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे ! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी है...ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए। वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं ! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं। दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपने असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर ख़बर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ मे है कोई जादुई निदेशक । ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसिर्गिकी विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए । समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रूपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ?
बॉडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने ‘मेघा रे मेघा’ नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन ख़बर देखी गई और महसूस भी की गई। कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या सैफ अली खान की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा । सलमाल और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नज़रिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई ख़बर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही । एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। बावजूद इसके हम पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों पर कायम रहते हुए एक संतुलन बना पाएं तो यह बात हमारी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को बनाए रखने में सहायक होगी।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
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