समाज के सरोकारों पर जो सोचता हूं उसे लिख देता हूं। यह मेरा नहीं आपका भी मंच है। जरूरत है कि बातें जारी रहें। पत्रकारिता के चौदह सालों के सफर में जो देखा, समझा और अनुभव किया उसे ही आप तक पहुंचाने की एक कोशिश है यह ब्लाग। - संजय द्विवेदी
Friday, November 26, 2010
बिहारः ये जाति है बड़ी !
लालू यादव पर भारी पड़ी नीतिश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग
-संजय द्विवेदी
सामाजिक न्याय की ताकतों का कुनबा बिखर रहा था। किंतु लालूप्रसाद यादव अपनी ही अदा पर फिदा थे। वे अपनी चुनावी सफलताओं से इस कदर अभिभूत थे कि पैरों के नीचे जमीन खिसकती रही पर इसका उन्हें भान भी नहीं हुआ। जनता परिवार से ही निकली ताकतों ने उनके हाथ से ताज और राज छीन लिया किंतु उनको अपनी कार्यशैली पर न तो पछतावा था ना ही वे बदलने को तैयार थे। जाहिर तौर पर एक नई जातीय गोलबंदी उन्हें घेर रही थी, जिसका उन्हें पता भी नहीं चला। बिहार के चुनावों को मोटे तौर पर लालू प्रसाद यादव की हार से ही जोड़कर देखा जाना चाहिए। क्योंकि वे बिहार के नाम पर उस जातीय चेतना के विदूषक के रूप में सामने थे, जिसे परिवर्तन का वाहक माना जाता था। यही समय था जिसे नीतिश कुमार ने समझा और वे सामाजिक न्याय की ताकतों के नए और विश्वसनीय नायक बन गए। भाजपा के सहयोग ने उनके सामाजिक विस्तार में मदद की और बिहार चुनाव के जो परिणाम आए हैं वे बतातें हैं कि यह साधारण जीत नहीं है।
अब नीतिश कुमार बिहार की सामूहिक चेतना के प्रतीक के बन गए हैं। वे असाधारण नायक बन गए हैं, जिसके बीज लालू प्रसाद यादव की विफलताओं में छिपे हैं। किंतु इसे इस तरह से मत देखिए कि बिहार में अब जाति कोई हकीकत नहीं रही। जाति, उसकी चेतना, सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनैतिक शक्ति अपनी जगह कायम है किंतु वह अब अपमानित और पददलित नहीं रहना चाहती। अपने जातीय सम्मान के साथ वह राज्य का सम्मान और विकास भी चाहती है। लालू प्रसाद यादव, अपनी सामाजिक न्याय की मुहिम को जागृति तक ले जाते हैं, आकांक्षांएं जगाते हैं, लोगों को सड़कों पर ले आते हैं( उनकी रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को याद कीजिए)- किंतु सपनों को हकीकत में बदलने का कौशल नहीं जानते। वे सामाजिक जागृति के नारेबाज हैं, वे उसका रचनात्मक इस्तेमाल नहीं जानते। वे सोते हुए को जगा सकते हैं किंतु उसे दिशा देकर किसी परिणामकेंद्रित अभियान में लगा देना उनकी आदत का हिस्सा नहीं है। इसीलिए सामाजिक न्याय की शक्ति के जागरण और सर्वणों से सत्ता हस्तांतरण तक उनकी राजनीति उफान पर चलती दिखती है। किंतु यह काम समाप्त होते ही जब पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों की आकांक्षांएं एक नई चेतना के साथ उनकी तरफ देखती हैं तो उनके पास कहने को कुछ नहीं बचता। वे एक ऐसे नेता साबित होते हैं, जिसकी समस्त क्षमताएं प्रकट हो चुकी हैं और उसके पास अब देने और बताने के लिए कुछ भी नहीं है। नीतिश यहीं बाजी मार ले जाते हैं। वे सपनों के सौदागर की तरह सामने आते हैं। उनकी जमीन वही है जो लालू प्रसाद यादव की जमीन है। वे भी जेपी आंदोलन के बरास्ते 1989 के दौर में अचानक महत्वपूर्ण हो उठते हैं जब वे बिहार जनता दल के महासचिव बनाए जाते हैं। दोनों ओबीसी से हैं। दोनों का गुरूकुल और पथ एक है। लंबे समय तक दोनों साथ चलते भी हैं। किंतु तारीख एक को नायक और दूसरे को खलनायक बना देती है। जटिल जातीय संरचना और चेतना आज भी बिहार में एक ऐसा सच है जिससे आप इनकार नहीं कर सकते। किंतु इस चेतना से समानांतर एक चेतना भी है जिसे आप बिहार की अस्मिता कह सकते हैं। नीतिश ने बिहार की जटिल जातीय संरचना और बिहारी अस्मिता की अंर्तधारा को एक साथ स्पर्श किया। इस मायने में बिहार विधानसभा का यह चुनाव साधारण चुनाव नहीं था। इसलिए इसका परिणाम भी असाधारण है। देश का यह असाधारण प्रांत भी है। शायद इसीलिए इस जमीन से निकलने वाली आवाजें, ललकार बन जाती हैं। सालों बाद नीतिश कुमार इसी परिवर्तन की ललकार के प्रतीक बन गए हैं। इस सफलता के पीछे अपनी पढ़ाई से सिविल इंजीनियर नीतिश कुमार ने विकास के साथ सोशल इंजीनियरिंग का जो तड़का लगाया है उस पर ध्यान देना जरूरी है। उन्हें जिस तरह की जीत हासिल हुयी है वह मीडिया की नजर में भले ही विकास के सर्वग्राही नारे की बदौलत हासिल हुयी है, किंतु सच्चाई यह है कि नीतिश कुमार ने जैसी शानदार सोशल इंजीनियरिंग के साथ विकास का मंत्र फूंका है, वह उनके विरोधियों को चारों खाने चित्त कर गया।
उप्र और बिहार दोनों राज्य मंदिर और मंडल आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहे हैं। मंडल की राजनीति यहीं फली-फूली और यही जमीन सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि भी बनी। इसे भी मत भूलिए कि बिहार का आज का नेतृत्व वह पक्ष में हो या विपक्ष में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज है। कांग्रेस विरोध इसके रक्त में है और सामाजिक न्याय इसका मूलमंत्र। इस आंदोलन के नेता ही 1990 में सत्ता के केंद्र बिंदु बने और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। आप ध्यान दें यह समय ही उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के सवाल और उसके नेताओं के उभार का समय है। लालू प्रसाद यादव इसी सामाजिक अभियांत्रिकी की उपज थे और नीतिश कुमार जैसे तमाम लोग तब उनके साथ थे। लालू प्रसाद यादव अपनी सीमित क्षमताओं और अराजकताओं के बावजूद सिर्फ इस सोशल इंजीनियरिंग के बूते पर पंद्रह साल तक राबड़ी देवी सहित राज करते रहे। इसी के समानांतर परिघटना उप्र में घट रही थी जहां मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, मायावती और कल्याण सिंह इस सोशल इंजीनियरिंग का लाभ पाकर महत्वपूर्ण हो उठे। आप देखें तो बिहार की परिघटना में लालू यादव का उभार और उनका लगभग डेढ़ दशक तक सत्ता में बने रहना साधारण नहीं था, जबकि उनपर चारा घोटाला सहित अनेक आरोप थे, साथी उनका साथ छोड़कर जा रहे थे और जनता परिवार बिखर चुका था। इसी जनता परिवार से निकली समता पार्टी जिसके नायक जार्ज फर्नांडीज, शरद यादव, नीतिश कुमार, दिग्विजय सिंह जैसे लोग थे, जिनकी भी लीलाभूमि बिहार ही था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ होने के नाते सामाजिक न्याय का यह कुनबा बिखर चुका था और उक्त चारों नेताओं सहित रामविलास पासवान भी अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बन चुके थे। यह वह समय है जिसमें लालू के पराभव की शुरूआत होती है। अपने ही जनता परिवार से निकले लोग लालू राज के अंत की कसमें खा रहे थे और एक अलग तरह की सामाजिक अभियांत्रिकी परिदृश्य में आ रही थी। लालू के माई कार्ड के खिलाफ नीतिश कुमार के नेतृत्व में एक ऐसा ओबीसी चेहरा सामने था, जिसके पास कुछ करने की ललक थी। ऐसे में नीतिश कुमार ने एक ऐसी सामाजिक अभियांत्रिकी की रचना तैयार की जिसमें लालू विरोधी पिछड़ा वर्ग, पासवान विरोधी दलित वोट और लालू राज से आतंकित सर्वण वोटों का पूरा कुनबा उनके पीछे खड़ा था। भाजपा का साथ नीतिश की इस ताकत के साथ उनके कवरेज एरिया का भी विस्तार कर रहा था। कांग्रेस लालू का साथ दे-देकर खुद तो कमजोर हुयी ही, जनता में अविश्वसनीय भी बन चुकी थी। वामपंथियों की कमर लालू ने अपने राज में ही तोड़ दी थी।
इस चुनाव में एक तरफ लालू प्रसाद यादव थे जिनके पास सामाजिक न्याय के आंदोलन की आधी-अधूरी शक्ति, अपना खुद का लोकसभा चुनाव हार चुके रामविलास पासवान ,पंद्रह सालों के कुशासन का इतिहास था तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय का विस्तारवादी और सर्वग्राही चेहरा (नीतिश कुमार) था। उसके पास भाजपा जैसी सामाजिक तौर पर एक वृहत्तर समाज को प्रभावित करने वाली संगठित शक्ति थी। अब अगर आपको सामाजिक न्याय और विकास का पैकेज साथ मिले तो जाहिर तौर पर आपकी पसंद नीतिश कुमार ही होंगे, लालू प्रसाद यादव नहीं। लालू ने अपना ऐसा हाल किया था कि उनके साले भी उनका साथ छोड़ गए और उनका बहुप्रचारित परिवारवाद उन पर भारी पड़ा। राबड़ी देवी का दोनों स्थानों से चुनाव हारना, इसकी एक बानगी है। जाहिर तौर पर कभी अपराजेय दिखने वाले लालू के दिन लद चुके थे और वह जगह भरी थी ओबीसी(कुर्मी) जाति से आने वाले नीतिश कुमार ने।नीतिश ने लालू की संकुचित सोशल इंजीनियरिंग का विस्तार किया, उसे वे अतिपिछड़ों, महादलितों, पिछड़े मुसलमानों और महिलाओं तक ले गए। देखने में ही सही ये बातें होनी लगीं और परिवर्तन भी दिखने लगा। बिहार जैसे परंपरागत समाज में पंचायतों में महिलाओं में पचास प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला साधारण नहीं था। जबकि लालू प्रसाद यादव जैसे लोग संसद में महिला आरक्षण के खिलाफ गला फाड़ रहे थे। भाजपा के सहयोग ने सर्वणों को जद(यू) के साथ जोड़ा। अब यह जिस तरह की सोशल इंजीनिरिंग थी उसमें निशाने पर गरीबी थी और जाति टूट रही थी। आप उत्तर प्रदेश में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का ख्याल करें और उनके दलित, मुस्लिम, ब्राम्हण और गैर यादव पिछड़ा वर्ग की राजनीति को संबोधित करने की शैली पर नजर डालें तो आपको बिहार का चुनाव भी समझ में आएगा। मायावती सिर्फ इसलिए सबकी पसंद बनीं क्योंकि लोग मुलायम सिंह यादव की सरकार में चल रहे गुँडाराज से त्रस्त थे। जबकि नीतिश के पास एक विस्तारवादी सोशल इंजीनियरिंग के साथ-साथ गुंडागर्दी को रोकने का भरोसा और विकास का सपना भी जुड़ा है-इसलिए उनकी जीत ज्यादा बड़ी होकर सामने आती है। वे जनता का अभूतपूर्व विश्वास हासिल करते हैं। इसके साथ ही कभी जनता परिवार में लालू के सहयोगी रहे नीतिश कुमार के इस पुर्नजन्म के ऐतिहासिक-सामाजिक कारण भी हैं। बिहार के लोग अपने राज्य में अराजकता, हिंसा और गुंडाराज के चलते सारे देश में लांछित हो रहे थे। कभी बहुत प्रगतिशील रहे राज्य की छवि लालू के राजनीतिक मसखरेपन से निरंतर अपमानित हो रही थी। प्रवासियों बिहारियों के साथ हो रहे अन्य राज्यों में दुव्यर्हार ने इस मामले को और गहरा किया। तय मानिए हर समय अपने नायक तलाश लेता है। यह नायक भी बिहार ने लालू के जनता परिवार से तलाशकर निकाला। नीतिश कुमार इस निरंतर अपमानित और लांछित हो रही चेतना के प्रतीक बन गए। वे बिहारियों की मुक्ति के नायक बन गए। बिहारी अस्मिता के प्रतीक बन गए। शायद तुलना बुरी लगे किंतु यह वैसा ही था कि जैसे गुजरात में नरेंद्र मोदी वहां गुजराती अस्मिता के प्रतीक बनकर उभरे और उसी तरह नीतिश कुमार में बिहार में रहने वाला ही नहीं हर प्रवासी बिहारी एक मुक्तिदाता की छवि देखने लगा। शायद इसीलिए नीतिश कुमार की चुनौतियां अब दूसरी पारी में असाधारण हैं। कुछ सड़कें, स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा की बेहतरी के हल्के-फुल्के प्रयासों से उन्होंने हर वर्ग की उम्मीदें जिस तरह से उभारी हैं उसे पूरा करना आसान न होगा। यह बिहार का भाग्य है उसे आज एक ऐसी राजनीति मिली है, जिसके लिए उसकी जाति से बड़ा बिहार है। बिहार को जाति की इसी प्रभुताई से मुक्त करने में नीतिश सफल रहे हैं, वे हर वर्ग का विश्वास पाकर जातीय राजनीति के विषधरों को सबक सिखा चुके हैं। उनकी सोशल इंजीनियरिंग इसीलिए सलाम के काबिल है कि वह विस्तारवादी है, बहुलतावादी है, उसमें किसी का तिरस्कार नहीं है। उनकी राजनीति में विकास की धारा में पीछे छूट चुके महादलितों और पसमांदा (सबसे पिछड़े) मुसलमानों की अलग से गणना से अपनी पहचान मिली है। इसीलिए नीतिश कुमार ने महादलित आयोग और फिर बिहार महादलित विकास मिशन ही नहीं बनाया वरन हर पंचायत में महादलितों के लिए एक विकास-मित्र भी नियुक्त किया। एक लाख से ज्यादा बेघर महादलितों को दलित आवास योजना से घर बनाने में मदद देनी शुरू की। लोग कहते रहे कि यह दलितों में फूट डालने की कोशिश है,यह नकारात्मक प्रचार भी नीतिश के हक में गया। राजद, लोजपा और कांग्रेस जैसे दल इस आयोग और मिशन को असंवैधानिक बताते रहे पर नीतिश अपना काम कर चुके थे। उनका निशाना अचूक था। यह बदलता हुआ बिहार अब एक ऐसे इंजीनियर के हाथ में है जिसने सिविल इंजीनियरिंग के बाद सोशल इंजीनियरिंग की परीक्षा भी पास कर ली है और बिहार में सामाजिक न्याय की प्रचलित परिभाषा को पलट दिया है। शायद इसलिए लालू राज के अगड़े-पिछड़े वाद की नकली लड़ाई के पंद्रह सालों पर नीतिश कुमार के पांच साल भारी पड़े हैं। अब अपने पिछले पांच सालों को परास्त कर नीतिश कुमार किस तरह जटिल बिहार की तमाम जटिल चुनौतियों और सवालों के ठोस व वाजिब हल तलाशते हैं-इस पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं। लालू प्रसाद यादव ने अपनी राजनीति को जहां विराम दिया था, नीतिश ने वहीं से शुरूआत की है। लालूप्रसाद यादव मार्का राजनीति का काम अब खत्म हो चुका है। लालू अपने ही बनाए मानकों में कैद होकर रह गए हैं। नीतिश कुमार ने अपनी राजनीति का विस्तार किया है वे इसीलिए आज भी गैरकांग्रेसवाद की जमीन पर जमकर खड़े हैं जबकि लालूप्रसाद यादव को सोनिया गांधी की स्तुति करनी पड़ रही है। सांप्रदायिकता के खिलाफ उनके कथित संधर्ष के बजाए नीतिश कुमार पर मुसलमानों का भरोसा ज्यादा है। कहते हैं बिहार के यादव भी अगर साथ होते तो भी लालू कम से कम 50 सीटें जीत जाते पर राजनीति के सबसे बड़े बाजीगर लालू का तिलिस्म यहां तार-तार दिखता है। बिहार की सामाजिक संरचना के इन तमाम अंतर्विरोधों को संबोधित करते हुए नीतिश कुमार को आगे बढ़ना होगा क्योंकि बड़े सवालों के बीच छोटे सवाल खुद ही लापता हो जाएंगें। बस नीतिश को यह चाल बनाए रखनी होगी। अन्यथा बाजीगरों और वाचालों का हश्र तो उन्होंने इस चुनाव में देख ही लिया है।
Saturday, November 6, 2010
हम भ्रष्टन के, भ्रष्ट हमारे !!!
हमारी लालचें क्या हमें संवेदना से मुक्त कर चुकी हैं ?
-संजय द्विवेदी
देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी जो महात्मा गांधी से भी अपनी रिश्ता जोड़ते हुए नहीं थकती है, की अखिलभारतीय बैठक की सबसे बड़ी चिंता वह भ्रष्टाचार नहीं है जिससे केंद्र सरकार की छवि मलिन हो रही है। दुनिया के भ्रष्टतम देशों में हम अपनी जगह बना रहे हैं। उनकी चिंता ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी, शीला दीक्षित और शहीदों के फ्लैट हड़प जाने वाले मुख्यमंत्री नहीं हैं। चिंता है उस हिंदू आतंकवाद की जो कहीं दिखाई नहीं देता किंतु उसे पैदा करने की कोशिशें हो रही हैं।
नैतिकता और समझदारी पर उठते सवालः
मुंबई के आर्दश ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी के मामले ने हमारी राजनीति की नैतिकता और समझदारी पर फिर सवाल कर दिए हैं। जब मुख्यमंत्री जैसे पद पर बैठा व्यक्ति भी कारगिल के शहीदों के खून के साथ दगाबाजी करे और सैनिकों की विधवाओं के लिए स्वीकृत फ्लैट पर नजरें गड़ाए हो, तो आप क्या कह सकते हैं। किंतु यही भ्रष्टाचार अब हमारा राष्ट्रीय स्वभाव बन गया है। हमारी लालचें हमें संवेदना से रिक्त कर चुकी हैं और हमें अब किसी भी बात से शर्म नहीं आती। ऐसे कठिन समय में हम उम्मीद से खाली हैं क्योंकि इस लालच से मुक्ति की कोई विधि हमारे पास नहीं है। कामनवेल्थ खेलों में हमने अपनी आंखों से इसी बेशर्मी के तमाम उदाहरण देखे, किंतु हम ऐसे सवालों पर लीपापोती से आगे बढ़ नहीं पाते। जाहिर तौर पर हमें अब इन सवालों पर सोचने और इनसे दो-दो हाथ करने की जरूरत है। क्या यह मुद्दा वास्तव में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के इस्तीफे से खत्म हो जाएगा? उनकी जरा सी असावधानी कुर्सी के लिए खतरा बन गयी। किंतु जैसा वातावरण बन चुका है क्या उसमें कोई राजनेता या राजनीतिक दल आगे से भ्रष्टाचार न करने की बात सोच सकता है ? क्योंकि राजनीतिक क्षेत्र में पद इसी तरह मिल और बंट रहे हैं।
राजनीति में धन का बढ़ता असरः
राजनीति में धन एक ऐसी आवश्यक्ता है जिसके बिना न तो पार्टियां चल सकती हैं न चुनाव जीते जा सकते हैं। इसी से भ्रष्टाचार फलता-फूलता है। राष्ट्रीय संपत्ति की लूट और सरकारी संपत्ति को निजी संपत्ति में बदलने की कवायदें ही इस देश में फल-फूल रही हैं। हम भारत के लोग इस पूरे तमाशे को होता हुआ देखते रहने के लिए विवश हैं। हर घटना के बाद हमारे पास बलि चढ़ाने के लिए एक मोहरा होता है और उसकी बलि देकर हम अपने पापों का प्रायश्चित कर लेते हैं। कामनवेल्थ के लिए कलमाड़ी और अब आर्दश सोसायटी के लिए शायद चव्हाण की बलि हो जाए। किंतु क्या इससे हमारा राजनीतिक तंत्र कोई सबक लेगा, शायद नहीं क्योंकि राजनीति में आगे बढ़ने की एक बड़ी योग्यता भ्रष्टाचार भी है। इसी गुण ने तमाम राजनेताओं की अपने आलाकमानों के सामने उपयोगिता बना रखी है। वफादारी और भ्रष्टाचार की मिली-जुली योग्यताएं ही राजनीतिक क्षेत्र में एक आदर्श बन चुकी है। शहीदों की विधवाओं के फ्लैट निगल जाने का दुस्साहस हमें यही घटिया राजनीति देती है।
भारतीय जनता का स्मृतिदोषः
आज हमारे राजनीतिक तंत्र को यह लगने लगा है कि भारत की जनता की स्मृति बहुत कमजोर है और वह कुछ भी गलत करेंगें तो भी उसे जनता थोड़े समय बाद भूल जाएगी। चुनावों के कई फैसले, कई बार यही बताते हैं। आप मुंबई हमलों की याद करें कि जिसके चलते महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और केंद्रीय मंत्री शिवराज पाटिल को अपनी कुर्सियां गंवानीं पड़ीं किंतु बाद में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली। ऐसे स्मृतिदोष को चलते ही हमारा हिंदुस्तान बहुत से संकटों से मुकाबिल है। हमें अपनी स्मृति के साथ अपने राजनीतिक तंत्र पर नियंत्रण रखने की विधि भी विकसित करनी पड़ेगी वरना यह लालच हमारे जनतंत्र को बेमानी बना देगा, इसमें दो राय नहीं है। हमें भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनने से रोकना होगा वरना हमारे पास उस खोखले जनतंत्र के अलावा कुछ नहीं बचेगा, जिसे राजनीति की दीमक चाट चुकी होगी।सही मायने में भ्रष्टाचार भारत की एक ऐसी समस्या बन चुका है जिससे पूरा समाज त्राहि-त्राहि कर रहा है किंतु उससे बचने का कोई कारगर रास्ता नजर नहीं आता। अब जबकि ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की रेंकिंग में भारत तीन पायदान फिसलकर 87 वें नंबर पर जा पहुंचा है तो हमें यह सोचना होगा कि दुनिया में हमारा चेहरा कैसा बन रहा है। संस्था का यह अध्ययन बताता है कामनवेल्थ खेलों ने हमारी भ्रष्ट छवि में और इजाफा किया है। इससे पता चलता है कि भ्रष्टाचार को रोकने में हम नाकाम साबित हुए हैं और दुनिया के अतिभ्रष्ट देशों की सूची में हमारी जगह बनी हुयी है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के चेयरमैन पीएस बावा का कहना है कि भारत में कुशल प्रशासक होने के बावजूद गर्वनेंस का स्तर नहीं सुधरना, चिंताजनक और शर्म का विषय है।
विकास को खा रहा है भ्रष्टाचारः
निश्चय ही भारत जैसे महान लोकतंत्र के लिए भ्रष्टाचार की समस्या एक बड़ी चुनौती है। इसके चलते भारत का जिस तेजी से विकास होना चाहिए वह नहीं दिखता। साथ ही तमाम विकास की योजनाओं का धन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। इसका सबसे बड़ा शिकार वह तबका होता है जो सरकारी योजनाओं का लाभार्थी होता है। उसका दर्द बढ़ जाता है, जबकि सरकारी योजनाएं कागजों में सांस लेती रहती हैं। सरकार के जनहितकारी प्रयास इसीलिए जमीन पर उतरते नहीं दिखते। इसी तरह सार्वजनिक योजनाओं की लागत भ्रष्टाचार के नाते बढ़ जाती है। देश की बहुत सी पूंजी का प्रवाह इसी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। तमाम कानूनों और प्रतिरोधक उपायों के बावजूद हमारे देश में यह समस्या बढ़ती जा रही है। सूचना के अधिकार कानून के बावजूद , पारदर्शिता के सवाल पर भी हम काफी पिछड़े हुए हैं। एक लोकतंत्र के लिए ये स्थितियां चिंताजनक है। क्या हम इसके समाधानों की ओर बढ़ नहीं सकते, यह सवाल सबके मन में है। आखिर क्या कारण है भ्रष्टाचार हमारे समाज जीवन की एक अपरिहार्य जरूरत बन गया है।
जनता का मानस भी ऐसा बन गया है कि बिना रिश्वत दिए कोई काम नहीं हो सकता। क्या हम ऐसे परिवेश को बेहतर मान सकते हैं। जहां जनता के मन में इतनी निराशा और अवसाद घर कर गया हो। क्या यह देश के जीवन के लिए एक चिंताजनक स्थिति नहीं है। सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने के सारे प्रयास बेमानी साबित हुए हैं। भ्रष्टाचार नियंत्रण और जांच को लेकर बनी हमारी सभी एजेंसियों ने भी कोई उम्मीद नहीं जगायी है। ऐसे में भ्रष्टाचार के राक्षस से लड़ने का रास्ता सिर्फ यही है कि जनमन में जागृति आए और लोग संकल्पित हों। किंतु यह काम बहुत कठिन है। जनता के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। वह अपने स्तर पर सारा कुछ नहीं कर सकती। किंतु एक जागृत समाज काफी कुछ कर सकता है इसमें कोई संदेह नहीं है। देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल यानि मुख्यधारा की राजनीति ही अगर भ्रष्टाचार के सवाल पर किनारा कर चुकी है, तो क्या हम भारत के लोग अपने देश की छवि को बचाने के लिए कुछ जतन करेंगें या इसे यूं ही कलमाड़ी और ए.राजा जैसों के भरोसे छोड़ देगें।
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Tuesday, November 2, 2010
आजाद कश्मीर के दुस्वप्न की एकमात्र बाधा है सेना
कश्मीर से लेकर हर अशांत इलाके में सुरक्षाबलों के खिलाफ चल रहा है निंदा अभियान
-संजय द्विवेदी
कश्मीर के संकट पर जिस तरह देश की राय बंटी हुयी है और अरूंधती राय, अलीशाह गिलानी से लेकर बरवर राव तक एक मंच पर हैं, तो बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती। यूं लगने लगा है कि कश्मीर के मामले हर पक्ष ठीक है दोषी है तो सिर्फ सेना। जिसने अपनी बहादुरी से नाहक लगभग अपने दस हजार जवानों का बलिदान देकर कश्मीर घाटी को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखा है। अलीशाह गिलानी से लेकर हर भारतविरोधी और पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलने वाले का यही ख्याल है कि सेना अगर वापस हो जाए तो सारे संकट हल हो जाएंगें। बात सही भी है।
कश्मीर घाटी के इन छ-सात जिलों का संकट यही है कि भारतीय सेना के रहते ये इलाके कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सकते। इसलिए निशाना भारतीय सेना है और वह भारत की सरकार है जिसने इसे यहां लगा रखा है। शायद इसीलिए देश के तमाम बुद्धिजीवी अब सेना के नाम पर स्यापा कर रहे हैं। जैसे सेना के हटाए जाते ही कश्मीर के सारे संकट हल हो जाएंगें। अलीशाह गिलानी, हड़तालों का कैलेंडर जारी करते रहें, उनके पत्थरबाज पत्थर बरसाते रहें, घाटी के सिखों और हिंदुओं को इस्लाम अपनाने या क्षेत्र छोड़ने की घमकियां मिलती रहें किंतु और सेना के हाथ से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट को वापस लेने की वकालत की जा रही है। क्या आपको पता है कि घाटी में भारतीय सेना को छोड़कर भारत माता की जय बोलने वाला कोई शेष नहीं बचा है ? क्या इस बात का जवाब भारत के उदारमना बुद्धिजीवियों और केंद्र सरकार के पास है कि गिलानी के समर्थकों के प्रदर्शन में पाकिस्तानी झंडे इतनी शान से क्यों लहराए जाते हैं ? देश यह भी जानना चाहता है कि अलग-अलग विचारधाराओं की यह संगति जहां माओवाद समर्थक, खालिस्तान समर्थक और इस्लामिक जेहादी एक मंच पर हैं तो इनका संयुक्त उद्देश्य क्या हो सकता है ? यदि ये अपने विचारों के प्रति ईमानदार हैं तो इनकी कोई संगति बनती नहीं। क्योंकि जैसा राज बरवर राव लाना चाहते हैं, वहां इस्लाम की जगह क्या होगी? और गिलानी के इस्लामिक इस्टेट में माओवादियों की जगह क्या होगी? इससे यह संदेश निकालना बहुत आसान है कि देश को तोड़ने और भारतीय लोकतंत्र को तबाह करने की साजिशों में लगे लोगों की वैचारिक एकता भी इस बहाने खुलकर सामने आ गयी है।
यह भी प्रकट है कि ये लोग अपने धोषित विचारों के प्रति भी ईमानदार नहीं है। इनका एकमात्र उद्देश्य भारत के लोकतंत्र को नष्ट कर अपने उन सपनों को घरती पर उतारना है, जिसकी संभावना नजर नहीं आती। किंतु अरूंधती राय जैसी लेखिका का इनके साथ खड़ा होना भी हैरत की बात है। एक लेखक के नाते अरूंधती की सांसें अगर भारत के लोकतंत्र में भी घुट रही हैं तो किसी माओवादी राज में, या इस्लामिक स्टेट में किस तरह वे सांस ले पाएंगी और अपनी अभिव्यक्ति के प्रति कितनी ईमानदार रह पाएंगीं। उस भारतीय लोकतंत्र में, जिसे लांछित करती हुयी वे कहती हैं कि यहां आपातकाल के हालात हैं, में भी वे पत्र-पत्रिकाओं में लंबे आलेख लिखती हैं, देशविरोधी भाषण करती हैं, किंतु भारत की सरकार उन्हें क्षमा कर देती है। क्या वे बताएंगी कि भारतीय लोकतंत्र के समानांतर कोई व्यवस्था पूरी इस्लामिक या कम्युनिस्ट पट्टी में कहीं सांस ले रही है ? भारतीय लोकतंत्र की यही शक्ति है और यही उसकी कमजोरी भी है कि उसने अभिव्यक्ति की आजादी को इतना स्पेस दिया है कि आप भारत मां को डायन, महात्मा गांधी को शैतान की औलाद और देश के राष्ट्र पुरूष राम को आप कपोल कल्पना और मिथक कह सकते हैं। इस आजादी को खत्म करने के लिए ही गिलानी के लोग पत्थर बरसा रहे हैं , जिनके लोगों के नाते 1990 में दो लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ना पड़ा। निमर्मता ऐसी कि कथित बुद्धिजीवी लिखते और कहते हैं कश्मीरी पंडितों को तो सरकार से मुआवजा मिलता है, राशन मिलता है। संवेदनहीनता की ऐसी बयानबाजियां भी यह देश सहता है। एक कश्मीरी पंडित परिवार को चार हजार रूपए, नौ किलो गेंहूं,दो किलो चावल और किलो चीनी मुफ्त मिलती है। अगर शरणार्थी शिविरों के नारकीय हालात में रहने के लिए इन सुविधाओं के साथ हुर्रियत के पत्थरबाजों और अरुंधती राय की टोली को कहा जाए तो कैसा लगेगा। किंतु आप आम हिंदुस्तानी की ऐसी स्थितियों का मजाक बना सकते हैं। क्योंकि आपकी संवेदनाएं इनके साथ नहीं है। आपके आका विदेशों में बैठे हैं जो आपको पालपोसकर हिंदुस्तान की एकता के टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहते हैं।
यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि जो माओवादी 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं और जो गिलानी कश्मीर में निजामे-मुस्तफा लाना चाहते हैं एक साथ हैं। इस विचित्र संयोग पर देश की सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की है। किंतु देश के मन में इसे लेकर बहुत हलचल है। देश की आम जनता आमतौर पर ऐसे सवालों पर प्रतिक्रिया नहीं देती किंतु उसका मानस विचलित है। उसके सामने सरकार के दोहरे आचरण की तमाम कहानियां हैं। गिलानी श्री नगर से दिल्ली तक जहर उगलते घूम रहे हैं, अरूंधती राय दुनिया-जहान में भारत की प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला रही हैं। बरवर राव लोकतंत्र की जगह माओवाद को स्थापित करने के प्रयासों के साथ हैं और एक खूनी क्रांति का स्वप्न देख रहे हैं। इन सबके रास्ते कौन सबसे बड़ा बाधक है क्या हमारी राजनीति ? क्या हमारे राजनेता? क्या हमारी व्यवस्था? क्या हमारी राजनीतिक पार्टियां ? नहीं..नहीं..नहीं। इन देशतोड़कों के रास्ते में बाधक है हमारी जनता ,सुरक्षा बल और बहादुर सेना। इसलिए इन कथित क्रांतिकारियों के निशाने पर हमारे सुरक्षा बल,सेना और आम जनता ही है। नेताओं और राजनीतिक दलों का चरित्र देखिए। आज गिलानी और कश्मीर के मुख्यमंत्री एक भाषा बोलने लगे हैं। नक्सल इलाकों में हमारी राजनीति ,प्रशासन, कारपोरेट और ठेकों से जुड़े लोग नक्सलियों और आतंकवादियों को लेवी दे रहे हैं। जिस पैसे का इस्तेमाल ये ताकतें हमारी ही जनता और सुरक्षा बलों का खून बहाने में कर रही हैं। इन खून बहाने वालों को ही अरूंधती राय, गांधीवादी बंदूकधारी कहती हैं और जिनपर सुरक्षा व शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी है उनको राज्य के आतंक का पर्याय बताया जा रहा है। इसलिए सारा निशाना उस सेना और सुरक्षाबलों पर है जिनकी ताकत के चलते ये देशतोड़क लोग हिंदुस्तान के टुकड़े करने में खुद को विफल पा रहे हैं। किंतु हमारी राजनीति का हाल यह है कि संसद पर हमलों के बाद भी उसके कान में घमाकों की गूंज सुनाई नहीं देती। मुंबई के हमले भी उसे नहीं हिलाते। रोज बह रहे आम आदिवासी के खून से भी उसे कोई दर्द नहीं होता।
पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने का विचार करने लगती है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के हाथ अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें।क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं? क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों-नक्सलवादियों का गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा।
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