समाज के सरोकारों पर जो सोचता हूं उसे लिख देता हूं। यह मेरा नहीं आपका भी मंच है। जरूरत है कि बातें जारी रहें। पत्रकारिता के चौदह सालों के सफर में जो देखा, समझा और अनुभव किया उसे ही आप तक पहुंचाने की एक कोशिश है यह ब्लाग। - संजय द्विवेदी
Friday, November 26, 2010
बिहारः ये जाति है बड़ी !
लालू यादव पर भारी पड़ी नीतिश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग
-संजय द्विवेदी
सामाजिक न्याय की ताकतों का कुनबा बिखर रहा था। किंतु लालूप्रसाद यादव अपनी ही अदा पर फिदा थे। वे अपनी चुनावी सफलताओं से इस कदर अभिभूत थे कि पैरों के नीचे जमीन खिसकती रही पर इसका उन्हें भान भी नहीं हुआ। जनता परिवार से ही निकली ताकतों ने उनके हाथ से ताज और राज छीन लिया किंतु उनको अपनी कार्यशैली पर न तो पछतावा था ना ही वे बदलने को तैयार थे। जाहिर तौर पर एक नई जातीय गोलबंदी उन्हें घेर रही थी, जिसका उन्हें पता भी नहीं चला। बिहार के चुनावों को मोटे तौर पर लालू प्रसाद यादव की हार से ही जोड़कर देखा जाना चाहिए। क्योंकि वे बिहार के नाम पर उस जातीय चेतना के विदूषक के रूप में सामने थे, जिसे परिवर्तन का वाहक माना जाता था। यही समय था जिसे नीतिश कुमार ने समझा और वे सामाजिक न्याय की ताकतों के नए और विश्वसनीय नायक बन गए। भाजपा के सहयोग ने उनके सामाजिक विस्तार में मदद की और बिहार चुनाव के जो परिणाम आए हैं वे बतातें हैं कि यह साधारण जीत नहीं है।
अब नीतिश कुमार बिहार की सामूहिक चेतना के प्रतीक के बन गए हैं। वे असाधारण नायक बन गए हैं, जिसके बीज लालू प्रसाद यादव की विफलताओं में छिपे हैं। किंतु इसे इस तरह से मत देखिए कि बिहार में अब जाति कोई हकीकत नहीं रही। जाति, उसकी चेतना, सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनैतिक शक्ति अपनी जगह कायम है किंतु वह अब अपमानित और पददलित नहीं रहना चाहती। अपने जातीय सम्मान के साथ वह राज्य का सम्मान और विकास भी चाहती है। लालू प्रसाद यादव, अपनी सामाजिक न्याय की मुहिम को जागृति तक ले जाते हैं, आकांक्षांएं जगाते हैं, लोगों को सड़कों पर ले आते हैं( उनकी रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को याद कीजिए)- किंतु सपनों को हकीकत में बदलने का कौशल नहीं जानते। वे सामाजिक जागृति के नारेबाज हैं, वे उसका रचनात्मक इस्तेमाल नहीं जानते। वे सोते हुए को जगा सकते हैं किंतु उसे दिशा देकर किसी परिणामकेंद्रित अभियान में लगा देना उनकी आदत का हिस्सा नहीं है। इसीलिए सामाजिक न्याय की शक्ति के जागरण और सर्वणों से सत्ता हस्तांतरण तक उनकी राजनीति उफान पर चलती दिखती है। किंतु यह काम समाप्त होते ही जब पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों की आकांक्षांएं एक नई चेतना के साथ उनकी तरफ देखती हैं तो उनके पास कहने को कुछ नहीं बचता। वे एक ऐसे नेता साबित होते हैं, जिसकी समस्त क्षमताएं प्रकट हो चुकी हैं और उसके पास अब देने और बताने के लिए कुछ भी नहीं है। नीतिश यहीं बाजी मार ले जाते हैं। वे सपनों के सौदागर की तरह सामने आते हैं। उनकी जमीन वही है जो लालू प्रसाद यादव की जमीन है। वे भी जेपी आंदोलन के बरास्ते 1989 के दौर में अचानक महत्वपूर्ण हो उठते हैं जब वे बिहार जनता दल के महासचिव बनाए जाते हैं। दोनों ओबीसी से हैं। दोनों का गुरूकुल और पथ एक है। लंबे समय तक दोनों साथ चलते भी हैं। किंतु तारीख एक को नायक और दूसरे को खलनायक बना देती है। जटिल जातीय संरचना और चेतना आज भी बिहार में एक ऐसा सच है जिससे आप इनकार नहीं कर सकते। किंतु इस चेतना से समानांतर एक चेतना भी है जिसे आप बिहार की अस्मिता कह सकते हैं। नीतिश ने बिहार की जटिल जातीय संरचना और बिहारी अस्मिता की अंर्तधारा को एक साथ स्पर्श किया। इस मायने में बिहार विधानसभा का यह चुनाव साधारण चुनाव नहीं था। इसलिए इसका परिणाम भी असाधारण है। देश का यह असाधारण प्रांत भी है। शायद इसीलिए इस जमीन से निकलने वाली आवाजें, ललकार बन जाती हैं। सालों बाद नीतिश कुमार इसी परिवर्तन की ललकार के प्रतीक बन गए हैं। इस सफलता के पीछे अपनी पढ़ाई से सिविल इंजीनियर नीतिश कुमार ने विकास के साथ सोशल इंजीनियरिंग का जो तड़का लगाया है उस पर ध्यान देना जरूरी है। उन्हें जिस तरह की जीत हासिल हुयी है वह मीडिया की नजर में भले ही विकास के सर्वग्राही नारे की बदौलत हासिल हुयी है, किंतु सच्चाई यह है कि नीतिश कुमार ने जैसी शानदार सोशल इंजीनियरिंग के साथ विकास का मंत्र फूंका है, वह उनके विरोधियों को चारों खाने चित्त कर गया।
उप्र और बिहार दोनों राज्य मंदिर और मंडल आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहे हैं। मंडल की राजनीति यहीं फली-फूली और यही जमीन सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि भी बनी। इसे भी मत भूलिए कि बिहार का आज का नेतृत्व वह पक्ष में हो या विपक्ष में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज है। कांग्रेस विरोध इसके रक्त में है और सामाजिक न्याय इसका मूलमंत्र। इस आंदोलन के नेता ही 1990 में सत्ता के केंद्र बिंदु बने और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। आप ध्यान दें यह समय ही उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के सवाल और उसके नेताओं के उभार का समय है। लालू प्रसाद यादव इसी सामाजिक अभियांत्रिकी की उपज थे और नीतिश कुमार जैसे तमाम लोग तब उनके साथ थे। लालू प्रसाद यादव अपनी सीमित क्षमताओं और अराजकताओं के बावजूद सिर्फ इस सोशल इंजीनियरिंग के बूते पर पंद्रह साल तक राबड़ी देवी सहित राज करते रहे। इसी के समानांतर परिघटना उप्र में घट रही थी जहां मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, मायावती और कल्याण सिंह इस सोशल इंजीनियरिंग का लाभ पाकर महत्वपूर्ण हो उठे। आप देखें तो बिहार की परिघटना में लालू यादव का उभार और उनका लगभग डेढ़ दशक तक सत्ता में बने रहना साधारण नहीं था, जबकि उनपर चारा घोटाला सहित अनेक आरोप थे, साथी उनका साथ छोड़कर जा रहे थे और जनता परिवार बिखर चुका था। इसी जनता परिवार से निकली समता पार्टी जिसके नायक जार्ज फर्नांडीज, शरद यादव, नीतिश कुमार, दिग्विजय सिंह जैसे लोग थे, जिनकी भी लीलाभूमि बिहार ही था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ होने के नाते सामाजिक न्याय का यह कुनबा बिखर चुका था और उक्त चारों नेताओं सहित रामविलास पासवान भी अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बन चुके थे। यह वह समय है जिसमें लालू के पराभव की शुरूआत होती है। अपने ही जनता परिवार से निकले लोग लालू राज के अंत की कसमें खा रहे थे और एक अलग तरह की सामाजिक अभियांत्रिकी परिदृश्य में आ रही थी। लालू के माई कार्ड के खिलाफ नीतिश कुमार के नेतृत्व में एक ऐसा ओबीसी चेहरा सामने था, जिसके पास कुछ करने की ललक थी। ऐसे में नीतिश कुमार ने एक ऐसी सामाजिक अभियांत्रिकी की रचना तैयार की जिसमें लालू विरोधी पिछड़ा वर्ग, पासवान विरोधी दलित वोट और लालू राज से आतंकित सर्वण वोटों का पूरा कुनबा उनके पीछे खड़ा था। भाजपा का साथ नीतिश की इस ताकत के साथ उनके कवरेज एरिया का भी विस्तार कर रहा था। कांग्रेस लालू का साथ दे-देकर खुद तो कमजोर हुयी ही, जनता में अविश्वसनीय भी बन चुकी थी। वामपंथियों की कमर लालू ने अपने राज में ही तोड़ दी थी।
इस चुनाव में एक तरफ लालू प्रसाद यादव थे जिनके पास सामाजिक न्याय के आंदोलन की आधी-अधूरी शक्ति, अपना खुद का लोकसभा चुनाव हार चुके रामविलास पासवान ,पंद्रह सालों के कुशासन का इतिहास था तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय का विस्तारवादी और सर्वग्राही चेहरा (नीतिश कुमार) था। उसके पास भाजपा जैसी सामाजिक तौर पर एक वृहत्तर समाज को प्रभावित करने वाली संगठित शक्ति थी। अब अगर आपको सामाजिक न्याय और विकास का पैकेज साथ मिले तो जाहिर तौर पर आपकी पसंद नीतिश कुमार ही होंगे, लालू प्रसाद यादव नहीं। लालू ने अपना ऐसा हाल किया था कि उनके साले भी उनका साथ छोड़ गए और उनका बहुप्रचारित परिवारवाद उन पर भारी पड़ा। राबड़ी देवी का दोनों स्थानों से चुनाव हारना, इसकी एक बानगी है। जाहिर तौर पर कभी अपराजेय दिखने वाले लालू के दिन लद चुके थे और वह जगह भरी थी ओबीसी(कुर्मी) जाति से आने वाले नीतिश कुमार ने।नीतिश ने लालू की संकुचित सोशल इंजीनियरिंग का विस्तार किया, उसे वे अतिपिछड़ों, महादलितों, पिछड़े मुसलमानों और महिलाओं तक ले गए। देखने में ही सही ये बातें होनी लगीं और परिवर्तन भी दिखने लगा। बिहार जैसे परंपरागत समाज में पंचायतों में महिलाओं में पचास प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला साधारण नहीं था। जबकि लालू प्रसाद यादव जैसे लोग संसद में महिला आरक्षण के खिलाफ गला फाड़ रहे थे। भाजपा के सहयोग ने सर्वणों को जद(यू) के साथ जोड़ा। अब यह जिस तरह की सोशल इंजीनिरिंग थी उसमें निशाने पर गरीबी थी और जाति टूट रही थी। आप उत्तर प्रदेश में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का ख्याल करें और उनके दलित, मुस्लिम, ब्राम्हण और गैर यादव पिछड़ा वर्ग की राजनीति को संबोधित करने की शैली पर नजर डालें तो आपको बिहार का चुनाव भी समझ में आएगा। मायावती सिर्फ इसलिए सबकी पसंद बनीं क्योंकि लोग मुलायम सिंह यादव की सरकार में चल रहे गुँडाराज से त्रस्त थे। जबकि नीतिश के पास एक विस्तारवादी सोशल इंजीनियरिंग के साथ-साथ गुंडागर्दी को रोकने का भरोसा और विकास का सपना भी जुड़ा है-इसलिए उनकी जीत ज्यादा बड़ी होकर सामने आती है। वे जनता का अभूतपूर्व विश्वास हासिल करते हैं। इसके साथ ही कभी जनता परिवार में लालू के सहयोगी रहे नीतिश कुमार के इस पुर्नजन्म के ऐतिहासिक-सामाजिक कारण भी हैं। बिहार के लोग अपने राज्य में अराजकता, हिंसा और गुंडाराज के चलते सारे देश में लांछित हो रहे थे। कभी बहुत प्रगतिशील रहे राज्य की छवि लालू के राजनीतिक मसखरेपन से निरंतर अपमानित हो रही थी। प्रवासियों बिहारियों के साथ हो रहे अन्य राज्यों में दुव्यर्हार ने इस मामले को और गहरा किया। तय मानिए हर समय अपने नायक तलाश लेता है। यह नायक भी बिहार ने लालू के जनता परिवार से तलाशकर निकाला। नीतिश कुमार इस निरंतर अपमानित और लांछित हो रही चेतना के प्रतीक बन गए। वे बिहारियों की मुक्ति के नायक बन गए। बिहारी अस्मिता के प्रतीक बन गए। शायद तुलना बुरी लगे किंतु यह वैसा ही था कि जैसे गुजरात में नरेंद्र मोदी वहां गुजराती अस्मिता के प्रतीक बनकर उभरे और उसी तरह नीतिश कुमार में बिहार में रहने वाला ही नहीं हर प्रवासी बिहारी एक मुक्तिदाता की छवि देखने लगा। शायद इसीलिए नीतिश कुमार की चुनौतियां अब दूसरी पारी में असाधारण हैं। कुछ सड़कें, स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा की बेहतरी के हल्के-फुल्के प्रयासों से उन्होंने हर वर्ग की उम्मीदें जिस तरह से उभारी हैं उसे पूरा करना आसान न होगा। यह बिहार का भाग्य है उसे आज एक ऐसी राजनीति मिली है, जिसके लिए उसकी जाति से बड़ा बिहार है। बिहार को जाति की इसी प्रभुताई से मुक्त करने में नीतिश सफल रहे हैं, वे हर वर्ग का विश्वास पाकर जातीय राजनीति के विषधरों को सबक सिखा चुके हैं। उनकी सोशल इंजीनियरिंग इसीलिए सलाम के काबिल है कि वह विस्तारवादी है, बहुलतावादी है, उसमें किसी का तिरस्कार नहीं है। उनकी राजनीति में विकास की धारा में पीछे छूट चुके महादलितों और पसमांदा (सबसे पिछड़े) मुसलमानों की अलग से गणना से अपनी पहचान मिली है। इसीलिए नीतिश कुमार ने महादलित आयोग और फिर बिहार महादलित विकास मिशन ही नहीं बनाया वरन हर पंचायत में महादलितों के लिए एक विकास-मित्र भी नियुक्त किया। एक लाख से ज्यादा बेघर महादलितों को दलित आवास योजना से घर बनाने में मदद देनी शुरू की। लोग कहते रहे कि यह दलितों में फूट डालने की कोशिश है,यह नकारात्मक प्रचार भी नीतिश के हक में गया। राजद, लोजपा और कांग्रेस जैसे दल इस आयोग और मिशन को असंवैधानिक बताते रहे पर नीतिश अपना काम कर चुके थे। उनका निशाना अचूक था। यह बदलता हुआ बिहार अब एक ऐसे इंजीनियर के हाथ में है जिसने सिविल इंजीनियरिंग के बाद सोशल इंजीनियरिंग की परीक्षा भी पास कर ली है और बिहार में सामाजिक न्याय की प्रचलित परिभाषा को पलट दिया है। शायद इसलिए लालू राज के अगड़े-पिछड़े वाद की नकली लड़ाई के पंद्रह सालों पर नीतिश कुमार के पांच साल भारी पड़े हैं। अब अपने पिछले पांच सालों को परास्त कर नीतिश कुमार किस तरह जटिल बिहार की तमाम जटिल चुनौतियों और सवालों के ठोस व वाजिब हल तलाशते हैं-इस पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं। लालू प्रसाद यादव ने अपनी राजनीति को जहां विराम दिया था, नीतिश ने वहीं से शुरूआत की है। लालूप्रसाद यादव मार्का राजनीति का काम अब खत्म हो चुका है। लालू अपने ही बनाए मानकों में कैद होकर रह गए हैं। नीतिश कुमार ने अपनी राजनीति का विस्तार किया है वे इसीलिए आज भी गैरकांग्रेसवाद की जमीन पर जमकर खड़े हैं जबकि लालूप्रसाद यादव को सोनिया गांधी की स्तुति करनी पड़ रही है। सांप्रदायिकता के खिलाफ उनके कथित संधर्ष के बजाए नीतिश कुमार पर मुसलमानों का भरोसा ज्यादा है। कहते हैं बिहार के यादव भी अगर साथ होते तो भी लालू कम से कम 50 सीटें जीत जाते पर राजनीति के सबसे बड़े बाजीगर लालू का तिलिस्म यहां तार-तार दिखता है। बिहार की सामाजिक संरचना के इन तमाम अंतर्विरोधों को संबोधित करते हुए नीतिश कुमार को आगे बढ़ना होगा क्योंकि बड़े सवालों के बीच छोटे सवाल खुद ही लापता हो जाएंगें। बस नीतिश को यह चाल बनाए रखनी होगी। अन्यथा बाजीगरों और वाचालों का हश्र तो उन्होंने इस चुनाव में देख ही लिया है।
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Log Ab jagkruk hone lage, Bihar desh ke liye bahut hi bada udaharan ban gaya hai.
ReplyDeleteBaki desh ki janta ko Bihar ki janta se sikhna chahiye