Friday, April 30, 2010

इस जंग में जीत कमजोर की होगी

सूचना प्रौद्योगिकी से धबराने नहीं उसे अपनाने की जरूरत
-संजय द्विवेदी

मैने एक अखबार में एक पाठक का पत्र पढा उसकी नाराजगी इस बात पर थी कि इस बार नेट परीक्षा के फार्म आनलाइन क्यों बुलाए जा रहे हैं। उसने जो तर्क दिए वे अचंभित कर देने वाले थे। यानि जो लोग उच्चशिक्षा में शिक्षक या शोध जैसी गतिविधियों से जुड़ेंगें वो आनलाइन फार्म भरने में भी हिचक रहे हैं। पाठक का तर्क था यह बात गरीबों और पिछड़ों के खिलाफ है। बात कुछ भी हो रही हो हमारे विलापवादी संस्कार हमारा पीछा नहीं छोड़ते। सूचना प्रौद्योगिकी को लेकर भी हमारे यहां कुछ वर्गों में अनवरत विलाप जारी है। यहीं बददिमागी हमारे कुछ बुद्धिजीवियों में व्याप्त है। सूचना की ताकत को स्वीकारने के बजाए वे इसमें साम्राज्यवादी ताकतों का षड़यंत्र पढ़ रहे हैं, देश की गुलामी और बदहाली का खतरा सूंघ रहे हैं। उनके तर्क भी अजीब हैं- गांवों तक सड़क, पानी, बिजली यहां तक रोटी नहीं तो कम्प्यूटर क्यों ? दरअसल ये विमर्श आज के संदर्भ में बेहद बचकाने हैं। रोटी और कम्प्यूटर का रिश्ता जोड़कर वे बहस को भटकाना चाहते हैं। लोगों तक रोटी या सड़क नहीं पहुंची तो उसके लिए हम सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर को देश के बाहर रोक देंगे। यह वस्तुतः दयनीयता भरा चिंतन है। देश में टेलीविजन के विस्तार के समय भी ऐसी ही बातें की गई थीं। लेकिन आज टेलीविजन और टेलीफोन आज लोगों के होने और जीने में सहायक बना है। टेलीविजन और टेलीफोन को रोककर क्या हम अपने बुनियादी सवाल हल कर लेते । सही अर्थों में ये माध्यम एक शक्ति के रूप में सामने आए हैं। सूचना प्रौद्योगिकी भी एक ऐसी ही ताकत है। दुनिया के परिप्रेक्ष्य में हम कदम न मिलाएं तो हम बहुत पीछे छूट जाएंगे। यह ‘हमला’ नही ‘कंडीशन’ है, एक दौर है जिसे पार कर, इसकी शक्ति को पहचान कर, इसका रचनात्मक इस्तेमाल करके ही हम विश्व मंच पर प्रतिष्ठा पा सकते हैं। दुनिया में एक सूचना महाशक्ति के रूप में उभरने का भारत का सपना सिर्फ सपना नहीं वरन उसके सपनों को हकीकत में बदलने का राजमार्ग है। यह मार्ग सूचना प्रौद्योगिकी का ही रास्ता हो सकता है। भारत ने इस ताकत को काफी पहले पहचान लिया था शायद इसीलिए बिल क्लिंटन ने कुछ साल पहले भारतीय संसद में अपने संबोधन मं कहा था ‘आपने सूचना प्रौद्योगिकी अपनाई है अब यह स्थिति है कि जब अमरीका की व अन्य बड़ी साफ्टवेयर कंपनियां उपभोक्ता एवं ग्राहक तलाशती हैं तो उन्हें सिएटल की तरह बेंगलूर में भी किसी विशेषज्ञ से संपर्क करना पड़ सकता है’। हमारा देश एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को मानता है। सूचना प्रौद्योगिगी दरअसल लोकतंत्र की संजीवनी बन सकती है। यदि सूचना के साधनों का उपयोग आम लोगों की जीवनशैली बन सके तो सही अर्थों में लोकतंत्र की शुरुआत होगी। यह दौर ‘इ-राजनीति’ के द्वार खोलेगा और लोगों के बीच संवाद की ताकत को स्थापित करेगा। हालांकि देश के बेहद गरीब लगभग 32 करोड़ लोग हमारे लोकतंत्र के सामने एक चुनौती हैं। लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी को नकार कर आखिर हम इनका भी क्या भला कर पाएंगे ? इसीलिए इस अवसर का सही इस्तेमाल ही करोड़ों लोगों के लिए संभावनाओं के द्वार खोल सकता है। उदारीकरण और निजीकरण के खतरों पर ‘बौद्धिक जुगाली’ के बजाए इस प्रक्रिया के लाभ को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाने की योजना बनानी चाहिए। पंचायत राज व्यवस्था में ‘ई-गवरर्नेंस’ का दौर बेहद जनोपयोगी हो सकता है। गांव में बैठे लोग यदि अपने नेता से सीधे संवाद कर सकें तो ई-मेंल, इंटरनेट की ताकत परिवर्तन का बाहक बन सकती है। अभी हाल में ही प्रधानमंत्री से पंचायत प्रतिनिधियों की टेलीकांफ्रेंसिंग द्वारा बातचीत का दूरदर्शन ने आयोजन किया था। दरअसल यह ‘ई-राजनीति’ की ही शुरुआत है। इस तरह विविध विषयों पर ई-मेल संदेशों पर प्राप्त ‘फीड-बैक’ के आधार पर राजनीतिक दल या नेता अपनी रणनीति या विकास के कामों की प्राथमिकताएं तय कर सकते हैं। इससे एक नई लोकतांत्रिक संस्कृति उभरकर सामने आएगी । सही मायनों में इंटरनेट एक विकासशील देश के लिए सही इस्तेमाल से उसकी शक्ति बन सकता है। लोकतंत्र की ताकत भी इससे ही संचालित होती है। सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण और विश्वव्यापीकरण किसी भी लोकतंत्र की पहली शर्त है और नई प्रौद्योगिकी इसे संभव बनाती है। आज जो आलोचक सूचना प्रौद्योगिकी से सिर्फ उच्च वर्गों का भला होने की बात कर रहे हैं, शायद वे चित्र को सही रूप से समझ पाने में असमर्थ हैं। जिस जनसंचार प्रणाली को वर्तमान में हम लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहकर सम्मानित करते हैं, क्या वह पूरी तरह जनता की आवाज है ? इंटरनेट आपको इस प्रतिबंधों से मुक्त करता है। इंटरनेट का उपयोगकर्ता या अपनी वेबसाईट खोल लें या फिर पहले से मौजूद किसी समाचार वेबसाइट में शामिल होकर अपनी बात रख सकता है। इसके लिए उसे न किसी को अनुमति चाहिए न ही उस पर दबाव है। सही अर्थों में यह माध्यम एक आम आदमी को संवाद की ‘असीम स्वतंत्रता’ देता है। जरूरत है उस माध्यम को सस्ता, सुगम और लोगों तक पहुंचाने की। विशेषज्ञ मानते हैं, इतिहास में पहली बार विश्व ‘जन-अभिव्यक्ति के माध्यम’ का प्रादुर्भाव देख रहा है। यह एक ऐसा माध्यम है जिसकी पहुचं करोड़ों लोगों तक हो सकती है। इस पर उठी आवाज विश्वव्यापी अनुगूंज बन सकती है। यह एक तथ्य है कि विश्व की आधी आबादी ने अपनी जिंदगी में एक बार भी टेलीफोन का उपयोग नहीं किया है। इसके बावजूद सूचना प्रौद्योगिकी एक नया विश्व समाज बनाने, लोगों के पास आने, दुःख-दर्दों में हिस्सेदार बनने में सहायक बन सकती है। नई टेक्नालॉजी का उपयोग करके लोग दुनिया के किसी भी हिस्से में हो रहे अनाचार, हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। उनकी आवाज निश्चय ही बड़ी ताकतों को उद्वेलित करेगा और सुनी जाएगी। दुनिया में हो रही आपदाओं-प्रकोपों के बारे में भी जागरूकता पैदा कर तबाही को कम या टाला जा सकता है। साइबर स्पेस पर किसी राजसत्ता का नियंत्रण नहीं है, इसलिए सही अर्थों में यह माध्यम भले ही किसी भी उद्देश्य के लिए शुरू किया गया हो, जनता का माध्यम और उसकी आवाज बन सकता है। आज इस क्रांति ने तमाम लोगों की जिंदगी ढर्रा बदल दिया है। शहरों, घरों से लेकर साइबर ढाबों तक में आते-जाते संदेश एक नई दुनिया रच रहे हैं । एक ई-मेल पीढ़ी तैयार हो रही है जो ई-मेल पर संवाद कर रही है, बायो-डॉटा भेज रही हैं, खरीदारी कर रही है और रोमांस भी। आप याद करें दक्षिण महाराष्ट्र के चीनी उत्पादक इलाके में स्थित वारणानगर देश का पहला गांव बना था , जिसे इंटरनेट से जोड़ा गया था । इस इलाके के 70 करोड़ रुपए की लागत वाली इस परियोजना के प्रति लोगों में खासा उत्साह आया। उन्हें खुशी मिली कि ई-मेल के इस्तेमाल के कारण न तो धोखाधड़ी हो रही है न दूध बरबाद हो रहा है। आज ऐसा बहुत से गांवों में संभव हो सका है। सूदूर सिक्किम में मांगने में बैठे एक किसान पेमवांग तेनपिंग को खुशी है कि अब उनकी काली, बड़ी इलायची अरब देशों में चाय में डाली जाती है। बरसों वे इसे विचौलियों को बेचते रहे, कम मुनाफा पाते रहे। तेनपिंग अब ई-मेल संबंधों से व्यापार करते हैं। थोक विक्रेताओं, इलायची उद्योगों, अरब देशों के व्यापारियों से भी संपर्क साधते है। जाहिर है उन्हें यह ताकत नई प्रौद्योगिकी से ही मिली है। देश में ऐसे उदाहरण अब आम हैं। केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं के साथ-साथ आमजन को भी इस शक्ति को पहचान कर उससे सामंजस्य बनाने की चुनौती सामने है। हमारे ग्रामीण भोले मानस का आम आदमी प्रभु पर खासी आस्था रखकर अब तक कहता आया है-‘निर्बल के बल राम’ लेकिन इस नई सदी में सूचना प्रौद्योगिकी भी ‘निर्बल का बल’ बन सकती है, बशर्ते हम अपनी विलापवादी शैली से निजात पाएं।( लेखक जनसंचार विशेषज्ञ हैं)

1 comment:

  1. हां सर …बहुत शानदार आलेख सदा की तरह…..सबल चिंतन भी….आज तकनीकों से मूह चुराने की बात पागलपन ही कही जायेगी….! आपका शीर्षक ही काफी कुछ कह देता है. वास्तव में यह लड़ाई आज तक हुए तमाम युद्धों से उलट होगा. मानव ही नहीं वरन दानव सभ्यता में भी कमजोरों को जीतते कभी नहीं दिखाया गया है. अगर हम तकनीक के सहारे ऐसे विजय की बात सोच भी पा रहे हो तो यही उस जादू की सफलता है. लेकिन जिस पाठक के पत्र से आलेख की शुरुआत हुई है उसको भी नज़र अंदाज़ मत करिये संजय जी. हाशिए की बात करना आपका तकिया-कलाम भी है. तो अभी भी तकनीकों से भरे गए पेटों के मध्य भी बहुत सी काली हांडियां खाली है. आपको ऐसे ‘मध्य प्रदेश’ की भी चिंता करनी होगी. सादर....पंकज झा.

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